यह लेख The Hindu में प्रकशित लेख (Stepping stone: On nuclear policy, the SHANTI Bill) से लिया गया हैं, इस लेख में भारत की उभरती परमाणु नीति, शांति विधेयक और परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में नियामक स्वतंत्रता, निजी भागीदारी, दायित्व ढांचे तथा सुरक्षा शासन से जुड़े मुद्दों का विश्लेषण करता है। यह 2047 तक परमाणु क्षमता विस्तार के लक्ष्य और उससे जुड़े जोखिमों का तथ्याधारित मूल्यांकन प्रस्तुत करता है।
शांति विधेयक और भारत की परमाणु शासन व्यवस्था: अवसर, जोखिम और सुधार
संवैधानिक एवं नीतिगत पृष्ठभूमि (Constitutional and Policy Background)
भारत में परमाणु ऊर्जा का विकास ऐतिहासिक रूप से संविधान की संघ सूची (Union List) के अंतर्गत रहा है। अनुच्छेद 246 और सातवीं अनुसूची के अनुसार परमाणु ऊर्जा और उससे संबंधित उद्योगों पर केंद्र सरकार का पूर्ण अधिकार है। परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962 ने इस क्षेत्र को राज्य के एकाधिकार में रखा, जिससे परमाणु ईंधन चक्र, रिएक्टर संचालन और अनुसंधान पूर्णतः सरकारी नियंत्रण में रहे।
इस नीति का मूल उद्देश्य परमाणु अप्रसार (Nuclear Non-Proliferation), राष्ट्रीय सुरक्षा और संवेदनशील तकनीकों की सुरक्षा रहा है। हालांकि, बदलते ऊर्जा परिदृश्य, जलवायु परिवर्तन की चुनौती और बढ़ती ऊर्जा मांग ने इस क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित किया। शांति विधेयक इसी नीतिगत पुनर्संरचना का हिस्सा है, जो परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए शासन ढांचे को अद्यतन करने का प्रयास करता है।
भारत की परमाणु ऊर्जा की वर्तमान स्थिति (Current Status of Nuclear Energy in India)
वर्ष 2024-25 में भारत की कुल बिजली उत्पादन में परमाणु ऊर्जा का योगदान मात्र लगभग 3% रहा। यह आंकड़ा दर्शाता है कि भारत की ऊर्जा मिश्रण में परमाणु ऊर्जा की भूमिका अभी सीमित है, जबकि कोयला और नवीकरणीय ऊर्जा का प्रभुत्व बना हुआ है।
सरकार ने 2047—भारत की स्वतंत्रता की शताब्दी—तक 100 गीगावाट (GW) परमाणु क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस लक्ष्य में कम से कम पाँच स्वदेशी स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर (SMRs) को 2033 तक विकसित और स्थापित करने की योजना शामिल है। यह वर्तमान क्षमता की तुलना में एक बड़ा छलांग है और इसके लिए भारी पूंजी निवेश, तकनीकी क्षमता तथा संस्थागत सुधार आवश्यक होंगे।
शांति विधेयक: अवधारणा और उद्देश्य (Concept and Objectives of the शांति Bill)
शांति विधेयक का केंद्रीय उद्देश्य यह निर्धारित करना है कि कौन कानूनी रूप से असैन्य परमाणु सुविधाओं का निर्माण और संचालन कर सकता है। यह विधेयक केंद्र सरकार को यह अधिकार देता है कि वह सरकारी संस्थाओं, संयुक्त उपक्रमों (Joint Ventures) और “किसी अन्य कंपनी” को लाइसेंस प्रदान कर सके, बशर्ते वे निर्धारित शर्तों का पालन करें।
यह संकेत करता है कि सरकार का लक्ष्य विदेशी संयंत्र मालिकों के बजाय घरेलू निजी पूंजी को परमाणु क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति देना है। इस प्रकार शांति विधेयक, परमाणु ऊर्जा क्षेत्र को निजी निवेश के लिए आंशिक रूप से खोलने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जबकि संवेदनशील गतिविधियों पर राज्य का नियंत्रण बनाए रखता है।
ऐतिहासिक भूमिका और संरचनात्मक परिवर्तन (Historical Role and Structural Shift)
अब तक भारत का परमाणु कार्यक्रम मुख्यतः भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (BARC), न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (NPCIL) और परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) द्वारा संचालित रहा है। इस केंद्रीकृत मॉडल ने तकनीकी आत्मनिर्भरता तो सुनिश्चित की, लेकिन परियोजना विलंब, उच्च लागत और सीमित विस्तार जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न कीं।
शांति विधेयक इस ऐतिहासिक ढांचे में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है, जहाँ निर्माण जोखिम (Construction Risk) को साझा करने के लिए नए ऑपरेटरों को शामिल किया जाएगा। यह बदलाव भारत को बड़े पैमाने पर परमाणु क्षमता विस्तार में सक्षम बना सकता है।
प्रशासनिक प्रयास और पूंजी जुटाव (Administrative Efforts and Capital Mobilisation)
100 GW के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को लाखों करोड़ रुपये की पूंजी की आवश्यकता होगी। सरकारी संसाधन अकेले इस बोझ को वहन नहीं कर सकते। शांति विधेयक के तहत लाइसेंस प्राप्त गैर-सरकारी संस्थाओं को अनुमति देकर सरकार पूंजी के नए स्रोत खोलना चाहती है।
यह मॉडल सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) जैसी व्यवस्थाओं को प्रोत्साहित करता है, जहाँ निजी कंपनियाँ संयंत्र निर्माण, आपूर्ति श्रृंखला और संचालन में भूमिका निभा सकती हैं। इससे लेन-देन लागत (Transaction Costs) घटने, साइट अनुमोदन और कमीशनिंग समयसीमा कम होने की संभावना है।
ईंधन चक्र और अप्रसार सुरक्षा (Fuel Cycle Control and Non-Proliferation Concerns)
शांति विधेयक का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह सबसे संवेदनशील परमाणु ईंधन चक्र—जैसे यूरेनियम संवर्धन, पुनःप्रसंस्करण और अपशिष्ट प्रबंधन—को राज्य नियंत्रण में ही रखता है।
निजी भागीदारी को मुख्यतः संयंत्र डिलीवरी, निर्माण, और आपूर्ति श्रृंखला के कुछ हिस्सों तक सीमित किया गया है। यह दृष्टिकोण भारत की परमाणु अप्रसार प्रतिबद्धताओं के अनुरूप है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के विश्वास को बनाए रखने में सहायक हो सकता है।
दायित्व प्रावधान और कानूनी जोखिम (Liability Provisions and Legal Risks)
शांति विधेयक में परमाणु दुर्घटना के लिए अधिकतम ऑपरेटर दायित्व ₹3,000 करोड़ निर्धारित किया गया है। इस सीमा से अधिक क्षति के लिए केंद्र सरकार उत्तरदायी होगी। साथ ही, यदि सार्वजनिक हित में आवश्यक हो, तो केंद्र सरकार किसी गैर-सरकारी परमाणु स्थापना की पूर्ण दायित्व भी अपने ऊपर ले सकती है।
यह व्यवस्था निवेशकों के लिए जोखिम को आसान रूप से मूल्यांकन योग्य (Easier to Price) बनाती है, लेकिन यह प्रश्न भी उठाती है कि क्या ₹3,000 करोड़ की सीमा पीड़ितों के मुआवजे और पर्यावरणीय पुनर्वास के लिए पर्याप्त है।
बीमा, वित्तीय सुरक्षा और सार्वजनिक लेखांकन (Insurance, Financial Security and Public Accountability)
विधेयक ऑपरेटरों को बीमा या अन्य वित्तीय सुरक्षा बनाए रखने का दायित्व देता है, लेकिन केंद्र सरकार की परमाणु स्थापनाओं को इससे छूट देता है। इससे स्पष्ट सार्वजनिक लेखांकन (Public Accounting) की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है।
यदि सरकारी प्रतिष्ठानों के लिए वित्तीय सुरक्षा अनिवार्य नहीं होगी, तो दुर्घटना की स्थिति में राजकोषीय बोझ सीधे करदाताओं पर पड़ सकता है, जिससे पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के प्रश्न खड़े होते हैं।
आपूर्तिकर्ता जवाबदेही और अनुबंध आधारित व्यवस्था (Supplier Accountability and Contractual Dependence)
शांति विधेयक के अनुसार, ऑपरेटर को आपूर्तिकर्ताओं के खिलाफ पुनरावर्तन (Recourse) तभी मिलेगा जब यह लिखित अनुबंध में स्पष्ट रूप से प्रदान किया गया हो, या जब दुर्घटना जानबूझकर किए गए कृत्य या चूक के कारण हुई हो।
इसका अर्थ यह है कि आपूर्तिकर्ता जवाबदेही मुख्यतः अनुबंध की शर्तों पर निर्भर करेगी, जिससे विभिन्न परियोजनाओं में जवाबदेही का स्तर अलग-अलग हो सकता है। यह असमानता दीर्घकाल में कानूनी विवादों को जन्म दे सकती है।
नियामक स्वतंत्रता और संस्थागत विश्वसनीयता (Regulatory Independence and Institutional Credibility)
भारत की परमाणु शासन प्रणाली को नियामक स्वतंत्रता की गंभीर आवश्यकता है। यद्यपि शांति विधेयक एक वैधानिक ढांचा प्रदान करता है, फिर भी नियुक्तियों में केंद्र सरकार और परमाणु ऊर्जा आयोग (AEC) की अत्यधिक भूमिका बनी रहती है।
यह व्यवस्था जन विश्वास बढ़ाने के लिए पर्याप्त नहीं है और संभावित रूप से निवेशक विश्वास को भी प्रभावित कर सकती है। अंतरराष्ट्रीय अनुभव दर्शाता है कि स्वतंत्र और पारदर्शी नियामक परमाणु सुरक्षा और सार्वजनिक स्वीकृति के लिए अनिवार्य हैं।
सामाजिक प्रभाव और जनस्वीकृति (Social Impact and Public Acceptance)
परमाणु परियोजनाओं का स्थानीय समुदायों पर गहरा प्रभाव पड़ता है—भूमि अधिग्रहण, पर्यावरणीय जोखिम और आजीविका संबंधी चिंताएँ प्रमुख हैं। यदि दायित्व और सुरक्षा ढांचे को कमजोर माना गया, तो सार्वजनिक विरोध बढ़ सकता है, जैसा कि भारत में पूर्व में कुछ परियोजनाओं के साथ देखा गया है। शांति विधेयक को सफल बनाने के लिए पारदर्शी संवाद, विश्वसनीय नियामक और उचित मुआवजा तंत्र आवश्यक होगा।
समाधान का मार्ग और सुधार की दिशा (Path to Solution and Way Forward)
आगे की राह में भारत को निम्नलिखित कदमों पर विचार करना चाहिए:
- नियामक निकाय की वास्तविक स्वतंत्रता सुनिश्चित करना
- दायित्व सीमा की पुनर्समीक्षा और पर्यावरणीय क्षति का समुचित प्रावधान
- सार्वजनिक लेखांकन और पारदर्शिता को मजबूत करना
- निजी भागीदारी के साथ-साथ सार्वजनिक हित को प्राथमिकता देना
निष्कर्ष (Conclusion)
शांति विधेयक भारत के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण सुधारात्मक कदम है, लेकिन इसकी सफलता नियामक स्वतंत्रता, पर्याप्त दायित्व प्रावधान और जनविश्वास पर निर्भर करेगी।
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📌 UPSC / State PCS के संभावित परीक्षा प्रश्न GS Paper I (Essay Paper)
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State PCS
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