मैती आन्दोलन (Maiti Andolan)

मैती आन्दोलन (Maiti Andolan) 

उत्तराखण्ड में मैत का अर्थ होता है मायका, और मैती का अर्थ होता है, मायके वाले। मैती आन्दोलन (Maiti Andolan) में पहाड़ की नारी का उसके जल, जंगल और जमीन से जुड़ाव को दर्शाया गया। क्योंकि एक अविवाहित लड़की के लिये उसके गांव के पेड़ भी मैती ही होते हैं, इसलिये जिस भी लड़की की शादी हो रही हो, वह फेरे लेने के बाद वैदिक मंत्रोच्चार के बीच एक पेड़ लगाकर उसे भी अपना मैती बनाती है।

मैती जैसे पर्यावरणीय आंदोलन कुछ लोगों के लिए सिर्फ रस्मभर हैं जबकि इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाएं तो पता चलता है कि यह एक ऐसा भावनात्मक पर्यावरणीय आंदोलन है।

इस भावनात्मक पर्यावरणीय आन्दोलन की शुरुआत 1994 में चमोली जनपद के राजकीय इंटर कालेज ग्वालदम के जीव विज्ञान के प्राधयापक कल्याण सिंह रावत द्वारा मैती आंदोलन की शुरुआत हुई जो धीरे-धीरे परम्परा का रूप धारण करती जा रही है। यह आंदोलन आज गढ़वाल में जन-जन तक पहुंच चुका है।

मैती का अर्थ होता है ‘मायका’ यानि जहां लड़की जन्म से लेकर शादी होने तक अपने माता-पिता के साथ रहती है। और जब उसकी शादी होती है तो वह ससुराल जाती है लेकिन अपनी यादों के पीछे वह गांव में बिताए गए पलों के साथ ही शादी के मौके पर रोपित वृक्ष से जुड़ी यादों को भी साथ लेकर जाती है। इसी भावनात्मक आंदोलन के साथ शुरू हुआ पर्यावरण संरक्षण का यह अभियान दिनों-दिन आगे बढ़ता जा रहा है।

मैती आंदोलन के साथ लोगों को जोड़ने का जो काम कल्याण सिंह रावत ने किया अब वह परम्परा का रूप ले चुका है। अब जब भी गढ़वाल के किसी गांव में किसी लड़की की शादी होती है कम से कम चमोली जनपद में तो विदाई के समय मैती बहनों द्वारा दूल्हा-दुल्हन को गांव के एक निश्चित स्थान पर ले जाकर फलदार पौधा दिया जाता है। वैदिक मंत्रें द्वारा दूल्हा इस पौधो को रोपित करता है तथा दुल्हन इसे पानी से सींचती है, फिर ब्राह्मण द्वारा इस नव दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया जाता है।

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दूल्हा अपनी इच्छा अनुसार मैती बहनों को पैसे भी देता है। आज जनपद के कई गांवों में मैती संगठन मौजूद हैं। यह गांव की बहनों का संगठन है। गांव की सबसे मुखर व जागरूक लड़की मैती संगठन की अधयक्ष बनती है। जिसे ‘दीदी’ के नाम से जाना जाता है। मैती संगठन के बाकी सदस्यों को मैती बहन के नाम से पुकारा जाता है। शादी की रस्म के बाद दूल्हा-दुल्हन द्वारा रोपे गए पौधों की रक्षा यही मैती बहनें करती हैं। इस पौधों को वह खाद, पानी देती हैं, जानवरों से बचाती हैं। मैती बहनों को जो पैसा दूल्हों के द्वारा इच्छानुसार मिलता है, उसे रखने के लिए मैती बहनों द्वारा संयुक्त रूप से खाता खुलवाया जाता है। उसमें यह राशि जमा होती है। खाते में अधिक धानराशि जमा होने पर इसे गरीब बच्चों की पढ़ाई पर भी खर्च किया जाता है।

मैती के पीछे श्री रावत जी की यह सोच थी कि सालभर में कई शादियां गांवों में होती हैं। प्रत्येक शादी में अगर एक पेड़ लगे तो एक बड़ा जंगल बन जाएगा, जंगल से फल व ईंधन प्राप्त होगा, घास पैदा होगी, जो गांव के लोगों के बीच नि:शुल्क बांटी जाएगी। साथ ही शुद्ध वायु भी लोगों को मिलेगी, पर्यावरण सुंदर होगा।

अगर उत्तराखंड के संदर्भ में देखें तो यहां की अर्थव्यवस्था जल, जंगल, जमीन से जुड़ी हुई है। लेकिन आज प्राकृतिक संपदा खतरे में है। ऐसे में मैती आन्दोलन वैश्विक होते हुए पर्यावरणीय समस्या का एक कारगर उपाय हो सकता है। बशर्ते इसके लाभों को व्यापक रूप से देखा जाए। आज सरकार पर्यावरण संरक्षण के नाम पर करोड़ों रूपये खर्च कर रही है, लेकिन समस्या दूर होने के बजाए बढ़ती जा रही है। ऐसे में पर्यावरण को बचाने के लिए मैती को एक सफल कोशिश कहा जा सकता है।

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अब मैती आंदोलन अब केवल विवाह के मौके पर दूल्हा-दुल्हन से वृक्ष लगाने तक सीमित नहीं रह गया है। इस आंदोलन के प्रणेता कल्याण सिंह रावत ने इस भावनात्मक आंदोलन को बहुमुखी बनाने में भी कामयाबी पाई है। अपने अनेक अभिनव प्रयोगों और गरीबों, विकलांगो, महिलाओं और छात्रों के बीच सामाजिक कार्यों के कारण मैती संगठन की पहचान सभी वर्गों के बीच बन गई है। इस संगठन ने वैलेंटाइन डे जैसे मौके में भी गुलाब फूल लेने-देने के प्रचलन से बाहर निकाल कर ‘एक युगल एक पेड़’ के कार्यक्रम से जोड़ दिया है। अब उत्तराखंड़ के गांव-गांव में वेलेंटाइन डे पर भी प्रेमी जोड़े अपने प्रेम की याद में पेड़ लगाते हैं।

 

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