Environmental Protection vs Development

पर्यावरण संरक्षण बनाम विकास: सर्वोच्च न्यायालय का ताज़ा दृष्टिकोण

November 20, 2025

संवैधानिक व विधिक पृष्ठभूमि

भारत में पर्यावरणीय नियमन का मूल आधार Environment (Protection) Act, 1986 है, जिसके अंतर्गत EIA Notifications of 1994 and 2006 जारी किए गए। इन अधिसूचनाओं का केंद्रीय सिद्धांत है कि किसी भी बड़े निर्माण, औद्योगिक या प्रदूषणकारी परियोजना को कार्य प्रारंभ करने से पहले Environmental Clearance (EC) प्राप्त करना अनिवार्य है। यह व्यवस्था पर्यावरणीय निर्णयों को ex-ante (पूर्व-निर्णय) सिद्धांत पर आधारित करती है, ताकि संभावित संचयी पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन पहले ही हो सके।

न्यायपालिका ने भी समय-समय पर इस सिद्धांत को पुष्ट किया। Common Cause (2017) और Alembic Pharmaceuticals (2020) जैसे निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जहाँ EC अनिवार्य है, वहाँ post-facto EC (निर्माण शुरू होने या पूरा हो जाने के बाद अनुमति) मूल रूप से अस्वीकार्य है। इस प्रकार, भारतीय पर्यावरणीय न्यायशास्त्र 1990 के दशक से ही “EC first” के सिद्धांत पर टिका हुआ है।

हालिया न्यायिक घटनाक्रम: मई 2025 का Vanashakti निर्णय

मई 2025 में Vanashakti मामले में एक पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि post-facto EC पूरी तरह अस्वीकार्य है। इस निर्णय ने पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी 2017 की अधिसूचना और उसके बाद के कई Office Memoranda, जिनके माध्यम से post-facto EC को नियमित किया जा रहा था, को अवैध घोषित कर दिया।

मई 2025 के आदेश ने यह संदेश दिया कि post-facto EC न केवल कानूनी ढांचे के विपरीत हैं, बल्कि वे पर्यावरणीय शासन की मूल भावना — पूर्व पर्यावरणीय स्वीकृति — को भी कमजोर करते हैं। इस निर्णय ने बड़े पैमाने पर उन परियोजनाओं के खिलाफ सख्त रुख अपनाया जो पहले निर्माण शुरू कर देती थीं और बाद में अनुमति लेने का प्रयास करती थीं।

नए बहुमत का दृष्टिकोण: सीमित दायरे में post-facto नियमितीकरण

हालिया बहुमत निर्णय ने मई के आदेश को उलटते हुए कहा कि जबकि “EC first” अब भी सामान्य नियम है, परंतु सीमित परिस्थिति में post-facto EC को नकारा नहीं जा सकता

बहुमत ने Alembic और D. Swamy जैसे मामलों का हवाला देते हुए कहा कि जब किसी परियोजना में “considerable resources have already been committed” (काफी संसाधन पहले ही निवेश हो चुके हों), तब दंड, पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति, या कठोर शर्तों के साथ नियमितीकरण की अनुमति दी जा सकती है।

इस व्याख्या ने एक “narrow space” बनाया—यानि post-facto EC सामान्य प्रथा नहीं, बल्कि अत्यंत अपवादस्वरूप होनी चाहिए।

Post-Facto EC की संरचनात्मक सीमाएँ

EIA प्रक्रिया का आधार यह है कि निर्णय पहले हों—निर्माण शुरू होने या पूरा हो जाने के बाद अनुमति देना इस उद्देश्य को विफल कर देता है।
post-facto EC केवल तीन प्रकार की प्रतिक्रियाएँ दे सकती हैं:

  • Penalty (दंड)
  • Mitigation measures (क्षतिपूरक उपाय)
  • Closure/Demolition (समापन या विध्वंस)

इस प्रकार की अनुमति ex-ante निर्णय की जगह नहीं ले सकती
न्यायपालिका का यह कहना कि post-facto EC कुछ परिस्थिति में स्वीकार्य है, पर्यावरणीय शासन की संरचना से सहज नहीं बैठता, क्योंकि यह नियमन को remedial बना देता है, न कि preventive

असमानता और न्यायिक चिंता: पिछले बनाम भविष्य के उल्लंघनकर्ता

Vanashakti निर्णय ने 2017 की अधिसूचना और OMs को अवैध तो घोषित किया, किंतु उन post-facto ECs को वैध रहने दिया जो उसके पहले जारी हो चुके थे। बहुमत ने इसे “discriminatory” कहा—क्योंकि पुराने उल्लंघनकर्ताओं को राहत मिल जाती है जबकि भविष्य के उल्लंघनकर्ताओं को दंडित किया जाएगा।

हालांकि यह चिंता तर्कसंगत है, लेकिन किसी पुरानी गलत नीति के कारण उत्पन्न असमानता यह नहीं दर्शाती कि उसी नीति को फिर से लागू किया जाए। नियामक सुधार के दौरान ऐसी असमानताएँ अक्सर उत्पन्न होती हैं और इन्हें “regulatory housekeeping” का सामान्य हिस्सा माना जाता है।

यहाँ अधिक तार्किक समाधान यह था कि पुराने post-facto ECs की समीक्षा की जाए, न कि post-facto regularisation के रास्ते को पुनर्जीवित किया जाए।

प्रशासनिक ढाँचा और मंत्रालय की भूमिका

बहुमत के निर्णय के बावजूद पर्यावरण मंत्रालय का दायित्व है कि वह post-facto EC को कानूनी ढाँचे का अपवाद ही बनाए रखे।

क्योंकि:

  • EIA अधिसूचना व कानून मूलतः prior approval की माँग करते हैं
  • post-facto EC अनुशासनहीनता को प्रोत्साहित कर सकती है
  • परियोजनाओं को निर्माण शुरू करने के बाद “permission shopping” का अवसर मिलता है
  • यह पर्यावरणीय क्षति की संभावना बढ़ाती है

इसलिए मंत्रालय को स्पष्ट नीति बनानी होगी कि post-facto regularisation केवल उन्हीं मामलों में हो जहाँ कोई असाधारण परिस्थिति हो और जहाँ पर्यावरणीय हानि को प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जा सके।

सामाजिक-पर्यावरणीय प्रभाव

Post-facto EC का सामान्यीकरण

  • स्थानीय समुदायों को प्रभावित करता है
  • पर्यावरणीय जोखिमों को बढ़ाता है
  • जैव विविधता, जल-धाराओं, भूमि-उपयोग और विस्थापन से जुड़े मुद्दों को गंभीर बनाता है
  • सार्वजनिक भागीदारी और पर्यावरणीय लोकतंत्र को कमजोर करता है

EIA प्रक्रिया में जन-सुनवाई एक महत्वपूर्ण घटक है। post-facto अनुमतियों में यह प्रक्रिया अक्सर केवल औपचारिकता बनकर रह जाती है।

समाधान की राह: नीति-सुधार और उत्तरदायित्व

लेख के अनुसार, आगे का रास्ता यह होना चाहिए—

  • post-facto EC को कड़ाई से सीमित करना
  • पुराने irregular clearances की review और tightening
  • EIA प्रक्रिया को मजबूत, पारदर्शी और वैज्ञानिक बनाना
  • ministry द्वारा एक स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करना
  • उद्योगों के लिए “zero tolerance for non-compliance” नीति अपनाना

इससे पर्यावरणीय शासन में विश्वास बढ़ेगा और कानून का पालन मजबूत होगा।

निष्कर्ष

न्यायालय का ताज़ा निर्णय यह तो नहीं कहता कि “EC first” नियम अप्रासंगिक हो गया है; बल्कि यह स्वीकार करता है कि अपवादस्वरूप परिस्थितियों में post-facto EC की गुंजाइश हो सकती है। परंतु यह व्यवस्था भारतीय पर्यावरणीय कानून की भावना—पूर्व स्वीकृति, विश्लेषण आधारित निर्णय और निवारक दृष्टिकोण—के विपरीत है। इसलिए लेख का स्पष्ट निष्कर्ष है कि post-facto clearance को नियम नहीं, बल्कि दुर्लभ अपवाद ही रहना चाहिए

UPSC – संभावित परीक्षा-प्रश्न

UPSC GS Paper 2 – संभावित प्रश्न

  • पोस्ट-फैक्टो पर्यावरणीय स्वीकृतियाँ (Post-facto ECs) भारतीय पर्यावरणीय न्यायशास्त्र के ‘EC First’ सिद्धांत के विपरीत हैं।” इस कथन का विश्लेषण करें।
  • पर्यावरण मंत्रालय द्वारा 2017 की अधिसूचना और उसके बाद जारी किए गए कार्यालय ज्ञापनों (OMs) की वैधता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के रुख में हुए परिवर्तनों पर चर्चा करें। क्या यह परिवर्तन नियामक असंगति (Regulatory Inconsistency) को बढ़ाता है?
  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा Vanashakti निर्णय को पलटने के संदर्भ में बताइए कि न्यायपालिका की भूमिका पर्यावरणीय शासन (Environmental Governance) को कैसे प्रभावित करती है।
  • “नियामक संक्रमण (Regulatory Transition) के दौरान पुराने और नए उल्लंघनकर्ताओं के बीच असमानता स्वाभाविक है।” सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उठाए गए भेदभाव के मुद्दे के संदर्भ में इस कथन की समीक्षा करें।
  • भारत की पर्यावरणीय नीतियों में जन-सुनवाई (Public Hearing) और पूर्व स्वीकृति (Ex-ante approval) की क्या प्रासंगिकता है? Vanashakti मामले के संदर्भ में समझाइए।

UPSC GS Paper 3 – संभावित प्रश्न

  • पोस्ट-फैक्टो EC को ‘अत्यंत अपवाद’ के रूप में रखने के औचित्य पर चर्चा करें। क्या यह मॉडल निवारक (Preventive) की बजाय उपशमन (Remedial) आधारित पर्यावरणीय शासन को बढ़ावा देता है?
  • Environment (Protection) Act, 1986, EIA 1994, और EIA 2006 का मूल ढाँचा “Prior Environmental Clearance” पर आधारित है। ऐसे में post-facto EC को वैध ठहराने के संभावित पर्यावरणीय परिणामों की समीक्षा करें।
  • “परियोजना-आधारित अनियमितताओं को दंडात्मक उपायों के बजाय संस्थागत सुधार (Institutional Reforms) के माध्यम से संबोधित किया जाना चाहिए।” इस कथन का Vanashakti-विवाद के संदर्भ में मूल्यांकन करें।
  • post-facto EC को सामान्यीकृत करने से भारत में अनधिकृत निर्माण, संसाधन-उपयोग और पर्यावरणीय जोखिम कैसे प्रभावित हो सकते हैं? विश्लेषणात्मक उत्तर दें।
  • भारतीय पर्यावरणीय न्यायशास्त्र में अमान्यता (Illegality) और नियमितीकरण (Regularisation) के बीच संतुलन स्थापित करने की चुनौतियाँ क्या हैं? हालिया निर्णयों के संदर्भ में चर्चा करें।

UPSC Essay Paper – संभावित प्रश्न

  • “पर्यावरणीय शासन का सार पूर्व निर्णय में है, न कि बाद के सुधार में।” इस कथन पर 1000–1200 शब्दों में विचार करें।
  • “कानून के अपवाद जब नियम बन जाते हैं, तो शासन की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है।” पोस्ट-फैक्टो पर्यावरणीय स्वीकृतियों के संदर्भ में व्याख्या करें।
  • “विकास और पर्यावरण के संघर्ष में न्यायपालिका का संतुलनकारी हस्तक्षेप ही देश को दीर्घकालिक स्थिरता की ओर ले जाता है।” विश्लेषण कीजिए।
  • “नियमन का उद्देश्य रोकथाम है, न कि नियमितीकरण।” पर्यावरणीय नीतियों के संदर्भ में आलोचनात्मक विवेचना करें।
  • “भारतीय पर्यावरणीय शासन में ‘निवारक मॉडल’ का क्षरण हमारी विकास-प्रक्रिया के लिए दीर्घकालिक खतरा है।” चर्चा करें। 
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