सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005) एक नागरिक कानून है, जो भारत में सभी महिलाओं पर उनके धर्म और सामाजिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना लागू होता है। न्यायमूर्ति बीवी नागरथना और न्यायमूर्ति एन कोटिस्वर सिंह की पीठ ने इस कानून को संविधान में दी गई महिलाओं के अधिकारों की अधिक प्रभावी सुरक्षा के लिए लागू करने की आवश्यकता बताई।
यह फैसला कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती देने वाली एक महिला द्वारा दायर अपील पर सुनवाई करते समय दिया गया था, जिसमें महिला ने रखरखाव और मुआवजे से संबंधित आदेश को चुनौती दी थी। इस लेख में हम विस्तार से इस फैसले के प्रमुख बिंदुओं और इसके प्रभावों पर चर्चा करेंगे।
घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 क्या है?
घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005 का उद्देश्य घरेलू संबंधों में महिलाओं को होने वाली हिंसा से सुरक्षा प्रदान करना है। यह कानून विशेष रूप से घरेलू हिंसा के शिकार महिलाओं को आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक हिंसा से बचाने के लिए बनाया गया था।
यह कानून सभी धर्मों और समुदायों की महिलाओं पर समान रूप से लागू होता है। सर्वोच्च न्यायालय के इस हालिया फैसले ने इस बात पर जोर दिया कि यह कानून भारत में सभी महिलाओं पर उनके धर्म और जाति की परवाह किए बिना लागू होता है और यह उनके संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों की सुरक्षा के लिए है।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक नागरिक कानून है, जो सभी धर्मों और सामाजिक पृष्ठभूमियों की महिलाओं पर समान रूप से लागू होता है। अदालत ने कहा कि यह कानून विशेष रूप से घरेलू संबंधों में महिलाओं को होने वाली हिंसा से बचाने के लिए बनाया गया है।
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि महिलाओं की सुरक्षा के इस कानून का उद्देश्य केवल एक समुदाय या धर्म के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए है। इस संदर्भ में, यह कानून न केवल भारतीय संविधान के अनुच्छेदों के तहत महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा करता है, बल्कि समाज में उनकी स्थिति को भी मजबूती प्रदान करता है।
न्यायालय का मामला
यह फैसला एक महिला की अपील पर आधारित है जिसने कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसे रखरखाव और मुआवजा प्रदान किया गया था। महिला ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत याचिका दायर की थी, जिसे मजिस्ट्रेट द्वारा फरवरी 2015 में मंजूर किया गया था। उस समय अदालत ने महिला को मासिक रखरखाव के रूप में ₹12,000 और ₹1 लाख का मुआवजा देने का आदेश दिया था।
साल 2020 में, पति ने परिस्थितियों में बदलाव के आधार पर आदेश को निरस्त या संशोधित करने की याचिका दाखिल की थी। यह याचिका घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25(2) के तहत दायर की गई थी, जिसमें कहा गया था कि आदेश में संशोधन तभी किया जा सकता है जब आदेश के बाद परिस्थितियों में कोई बदलाव हुआ हो।
न्यायालय का निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में स्पष्ट रूप से कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25(2) के तहत किसी आदेश में संशोधन या रद्दीकरण केवल उन परिस्थितियों में ही किया जा सकता है जब आदेश के बाद की परिस्थितियों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव हुआ हो। अदालत ने कहा कि पति द्वारा दायर याचिका का उद्देश्य आदेश के मूल आदेश को रद्द करना था, जो कि कानून की भावना के विपरीत था।
अदालत ने कहा कि इस तरह के अनुरोध केवल तब किए जा सकते हैं जब परिस्थिति में कोई बदलाव आया हो, न कि केवल पहले के आदेश को रद्द करने के लिए।
निष्कर्ष
यह फैसला न केवल घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत महिलाओं की सुरक्षा को लेकर एक महत्वपूर्ण संदेश देता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि यह कानून भारत में हर महिला के लिए समान रूप से लागू होता है। धर्म, जाति, या सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना, यह कानून महिलाओं को उनके संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले के माध्यम से यह सुनिश्चित किया है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाली घरेलू हिंसा के मामलों में न्यायपूर्ण और निष्पक्ष प्रक्रिया का पालन किया जाए, ताकि महिलाएं सुरक्षित और सशक्त महसूस कर सकें।
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