विश्व आदिवासी दिवस (World Tribal Day), जिसे हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है, की स्थापना 1982 में संयुक्त राष्ट्र संघ के एकनॉमिक एंड सोशल काउंसिल द्वारा की गई थी। इस दिन को मनाने का उद्देश्य आदिवासियों की सांस्कृतिक, सामाजिक, और राजनीतिक पहचान को सम्मानित करना और उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाना है।
आदिवासियों के अधिकार की घोषणा और आदिवासी दिवस
1994 में, संयुक्त राष्ट्र संघ ने आदिवासियों के अधिकार पर एक प्रारंभिक ड्राफ्ट प्रस्तुत किया। इस ड्राफ्ट को ‘अल्पसंख्यकों के भेदभाव और संरक्षण पर रोकथाम के लिए गठित उप-आयोग’ में रखा गया। इस प्रक्रिया के बाद, 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। 13 सितंबर 2007 को, लगभग 25 वर्षों की मेहनत के बाद, ‘आदिवासियों के अधिकार के लिए घोषणा पत्र’ को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मान्यता दी।
वैश्विक आदिवासी समुदाय की स्थिति
आज, विश्व भर में लगभग 47 करोड़ आदिवासी हैं। आदिवासी समुदाय की आवाज अब पहले से अधिक मुखर हो गई है। विभिन्न देशों में आदिवासियों की पहचान और उनकी आवाज को अब व्यापक रूप से सुना जा रहा है। जलवायु परिवर्तन, संसाधनों का अत्यधिक दोहन, और सतत विकास की प्रक्रिया में आदिवासी समुदाय की भूमिका पर तेजी से ध्यान दिया जा रहा है।
राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता
आदिवासी जनसंख्या की वृद्धि दर में पिछले दशकों में वृद्धि देखी गई है। 2001 की जनगणना में भारत में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 8.43 करोड़ थी, जो 2011 में बढ़कर 10.45 करोड़ हो गई। वर्तमान में, 2021 की जनगणना में यह संख्या 12.50 करोड़ के आस-पास होने का अनुमान है। पश्चिमी भारत के आदिवासी समुदाय, विशेषकर राजस्थान, गुजरात, और महाराष्ट्र में, आदिवासी पहचान के प्रति अधिक जागरूक हुए हैं।
पारंपरिक न्याय व्यवस्था और वर्तमान चुनौतियाँ
आदिवासी समुदाय की पारंपरिक न्याय व्यवस्था जैसे उरांव समुदाय में ‘पड़हा’, मुंडाओं में ‘मानकी व्यवस्था’, और संतालों में ‘परगना’ बहुत प्रभावी रही है। हालांकि, आज यह व्यवस्था धूमिल होती जा रही है। आदिवासी समाज में एकता की कमी और सांस्कृतिक विविधता एक बड़ी चुनौती है। इन चुनौतियों के बावजूद, आदिवासी समाज में राजनीतिक चेतना में बढ़ोतरी देखी जा रही है।
आदिवासी मुद्दों पर राजनैतिक दृष्टिकोण
राजनीतिक दल अब आदिवासी मुद्दों को गंभीरता से ले रहे हैं। हालांकि, कई राजनीतिक दल आदिवासी समुदाय की महत्ता को समझने के बावजूद उनके साथ व्यवहार में सुधार की आवश्यकता है। आदिवासी समुदाय को अब सिर्फ आंकड़े नहीं माना जाना चाहिए। उन्हें उनकी वास्तविक स्थिति और अधिकारों के अनुसार महत्व देना आवश्यक है।
निष्कर्ष
आदिवासी समाज आज अधिक जागरूक और संगठित हो चुका है। उनके मुद्दों पर चर्चा और उनके अधिकारों की मान्यता में सुधार हुआ है। लेकिन अभी भी कई चुनौतियाँ बाकी हैं, जिनका समाधान करना आवश्यक है। आदिवासी समाज की वास्तविक स्थिति और उनके अधिकारों को सही मायनों में समझना और मान्यता देना, समाज और राजनीति की एक बड़ी जिम्मेदारी है।