कुणिंद मुद्राएँ (Kunand Mudra)
द्वितीय सदी ईस्वी पूर्व के अन्तिम चरण से लेकर तृतीय सदी ईस्वी तक के पर्याप्त कुणिन्द सिक्के प्रकाश में आये हैं। यह तथ्य इस अवधि में कुणिन्द शासन-तंत्र की सुदृढ़ता का परिचायक है।
विद्वानों ने कुणिन्द सिक्कों को दो वर्गों
(1) अमोघभूति भाति तथा
(2) चत्रेश्वर या अनाम भांति में विभाजित किया है।
विद्वानों का एक वर्ग ऐसा भी है जो ‘अल्मोड़ा भांति के सिक्कों’ को कुणिन्दों के साथ सम्बद्ध करता है, इन विद्वानों में रैप्सन, पॉवेल प्राइस, एस.के. चक्रवर्ती, के.पी. नौटियाल एवं एम.पी.जोशी प्रमुख हैं इन सिक्कों में प्राचीनतम सिक्के अमोघभूति भांति के माने गये है और उनके उपरान्त अल्मोड़ा भांति और फिर चत्रेयर या अनाम भांति का काल निश्चित किया गया है।
अमोघभूति भांति (Amoghbhuti (In-auspiciousness) Type)
अमोघभूति के विषय में माना जाता है कि, उसने हिन्द-यवन साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर एक स्वतंत्र राज्य का निर्माण किया था और अपनी स्वतंत्र मुद्रा जारी की थी। पावेल प्राइस, अमोधभूमि के सिक्कों के विषय में मानते हैं, कि इन सिक्कों का आकार, संरचना और रूपाकृति, बैक्ट्रियन–ग्रीक शासकों के सिक्कों की नकल पर आधारित है। अमोघभूति के सिक्के चाँदी और ताँबे दोनों धातुओं में मिलते हैं, प्रकार की दृष्टि से ये सिक्के भारतीय हैं, इनमें भारतीय भाषा, लिपि और प्रतीक चिह्न प्रयुक्त हैं। लेकिन भारमान की दृष्टि से अमोघभूति के चाँदी के सिक्के बाद के ग्रीक शासकों के अर्द्ध-द्राम प्रकार से मिलते हैं ।
अमोघभूति भांति – रजत मुद्रा (Silver Coins)
अमोघभूति की रजत-मुद्रा, भार प्रमाण की दृष्टि से 31 से 38 ग्रेन तक की है । इसके मुख–भाग तथा पृष्ठ-भाग में कतिपय प्रतीक चिह्न तथा ब्राह्मी एवं खरोष्ठी लिपि में लेख उत्कीर्ण मिलते हैं।
अमोघभूति की ताम्र-मुद्राएँ (Copper Coins)
उसकी रजत-मुद्राओं के समान ही हैं। ये ढलाई ठप्पा (डाइस्ट्रक) द्वारा निर्मित हैं, इनका भार प्रमाण 9.5 ग्रेन से 252 ग्रेन तक मिलता है। इन मुद्राओं के प्रमुख अन्तर एम.पी. जोशी के अनुसार अग्नांकित हैं –
- अत्यधिक कम संख्या में प्राप्त परन्तु बहुत ही साफ और उच्चकोटि की डाली गयी मुद्रा, इन मुद्राओं की ढलाई और उनमें प्रयुक्त सुन्दर लेख से प्रतीत होता है कि ये अमोघभूति की रजत-मुद्राओं के समकालीन
- इस क्षेत्र में चलन में प्रचलित आम ताम्र-मुद्रा जो खुरदरे और अपूर्ण लेखयुक्त हैं । इनके अपूर्ण लेख और खुरदरी द्वलाई से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये मुद्राएँ बाद में अमोधभूति के उत्तराधिकारियों के समय में भी प्रचलन में रहीं थीं ।
- दो पंक्तियों में अव्यवस्थित तरीके से लेखयुक्त मुद्रा जो भद्दे तरीके से काफी बड़े आकार में बनायी गयी हैं । इन मुद्राओं में प्रयुक्त लिपि-चिह्नों के आकार में अनुपात का कोई ध्यान नहीं रखा गया है ।
चत्रेश्वर माँति (Chatereshwar Type)
तृतीय सदी ईस्वी में कुणिन्द, यौधेय, आर्जुनायन आदि ने मिलकर उत्तर भारत में कुषाणों की सत्ता को समाप्त कर दिया था। प्रतीत होता है कि इस विजय से कुणिन्दों का राज्य भी पुनः आसपास के मैदानी क्षेत्रों तक विस्तृत हो गया। इसी विजय के उपलक्ष्य में संभवतः कुणिन्दों ने चेतेश्वर भांति के सिक्के निर्गमित किये और अश्वमेध यज्ञ का सम्पादन किया। कुणिन्दों के ये सिक्के कुषाणों की ताग्न-मुद्राओं के समान हैं, इसका कारण तत्कालीन प्रचलित कुषाण सिक्कों के साथ प्रतियोगिता कर कुणिन्दों को अपनी मुद्रा को रथापित करने की बाध्यता बतलायी जाती है। चत्रेश्वर भांति के सिक्कों को उनके पृष्ठ-भाग में अंकित हिरण, वृक्ष, नदी जैसे चिह्नों के आधार पर कुणिन्दों की पूर्व मुद्राओं से तुलना कर कुणिन्द मुद्रा स्वीकार किया गया है। इन मुद्राओं का भार प्रमाण 131 ग्रेन से 291 ग्रेन तक है । चत्रेवर भांति के सिक्कों के मुख–भाग में एक द्विभुजी पुरूष आकृति सामने की ओर मुँह किये खट्टी-मुद्रा में प्रदर्शित है। आकृति के दाँये हाथ में परशु–त्रिशूल और बाँया कटिवस्त है जिसमें संभवतः चर्म लटका है, यह व्याघ्र-चर्म प्रतीत होता है । पुरूष आकृति की जटाएँ ठीक उसी प्रकार निर्मित हैं जैसी कि गुडिमल्लम के शिव-लिंग में प्रदर्शित मिलती हैं । इन सिक्कों में ब्राह्मी लिपि में “भागवत चत्रेश्वर महात्मनः” लेख मिलता है ।
डी.सी.सरकार इसे “भगवतः चत्रेश्वर महात्मनः” पढ़ते हैं और कहते हैं कि “यह महान् आत्मा जो छत्र का स्वामी है, पवित्र और पूजनीय है का सिक्का है” सरकार के अनुसार कुणिन्द ने अपना राज्य शिव को अर्पित कर दिया था जबकि इस प्रकार के सिक्के चलाये गये थे।
पुसलकर ने भी चत्रेश्वर को शिव से समीकृत किया है और इसके दो अर्थ बतलाये हैं –
1. संभवतः कुणिन्द राजधानी छत्र या क्षेत्र का स्वामी, और
2. अहिछत्रा एवं छत्रावती नाम का संक्षिप्तीकरण ।
अल्टेकर, चत्रेश्वर को छत्रेश्वर से शुद्ध करते हैं और इसे एक कुणिन्द शासक का नाम मानते हैं । मुनीश चन्द्र जोशी, चत्रेश्वर को चित्रेश्वर पढ़ने का आग्रह करते हैं जिसकी पहचान वह काठगोदाम के समीप स्थित स्वयमूलिग से करते हैं ।
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