भारत में खेल प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। चाहे वह क्रिकेट हो, हॉकी, एथलेटिक्स, या मुक्केबाजी, हर क्षेत्र में देश के खिलाड़ियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। लेकिन, जब बात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार बेहतर प्रदर्शन की आती है, तो भारत का रिकॉर्ड संतोषजनक नहीं रहा। इसका मुख्य कारण हमारे खेलों का संस्थागत ढांचा और उसमें व्याप्त खामियां हैं। इस लेख में हम खेलों के मौजूदा परिदृश्य और उन समस्याओं का विश्लेषण करेंगे, जो भारत को एक खेल महाशक्ति बनने से रोक रही हैं।
भारतीय खेलों का वर्तमान परिदृश्य
टोक्यो ओलंपिक 2020 में भारत ने कुल सात पदक जीते थे, जिसमें एक स्वर्ण, दो रजत, और चार कांस्य शामिल थे। यह भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। लेकिन, पेरिस ओलंपिक 2024 में पदकों की संख्या घटकर छह रह गई और स्वर्ण पदक की जगह रजत पदक ने ले ली। भले ही यह कोई बड़ी गिरावट न लगे, लेकिन यह इस ओर इशारा करता है कि भारत खेलों में स्थायी प्रगति नहीं कर पा रहा है।
खेल प्रतिभाओं का उदय
भारत में खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों से खिलाड़ी उभरकर सामने आ रहे हैं, जो वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना रहे हैं। नीरज चोपड़ा का एथलेटिक्स में विश्व स्तर पर उदय इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। नीरज ने न केवल ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीता, बल्कि उन्होंने पूरे विश्व में भारत का नाम रोशन किया। इसके अलावा, हरियाणा जैसा राज्य खेलों का एक असाधारण केंद्र बनकर उभरा है। यदि देश में हरियाणा जैसे दो-तीन और केंद्र विकसित किए जाएं, तो भारत का खेल भविष्य निश्चित रूप से उज्जवल हो सकता है।
खेलों में प्राथमिकताएं: हॉकी से क्रिकेट तक
1975 में अजितपाल सिंह की कप्तानी में भारत ने हॉकी का विश्व कप जीता था, और इसके आठ साल बाद 1983 में कपिल देव की कप्तानी में भारत ने क्रिकेट का विश्व कप जीता। लेकिन, 1983 के बाद से क्रिकेट देश का सबसे लोकप्रिय खेल बन गया और हॉकी हाशिए पर चली गई। क्रिकेट को सुविधाओं, शाबासियों, ख्याति, धन-लाभ, और भविष्य के अवसरों से भरपूर समर्थन मिला, जबकि हॉकी को धीरे-धीरे भुला दिया गया। यूरोपीय देशों ने घास पर खेली जाने वाली पारंपरिक हॉकी का खात्मा कर एस्ट्रो टर्फ और सुपर टर्फ का युग शुरू किया, जिससे भारतीय हॉकी पिछड़ गई।
संस्थागत ढांचे की खामियां
भारत में खेलों का संस्थागत ढांचा बुरी हालत में है। खेल संघों और एसोसिएशनों पर राजनेताओं का कब्जा है, जो खेलों के विकास में बाधा बन रहे हैं। महिला हॉकी टीम इस बार ओलंपिक में क्वालीफाई नहीं कर पाई, जिसका मुख्य कारण एसोसिएशन में सत्ता परिवर्तन और कोच के साथ हुआ विवाद था। मुक्केबाजी संघ ने पिछले और इस ओलंपिक के बीच चार बार कोच बदले, जिससे खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर बुरा असर पड़ा।
धनराज पिल्लै की कप्तानी वाली हॉकी टीम को ‘गोल्डन जनरेशन’ का नाम दिया जाता है, लेकिन टीम के अच्छे प्रदर्शन के बावजूद उन्हें फेडरेशन के अध्यक्ष द्वारा निलंबित कर दिया गया था। इसी प्रकार, तीरंदाजी संघ पर 44 वर्षों तक एक ही व्यक्ति का कब्जा रहा। कुश्ती संघ की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है, जहां खिलाड़ियों को धरना-प्रदर्शन करने पर मजबूर होना पड़ा।
व्यक्तिगत प्रयासों का महत्व
भारत में खिलाड़ियों की सफलता में व्यक्तिगत प्रयासों की बड़ी भूमिका रही है। अभिनव बिंद्रा, जिन्होंने ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीता था, ने अपनी सफलता का श्रेय शूटिंग महासंघ को देने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि अगर उनके पिता ने निजी संसाधनों का इस्तेमाल करके उनका प्रशिक्षण न करवाया होता, तो वह पदक नहीं जीत पाते। इसी प्रकार, नीरज चोपड़ा ने भी अपनी चोट के बावजूद व्यक्तिगत प्रयासों से विश्व स्तर पर सफलता पाई।
खेल संघों पर राजनेताओं का कब्जा
भारत में खेल संघों पर राजनेताओं और उनके परिजनों का कब्जा है। यह कब्जा खेलों के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। तीरंदाजी संघ पर 44 साल तक एक ही व्यक्ति का कब्जा रहना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कुश्ती संघ का जिक्र होते ही जंतर मंतर पर धरना-प्रदर्शन करने वाले पदक विजेता पहलवानों की याद आ जाती है। इस प्रकार की स्थितियों ने भारतीय खेलों के विकास को अवरुद्ध कर दिया है।
निष्कर्ष
भारत में खेल प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन खेलों का संस्थागत ढांचा कमजोर है। एसोसिएशन और फेडरेशनों पर नेताओं का कब्जा खेलों के विकास में बाधा बन रहा है। अगर संस्थागत सुधार किए जाएं और खेल संघों में पारदर्शिता और जवाबदेही लाई जाए, तो भारत खेलों में और भी अधिक ऊंचाईयां छू सकता है। खेल संघों को राजनीति से मुक्त कर खेलों के वास्तविक हितों के लिए काम करने की आवश्यकता है। तभी भारत खेलों में वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना सकेगा।