State Assembly

राज्य विधानसभा (State Assembly)

राज्य विधानसभा (State Assembly) का गठन संविधान के अनुच्छेद 170 के तहत राज्य के व्यस्क मतदाताओं द्वारा चुने गए सदस्यों द्वारा होता है। इसी अनुच्छेद के तहत किसी राज्य की विधानसभा के अधिक से अधिक 500 और कम से कम 60 सदस्य हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश में विधानसभा सदस्यों की संख्या 335 है जबकि सिक्किम में सदस्यों की संख्या केवल 32 है। राज्य के विधानसभा की सदस्य संख्या राज्य की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। निर्वाचन क्षेत्रों के विभाजन के समय यह ध्यान रखा जाता है कि प्रत्येक सदस्य कम से कम 75,000 जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करे। प्रत्येक जनगणना के बाद विधान सभा के निर्वाचन क्षेत्रों का निर्धारण परिसीमन आयोग द्वारा किया जाता है। 42वें संविधान संशोधन द्वारा यह प्रावधान किया गया था कि चुनाव क्षेत्रों का नया निर्धारण 2001 की जनगणना के आंकड़ों के प्रकाशन के बाद किया जाएगा, परंतु 91वां संविधान संशोधन अधिनियम 2001 के द्वारा परिसीमन 2026 तक स्थगित कर दिया गया है। इसी प्रकार विधान सभाओं में जनसंख्या के आधार पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित करने के लिए भी 2000 के पश्चात होने वाली पहली जनगणना तक वहीं आंकड़े लिए जायेंगे जो 1971 की जनगणना के अनुसार निश्चित हो चुके है। यदि राज्य के राज्यपाल को यह प्रतीत हो कि किसी राज्य की विधानसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, तो वह विधानसभा में इस समुदाय के एक प्रतिनिधि को मनोनित कर सकता है।

विधानसभा की अवधि

सामान्यतया विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है, किंतु राष्ट्रीय आपातकाल के उद्घोषणा के प्रर्वतन की स्थिति में विधानसभा की अवधि को एक वर्ष के लिए बढ़ायी जा सकती है, लेकिन इस प्रकार बढ़ायी गयी अवधि आपातकाल के समाप्त होने के 6 महीने से अधिक समय के बाद जारी नहीं रह सकती। यहां यह उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है। विधानसभा का विघटन उसके 5 वर्ष पूरा होने के पूर्व भी किया जा सकता है। विधानसभा का विघटन मंत्रिपरिषद की सलाह पर राज्यपाल द्वारा की जाती है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में भी विधानसभा को विघटित किया जा सकता है।

सदस्यों की योग्यता

अनुच्छेद 173 में विधानसभा की सदस्यता के लिए योग्यताएं उपबंधित की गयी है जो वही है जो लोकसभा की सदस्यता के लिए निर्धारित है –

  • वह भारत का नागरिक हो,
  • वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
  • वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन लाभ के पद पर कार्यरत न हों; तथा
  • संसद द्वारा बनायी गयी किसी विधि के अधीन राज्य विधानसभा का सदस्य चुने जाने के अयोग्य न हो।

विधान सभा का सत्र और गणपूर्ति

विधानसभा में गणपूर्ति के लिए कम से 1/10 सदस्यों का उपस्थिति होना अनिवार्य है तथा यह संख्या किसी हालत में 10 से कम नहीं होनी चाहिए। विधानसभा का सत्र वर्ष में कम से कम दो बार आहुत किया जाना आवश्यक है तथा किन्हीं दो सत्रों के बीच 6 माह से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए।

अनुच्छेद 174 (1) के अनुसार विधान सभा के दो सत्रों के मध्य छह महीने से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिये। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायधीश बी. एन. किरपाल की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय न्यायपीठ ने गुजरात सरकार के वाद में यह व्यवस्था दी कि अनुच्छेद 174 का उपरोक्त प्रावधान भंग विधान सभा पर लागू नहीं होता।

विधानमंडल के पीठासीन अधिकारी

राज्य विधानमंडल के प्रत्येक सदन का अपना पीठासीन अधिकारी होता है। विधानसभा के लिए अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष और विधानपरिषद के लिए सभापति एवं उप सभापति होते हैं। विधानसभा के लिए सभापति का पैनल एवं परिषद के लिए उपसभाध्यक्ष का पैनल भी नियुक्त होता है।

विधानसभा अध्यक्ष

विधानसभा के सदस्य अपने सदस्यों के बीच से ही अध्यक्ष का निर्वाचन करते हैं।

सामान्यत: विधानसभा के कार्यकाल तक अध्यक्ष का पद होता है। हालांकि वह निम्नलिखित तीन मामलों में अपना पद रिक्त करता है: –

  • यदि उसकी विधानसभा सदस्यता समाप्त हो जाए।
  • यदि वह उपाध्यक्ष को अपना लिखित में त्यागपत्र दे दे और
  • यदि विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पर से हटाया जाए। इस तरह का कोई प्रस्ताव केवल 14 दिन की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।

अध्यक्ष की निम्नलिखित शक्तियां एवं कार्य होते हैं:

  • कार्यवाही एवं अन्य कार्यों को सुनिश्चित करने के लिए वह व्यवस्था एवं शिष्टाचार बनाए रखता है। यह उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी है और इस संबंध में उसकी शक्तियां अंतिम हैं।
  • वह प्रक्रिया है
    • भारत के संविधान का
    • सभा के नियमों एवं कार्य संचालन की कार्यवाही में
    • विधान में इसकी पूर्व परंपराओं का, के उपबंधों का अंतिम व्यायाकर्ता है।
  • कोरम की अनुपस्थिति में वह विधानसभा की बैठक को स्थगित या निलंबित कर सकता है।
  • प्रथम मामले में वह मत नहीं देता लेकिन बराबर मत होने की स्थिति में वह निर्णायक मत दे सकता है।
  • सदन के नेता के आग्रह पर वह गुप्त बैठक को अनुमति प्रदान कर सकता है।
  • वह इस बात का निर्णय करता है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं। इस प्रश्न पर उसका निर्णय अंतिम होगा।
  • दसवीं अनुसूची के उपबंधों आधार पर किसी सदस्य की निरर्हता को लेकर उठे किसी विवाद पर फैसला देता है।
  • वह विधानसभा की सभी समितियों के अध्यक्ष की नियुक्ति है और उनके कार्यों का पर्यवेक्षण करता है। वह स्वयं कार्य मंत्रणा समिति, नियम समिति एवं सामान्य उद्देश्य समिति का अध्यक्ष होता है।

विधानसभा उपाध्यक्ष

अध्यक्ष की तरह ही विधानसभा के सदस्य उपाध्यक्ष का चुनाव भी अपने बीच से ही करते हैं। अध्यक्ष का चुनाव संपन्न होने के बाद उसे निर्वाचित किया जाता है।

अध्यक्ष की ही तरह उपाध्यक्ष भी विधानसभा के कार्यकाल तक पद पर बना रहता है, हालांकि वह समय से पूर्व भी निम्नलिखित तीन मामलों में पद छोड़ सकता है: –

  • यदि उसकी विधानसभा सदस्यता समाप्त हो जाए।
  • यदि वह अध्यक्ष को लिखित इस्तीफा दे और
  • यदि विधानसभा सदस्य बहुमत के आधार पर उसे हटाने का संकल्प पास कर दे। यह संकल्प 14 दिन की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।

उपाध्यक्ष, अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसके सभी कार्यों को करता है। यदि विधानसभा सत्र के दौरान अध्यक्ष अनुपस्थित हो तो वह उसी तरह कार्य करता है। दोनों मामलों में उसकी शक्तियां अध्यक्ष के समान रहती हैं।

विधानसभा अध्यक्ष सदस्यों के बीच से सभापति पैनल का गठन करता है, उनमें से कोई भी एक अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में सभा की कार्यवाही संपन्न कराता है। जब वह पीठासीन होता है तो, उस समय उसे अध्यक्ष के समान अधिकार प्राप्त होते हैं। वह सभापति के नए पैनल के गठन तक कार्यरत रहता है।

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