खश जाति (Khash Tribe)
‘खश’ लोगों की मुखाकृति लम्बी, सीधी एवं ऊँची नासिका, मूंछ दाढ़ी की प्रचुरता, अपेक्षाकृत लम्बा आकार तथा हृष्ट-पुष्ट शरीर होता था। अपने विगत इतिहास एवं साहित्य स्रोतों के नितान्त अभाव के कारण इस जाति को शौर्यवान होने पर भी वह सार्वभौमिक ख्याति एवं स्थान न प्राप्त हो सका जो कि आर्य जाति को उसके गौरवमय साहित्य की चकाचौंध से प्राप्त हुआ। फलतः खश जाति के वंशज आर्यों से इतने प्रभावित हुए कि स्वयं को आर्यों की सन्तान कहलाने में उन्हें गर्व की अनुभूति होने लगी। वर्तमान काल में केवल हिमालय प्रदेश के निवासी ही खश जाति से सम्बन्धित माने जाते हैं जबकि प्राचीन काल में गंगाजी के मैदान तथा दक्षिण के पठार में दूर-दूर तक इस जाति का प्रसार हुआ था।
गढ़वाल-कुमाऊँ से प्राप्त कुछ प्राचीन लेखों के आधार पर कनिंघम का अनुमान है कि मौर्यवंश का अन्तिम नरेश राजपाल विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी में उत्तराखण्ड के राजा शकादित्य द्वारा मारा गया था। इससे अनुमान लगाया जाता है। कि विक्रम की दूसरी व तीसरी शताब्दी से पूर्व किसी भी समय हिमांचल प्रदेश व उत्तराखण्ड में शक जाति आ बसी थी।
शक जाति (Shak Tribe)
शक जाति भी पशुचारक एवं अश्वपालक थी। इन लोगों में भी मिश्रवासियों की भाँति मृतकों की समाधि में उनकी प्रिय वस्तुयें रखने की प्रथा थी। लद्दाख, लाहुल, चम्बा और किन्नौर में लिप्प स्पू से आगे तिब्बती सीमान्त पर स्थित भारत के अन्तिम गाँव नमग्या और भलारी तक तथा मध्य तिब्बत में भी ऐसी कई समाधियाँ पाई गयी हैं जिनमें शक समाधि की सी समानता मिलती हैं।
‘खश’ व ‘शक’ दोनों जातियों में रूप, रंग, आकार-प्रकार, रुचि व पेशे में पर्याप्त समानता पाई जाती है। ‘शकों’ के आगमन से बहुत काल पूर्व ही कश्मीर से पश्चिम नेपाल तक समग्र हिमालय ‘खश देश’ बन चुका था। आगन्तुक शक तथा अन्य जातियाँ कालान्तर में उसी ‘खश’ सागर में विलीन हो गई और ‘खश’ रीति-नीतियों को अपनाकर उससे अभिन्न हो गयीं।
विख्यात इतिहासकार श्री राहुल का मत है कि ‘शक’ मूलतः खशों के ही वंशज थे। ‘खश’ शब्द ही उलटकर ‘शख’ या ‘शक’ हो जाता है। इसी के साथ वे कहते हैं कि हिमालय का प्रथम ऐतिहासिक वंश कत्यूरी भी शकों से सम्बन्धित था। कत्यूरी नरेशों के समकालीन यशोवर्मन चन्देल के खजुराहो शिलालेख के अनुसार उसने ‘खश’ नरेश की शक्ति को तोला था।
“गौड क्रीडालता सिस्तु लतखसबल कौशलः कौशलानाम्”
यह खश नरेश निश्चय ही पांचाल के उत्तर में स्थित उत्तराखण्ड का कत्यूरी नरेश रहा होगा। कत्यूरी नरेशों के समकालीन धर्मपाल, देबपाल, नारायणपाल के अभिलेखों में ‘खश नरेश’ या ‘खश देश’ को उनके आधीन बताया गया है। कत्यूरी राज्य के ‘अशोक चल्ल’ के ‘बोध गया’ शिलालेख में उसे खश देश का नरेश बताया गया है। इसलिये यह माना जा सकता है कत्यूरी वंश का सम्बन्ध खश जाति से था। कत्यूरी वंश की सामाजिक स्थिति भी उसका सम्बन्ध खश जाति से जोड़ती है। प्राचीन काल में उत्तराखण्ड की ब्राह्मण व राजपूत जातियों में ऊँच-नीच का भेदभाव अधिक व्यापक था। उच्च जाति के राजपूत खश जाति के वंशजों को हेय समझते थे। कुमाऊँ के चन्दवंशी नरेश समकालीन कत्यूरी परिवारों की कन्याओं से विवाह तो कर लेते थे किन्तु उन्हें स्वयं से हीन समझकर अपनी पुत्रियाँ उन्हें नहीं देते थे। पुरातत्ववेत्ता कनिंघम कहते हैं कि कत्यूरी राजाओं की राजधानी लखनपुर या विराट-पतन थी जो रामगंगा के किनारे है। चीनी यात्री ह्वेनसाँग ने भी ब्रह्मपुर व लखनपुर का आँखों देखा वर्णन लिखा है कि इन स्थानों पर ब्राह्मण तथा बौद्ध दोनों ही मतावलम्बी रहते थे। कुछ लोग विद्याव्यसनी थे तथा अन्य खेती करते थे। सम्भव है कि यह कत्यूरियों की राजधानी रही होगी। लखनपुर में हवेनसाँग सातवीं शताब्दी में आये थे इसलिये अनुमान किया जाता है कि यह नगर छठी सदी से पूर्व ही बस गया होगा। कत्यूरियों की शीतकालीन राजधानी ढिकुली के निकट थी। गानेवाले भड़ कहते हैं
“आसन वाका वासन वाका, सिंहासन वाका, वाका ब्रह्म, वाका लखनपुर।”
एटकिन्सन का अनुमान है कि ‘आसन’ तथा ‘वासन’ कत्यूरी राजाओं के नाम होंगे किन्तु आसन का अर्थ बैठने की वस्तु तथा वासन वस्त्रों को भी कहते हैं। ब्रह्मपुर तथा लखनपुर तो राजधानी के नाम हैं। कनिंघम ने ब्रह्मपुर तथा लखनपुर का मानचित्र दिया है उससे स्पष्ट है कि यह राज्य कुमाऊँ में था।
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