“विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। यह रस-दशा ही हृदय का स्थाई भाव है। रस का शाब्दिक अर्थ ‘आनन्द’ है। रस को काव्य की आत्मा कहा जाता है।
उल्लेखनीय है कि रस का सर्वप्रथम उल्लेख ‘भरत मुनि’ ने किया है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में आठ प्रकार के रसों का वर्णन किया है, जो निम्नलिखित हैं-
- श्रृंगार रस
- हास्य रस
- करुण रस
- रौद्र रस
- वीर रस
- वीभत्स रस
- भयानक रस
- अद्भुत रस
रस के अंग (Parts of Ras)
रस की परिभाषा में प्रयुक्त शब्दों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है, जिन्हें रस का अंग भी कहा जाता है-
- विभाव
- अनुभाव
- संचारी अथवा व्यभिचारी भाव
- स्थायी भाव
1. विभाव (Vibhav)
- वह पदार्थ, व्यक्ति या बाह्य विकार जो अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक (भावावेश) करे उन कारणों को विभाव कहा जाता है।
- भावों की उत्पत्ति के कारण विभाव माने जाते हैं।
विभाव के प्रकार (Types of Vibhav)
विभाव दो प्रकार के होते हैं- 1. आलंबन विभाव और 2. उद्दीपन विभाव
आलंबन विभाव (Aalamban Vibhav)
- जिसका सहारा (आलंबन) पाकर स्थायी भाव जागते हैं उसे आलंबन विभाव कहते हैं; जैसे – नायक-नायिका।
- आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं – आश्रयालंबन व विषयालंबन।
- जिसके मन में भाव जगे उसे आश्रयालंबन एवं जिसके प्रति अथवा जिसके कारण मन में भाव जगे उसे विषयालंबन कहा जाता है;
जैसे – यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे एवं सीता विषय।
उद्दीपन विभाव (Uddipan Vibhav)
- जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होता है, उसे उद्दीपन विभाव कहते हैं;
जैसे – रमणीक उद्यान, एकांत स्थल, नायक नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ, चाँदनी आदि।
2. अनुभाव (Anubhav)
- मनोगत भावों को व्यक्त करने वाले शारीरिक विकारों को अनुभाव कहा जाता है। अनुभावों की संख्या 8 बताई गई है-
(i) स्तंभ (ii) स्वेद (ii) रोमांच (iv) स्वर-भंग (v) कम्प (vi) विवर्णता (रंगहीनता) (vii) अश्रु (viii) प्रलय (संज्ञा हीनता ) ।
3. संचारी अथवा व्यभिचारी भाव (Sanchari adhva Vyabhichari Bhav)
- मन में आने-जाने वाले (संचरण करने वाले) भावों को संचारी अथवा व्यभिचारी भाव कहा जाता है।
- संचारी भावों की संख्या 33 बताई गई जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
(1) हर्ष (2) विषाद (3) त्रास (भय) (4) लज्जा (5) ग्लानि (6) चिंता (7) शंका
(8) असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता)
(9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पन्न दुःख)
(10) मोह (11) गर्व (12) उत्सुकता (13) उग्रता (14) शंका (15) दीनता
(16) जड़ता (17) आवेग (18) निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना)
(19) धृति (चित्त की चंचलता का अभाव ) (20) मति (21) विबोध (चैतन्य लाभ)
(22) वितर्क (23) श्रम (24) आलस्य (25) निद्रा (26) स्वप्न (27) स्मृति
(28) मद (29) उन्माद (30) अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना)
(31) अपस्मार (मूर्च्छा) (32) व्याधि (33) मरण
4. स्थायी भाव (Sthayi Bhav)
- स्थायी भाव का तात्पर्य होता है – प्रधान भाव।
- प्रधान भाव वह होता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है।
- काव्य अथवा नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से अंत तक होता है।
- स्थायी भावों की संख्या 9 बताई गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार होता है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतः रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें ‘नवरस’ कहा जाता है।
- मूलतः नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने 2 और भावों (वात्सल्य व भगवद् विषयक रति) को स्थायी भाव की मान्यता दी। इस तरह स्थायी भावों की संख्या 11 हो गई और इसी अनुरूप रसों की संख्या भी 11 हो गई है।
रस के सभी अवयव
- भावपक्ष
- स्थायी भाव
- संचारी भाव
- विभावपक्ष
- आलंबन
- उद्दीपन
- आन्तरिक चेष्टाएँ
- बाह्य परिस्थितियाँ
- आश्रय
- कायिक
- मानसिक
- वाचिक
- आहार्य
- अनुभाव
रस के भेद (प्रकार) (Types of Ras)
- श्रृंगार रस (Shringar Ras)
- करुण रस (Karuna Ras)
- अद्भुत रस (Adbhut Ras)
- रौद्र रस (Raudra Ras)
- वीर रस (Veer Ras)
- हास्य रस (Hasya Ras)
- भयानक रस (Bhayanak Ras)
- वीभत्स रस (Vibhats Ras)
- शान्त रस (Shant Ras)
- वात्सल्य रस (Vatsalya Ras)
- भक्ति रस (Bhakti Ras)
Read Also : |
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