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भक्ति रस (Bhakti Ras)

भक्ति रस (Bhakti Ras)

  • इस रस में ईश्वर की अनुरक्ति एवं अनुराग का वर्णन रहता है अर्थात् इस रस में ईश्वर के प्रति प्रेम का वर्णन होता है।

भक्ति रस के अवयव (उपकरण)

  • भक्ति रस का स्थाई भाव − देवविषयक रस ।
  • भक्ति रस का आलंबन (विभाव) − परमेश्वर, राम, श्रीकृष्ण आदि।
  • भक्ति रस का उद्दीपन (विभाव) − परमात्मा के अद्भुत कार्यकलाप, सत्संग, भक्तो का समागम आदि ।
  • भक्ति रस का अनुभाव − भगवान के नाम तथा लीला का कीर्तन, आंखो से आँसुओ का गिरना, गदगद हो जाना, कभी रोना, कभी नाचना।
  • भक्ति रस का संचारी भाव निर्वेद, मति,  हर्ष, वितर्क आदि।

भक्ति रस के उदाहरण – 

(1) अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई।

(2) एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।

(3) मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई॥
जाके सिर है मोरपखा मेरो पति सोई। 

(4) वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, कर किरपा अपणायो।
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग मैं सबै खोवायो।
खरचै न खुटै, कोई चोर न लूट, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तरि आयो।
न ‘मीरा’ के प्रभु गिरधर नागर, हरष-हरष जस गायो।

(5) राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे।
तुलसी परोसो त्यागि माँगै कूर कौन रे।।

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वात्सल्य रस (Vatsalya Ras)

वात्सल्य रस (Vatsalya Ras)

  • छोटे बालकों के बाल-सुलभ मानसिक क्रिया-कलापों के वर्णन से उत्पन्न वात्सल्य प्रेम की परिपक्वावस्था को वात्सल्य रस कहा जाता है।
  • माता का पुत्र के प्रति प्रेम, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरुओं का शिष्य के प्रति प्रेम, बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति प्रेम आदि का भाव स्नेह कहलाता है यही स्नेह का भाव परिपुष्ट होकर वात्सल्य रस कहलाता है।

वात्सल्य रस के अवयव (उपकरण)

  • वात्सल्य रस का स्थाई भाव − वत्सलता या स्नेह।
  • वात्सल्य रस का आलंबन (विभाव) − पुत्र, शिशु, एवं शिष्य।
  • वात्सल्य रस का उद्दीपन (विभाव) − बालक की चेष्टाएँ, तुतलाना, हठ करना आदि तथा उसके रूप एवं उसकी वस्तुएँ ।
  • वात्सल्य रस का अनुभाव − स्नेह से बालक को गोद मे लेना, आलिंगन करना, सिर पर हाथ फेरना, थपथपाना आदि।
  • वात्सल्य रस का संचारी भाव − हर्ष, गर्व, मोह, चिंता, आवेश, शंका आदि।

वात्सल्य रस के उदाहरण – 

(1) बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नन्द बुलवाति।
अंचरा-तर लै ढ़ाकी सूर, प्रभु कौ दूध पियावति।।

(2) किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥

(3) झूले पर उसे झूलाऊंगी दूलराकर लूंगी वदन चुम
मेरी छाती से लिपटकर वह घाटी में लेगा सहज घूम।

(4) सन्देश देवकी सों कहिए,
हौं तो धाम तिहारे सुत कि कृपा करत ही रहियो। 
तुक तौ टेव जानि तिहि है हौ तऊ, मोहि कहि आवै
प्रात उठत मेरे लाल लडैतहि माखन रोटी भावै। 

(5) चलत देखि जसुमति सुख पावै
ठुमक-ठुमक पग धरनी रेंगत
जननी देखि दिखावे।।

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शान्त रस (Shant Ras)

शान्त रस (Shant Ras)

  • अनित्य और असार तथा परमात्मा के वास्तविक रूप के ज्ञान से हृदय को शान्ति मिलती है और विषयों से वैराग्य हो जाता है। यह अभिव्यक्त होकर शांत रस में परिणत हो जाता है।
  • जहाँ न दुःख होता है, न द्वेष होता है मन सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है मनुष्य वैराग्य प्राप्त कर लेता है शान्त रस कहा जाता है।

शान्त रस के अवयव (उपकरण)

  • शान्त रस का स्थाई भाव − निर्वेद (उदासीनता)।
  • शान्त रस का आलंबन (विभाव) − परमात्मा  चिंतन एवं संसार की क्षणभंगुरता।
  • शान्त रस का उद्दीपन (विभाव) − सत्संग, तीर्थस्थलों की यात्रा, शास्त्रों का अनुशीलन आदि।
  • शान्त रस का अनुभाव − पूरे शरीर मे रोमांच, पुलक, अश्रु आदि।
  • शान्त रस का संचारी भाव − धृति, हर्ष, स्मृति, मति, विबोध, निर्वेद आदि।

शान्त रस के उदाहरण – 

(1) लम्बा मारग दूरि घर विकट पंथ बहुमार
कहौ संतो क्युँ पाइए दुर्लभ हरि दीदार

(2) मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाए छिन में,  गरब करे क्या इतना॥

(3) मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम वचन भरु हीते
सहसबाहु दस बदन आदि नृप, बचे न काल बलीते॥

(4) जब मैं था तब हरि नाहिं अब हरि है मैं नाहिं,
सब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या माहिं।

(5) भरा था मन में नव उत्साह सीख लूँ ललित कला का ज्ञान
इधर रह गंधर्वों के देश, पिता की हूँ प्यारी संतान।

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वीभत्स रस (Vibhats Ras)

वीभत्स रस (Vibhats Ras)

  • जुगुप्सा नामक स्थाई भाव जब विभवादि भावों के द्वारा परिपक्वास्था में होता तब वह वीभत्स रस कहलाता हैं।
  • इसकी स्थिति दु:खात्मक रसों में मानी जाती है।

वीभत्स रस के अवयव (उपकरण)

  • वीभत्स रस का स्थाई भाव ग्लानि या जुगुप्सा।
  • वीभत्स रस का आलंबन (विभाव) दुर्गंधमय मांस, रक्त, अस्थि आदि ।
  • वीभत्स रस का उद्दीपन (विभाव) − रक्त, मांस का सड़ना, उसमें कीड़े पड़ना, दुर्गन्ध आना, पशुओ का इन्हे नोचना खसोटना आदि।
  • वीभत्स रस का अनुभाव − नाक को टेढ़ा करना, मुह बनाना, थूकना, आंखे मीचना आदि।
  • वीभत्स रस का संचारी भाव ग्लानि, आवेग, शंका, मोह, व्याधि, चिंता, वैवर्ण्य, जढ़ता आदि।

वीभत्स रस के उदाहरण – 

(1) आँखे निकाल उड़ जाते, क्षण भर उड़ कर आ जाते।
शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते।।
भोजन में श्वान लगे, मुरदे थे भू पर लेटे।
खा माँस चाट लेते थे, चटनी सम बहते बहते बेटे।।

(2) सिर पर बैठो काग आँखि दोउ-खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत।।

(3) निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथों तौल कर चाकू मारा
छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आख़िर हत्या होगी।।

(4) बहु चील्ह नोंचि ले जात तुच, मोद मठ्यो सबको हियो
जनु ब्रह्म भोज जिजमान कोउ, आज भिखारिन कहुँ दियो

(5) ‘जा दिन मन पंछी उड़ि जैहै।
ता दिन मैं तनकै विष्ठा कृमि कै ह्वै खाक उड़ै हैं’

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भयानक रस (Bhayanak Ras)

भयानक रस (Bhayanak Ras)

  • जब किसी भयानक या अनिष्टकारी व्यक्ति या वस्तु को देखने या उससे सम्बंधित वर्णन करने या किसी अनिष्टकारी घटना का स्मरण करने से मन में जो व्याकुलता उत्पन्न होती है उसे भय कहते हैं उस भय के उत्पन्न होने से जिस रस कि उत्पत्ति होती है उसे भयानक रस कहते हैं।
  • भरतमुनि ने इसका रंग काला तथा देवता कालदेव को बताया है।

भयानक रस के अवयव (उपकरण)

  • भयानक रस का स्थाई भाव – भय ।
  • भयानक रस का आलंबन (विभाव) – बाघ, चोर, सर्प, शून्य स्थान, भयंकर वस्तु का दर्शन आदि।
  • भयानक रस का उद्दीपन (विभाव) – भयानक वस्तु का स्वर, भयंकर स्वर आदि का डरावनापन एवं भयंकर छेष्टाएँ।
  • भयानक रस का अनुभाव – कंपन, पसीना छूटना, मूह सूखना, चिंता होना, रोमांच, मूर्च्छा, पलायन, रुदन आदि ।
  • भयानक रस का संचारी भाव – दैन्य, सम्भ्रम, चिंता, सम्मोह, त्रास आदि ।

भयानक रस के उदाहरण –

(1) अखिल यौवन के रंग उभार, हड्डियों के हिलाते कंकाल।
कचो के चिकने काले, व्याल, केंचुली, काँस, सिबार।।

(2) उधर गरजती सिंधु लहरियाँ, कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रहीं फेन उगलती, फन फैलाये व्यालों सी।

(3) ‘सूवनि साजि पढ़ावतु है निज फौज लखे मरहट्ठन केरी।
औरंग आपुनि दुग्ग जमाति बिलोकत तेरिए फौज दरेरी।
साहि-तनै सिवसाहि भई भनि भूषन यों तुव धाक घनेरी।
रातहु द्योस दिलीस तकै तुव सेन कि सूरति सूरति घेरी’।

(4)  आज बचपन का कोमल गात
जरा का पीला पात !
चार दिन सुखद चाँदनी रात
और फिर अन्धकार , अज्ञात !

(5) पुनि किलकिला समुद महं आए। गा धीरज देखत डर खाए।
था किलकिल अस उठै हिलोरा जनु अकास टूटे चहुँ ओरा।।

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हास्य रस (Hasya Ras)

हास्य रस (Hasya Ras)

  • किसी पदार्थ या व्यक्ति की असाधारण आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर हृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे हास कहा जाता है।
  • विकृति, आकार, वाणी, वेश, चेष्टा आदि के वर्णन से उत्पन्न हास्य की परिपक्वावस्था को हास्य रस कहा जाता है।

हास्य रस के अवयव (उपकरण)

  • हास्य रस का स्थाई भाव – हास।
  • हास्य रस का आलंबन (विभाव) – विकृत वेशभूषा, आकार एवं चेष्टाएँ।
  • हास्य रस का उद्दीपन (विभाव) – आलम्बन की अनोखी आकृति, बातचीत, चेष्टाएँ आदि।
  • हास्य रस का अनुभाव – आश्रय की मुस्कान, नेत्रों का मिचमिचाना एवं अट्टाहस।
  • हास्य रस का संचारी भाव – हर्ष, आलस्य, निद्रा, चपलता, कम्पन, उत्सुकता आदि।

हास्य रस के उदाहरण –
(1)
‘नाना वाहन नाना वेषा। विंहसे सिव समाज निज देखा॥

कोउ मुखहीन, बिपुल मुख काहू बिन पद कर कोड बहु पदबाहू॥’

(2) “हँसि-हँसि भाजैं देखि दूलह दिगम्बर को,
पाहुनी जे आवै हिमाचल के उछाह में। ”

(3) लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष सनाना
का छति लाभु जून धनु तोरे।   रेखा राम नयन के शोरे।।

(4) परान्नं प्राप्य दुर्बुद्धे! मा प्राणेषु दयां कुरु
परान्नं दुर्लभं लोके प्राण: जन्मनि जन्मनि।।

(5) असारे खलु संसारे, सारं श्वसुर मंदिरं
हर: हिमालये शेते, हरि: शेते पयोनिधौ।।
सदा वक्र: सदा क्रूर:, सदा पूजामपेक्षते
कन्याराशिस्थितो नित्यं, जामाता दशमो ग्रह:।।

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वीर रस (Veer Ras)

वीर रस (Veer Ras)

  • उत्साह नामक स्थाई भाव जब विभवादि के संयोग से परिपक्व होकर रस रूप में परिणत होता है, तब उसे वीर रस कहा जाता है। 
  • वीर रस से ही अद्भुत रस की उत्पत्ति बतलाई गई है। वीर रस का ‘वर्ण’ ‘स्वर्ण’ अथवा ‘गौर’ तथा देवता इन्द्र कहे गये हैं।

वीर रस के अवयव (उपकरण)

  • वीर रस का स्थाई भाव − उत्साह।
  • वीर रस का आलंबन (विभाव) −अत्याचारी शत्रु।
  • वीर रस का उद्दीपन (विभाव) − शत्रु का पराक्रम, शत्रु का अहंकार, रणवाद्य, यश की इच्छा आदि।
  • वीर रस का अनुभाव  कम्प, धर्मानुकूल आचरण, पूर्ण उक्ति, प्रहार करना, रोमांच आदि।
  • वीर रस का संचारी भाव − आवेग, उग्रता, गर्व, औत्सुक्य, चपलता, धृति, मति, स्मृति, उत्सुकता आदि।

वीर रस के प्रकार

वीर रस चार प्रकार के होते हैं-

  • युद्धवीर
  • धर्मवीर
  • दानवीर
  • दयावीर

जैसे – मानव समाज में अरूण पड़ा, जल जन्तु बीच हो वरुण पड़ा। इस तरह भभकता राणा था मानों सर्पों में गरुड़ पड़ा।

युद्धवीर रस

  • युद्धवीर का आलम्बन शत्रु, उद्दीपन शत्रु के पराक्रम इत्यादि, अनुभाव गर्वसूचक उक्तियाँ, रोमांच इत्यादि तथा संचारी धृति, स्मृति, गर्व, तर्क इत्यादि होते हैं।

उदाहरण –
‘निकसत म्यान तै मयूखै प्रलै भानु कैसी, फारे तमतोम से गयन्दन के जाल को।
लागति लपटि कण्ठ बैरिन के नागिन सी, रुद्रहिं रिझावै दै दै मुण्डनि के माल को।
लाल छितिपाल छत्रसाल महाबाहु बली, कहाँ लौं बखान करौ तेरी करबालको।
प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि, कालिका-सी किलक कलेऊ देति कालको।’

दानवीर रस 

  • दानवीर के आलम्बन तीर्थ, याचक, पर्व, दानपात्र इत्यादि तथा उद्दीपन अन्य दाताओं के दान, दानपात्र द्वारा की गई प्रशंसा इत्यादि होते हैं। याचक का आदर-सत्कार, अपनी दातव्य-शक्ति की प्रशंसा इत्यादि अनुभाव और हर्ष, गर्व, मति इत्यादि संचारी हैं।

उदाहरण –
‘जो सम्पत्ति सिव रावनहिं दीन दिये दस माथ।

सो सम्पदा विभीषनहिं सकुचि दीन्ह रघुनाथ।’

दयावीर रस

  • दयावीर के आलम्बन दया के पात्र, उद्दीपन उनकी दीन, दयनीय दशा, अनुभाव दयापात्र से सान्त्वना के वाक्य कहना और व्यभिचारी धृति, हर्ष, मति इत्यादि होते हैं।

उदाहरण –
‘पापी अजामिल पार कियो जेहि नाम लियो सुत ही को नरायन।

त्यों पद्माकर लात लगे पर विप्रहु के पग चौगुने चायन।
को अस दीनदयाल भयो। दसरत्थ के लाल से सूधे सुभायन।
दौरे गयन्द उबारिबे को प्रभु बाहन छाड़ि उपाहने पायन।’

धर्मवीर रस

  • धर्मवीर में वेद शास्त्र के वचनों एवं सिद्धान्तों पर श्रद्धा तथा विश्वास आलम्बन, उनके उपदेशों और शिक्षाओं का श्रवण-मनन इत्यादि उद्दीपन, तदनुकूल आचरण अनुभाव तथा धृति, क्षमा आदि धर्म के दस लक्षण संचारी भाव होते हैं। धर्मधारण एवं धर्माचरण के उत्साह की पुष्टि इस रस में होती है।

उदाहरण –
‘रहते हुए तुम-सा सहायक प्रण हुआ पूरा नहीं।

इससे मुझे है जान पड़ता भाग्यबल ही सब कहीं।
जलकर अनल में दूसरा प्रण पालता हूँ मैं अभी।
अच्युत युधिष्ठिर आदि का अब भार है तुम पर सभी।’

वीर रस के उदाहरण – 

बुन्देलों हरबोलो के मुह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ (सुभद्राकुमारी चौहान)

सौमित्रि से घननाद का रव अल्प भी न सहा गया।
निज शत्रु को देखे विना, उनसे तनिक न रहा गया।
रघुवीर से आदेश ले युद्धार्थ वे सजने लगे।
रणवाद्य भी निर्घाष करके धूम से बजने लगे। (श्यामनारायण पांडेय)

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रौद्र रस (Raudra Ras)

रौद्र रस (Raudra Ras)

  • किसी व्यक्ति द्वारा क्रोध में किए गए अपमान आदि से उत्पन्न भाव की परिपक्वास्था को रौद्र रस कहा जाता है।
  • धार्मिक महत्व के आधार पर इसका वर्ण रक्त एवं देवता रुद्र है।

रौद्र रस के अवयव (उपकरण)

  • रौद्र रस का स्थाई भाव – क्रोध ।
  • रौद्र रस का आलंबन (विभाव) – विपक्षी, अनुचित बात कहनेवाला व्यक्ति।
  • रौद्र रस का उद्दीपन (विभाव) – विपक्षियों के कार्य तथा उक्तियाँ।
  • रौद्र रस का अनुभाव –  मुख लाल होना, दांत पीसना, आत्म-प्रशंशा, शस्त्र चलाना, भौहे चढ़ना, कम्प, प्रस्वेद, गर्जन आदि।
  • रौद्र रस का संचारी भाव – आवेग, अमर्ष, उग्रता, उद्वेग, स्मृति,  असूया, मद, मोह आदि।

रौद्र रस के उदाहारण – 

(1) श्री कृष्ण के सुन वचन, अर्जुन क्रोध से जलने लगे ।
सब शोक अपना भूल कर, करतल युगल मलने लगे ।। (मैथिलीशरण गुप्त)

(2) सुनत लखन के बचन कठोर। परसु सुधरि धरेउ कर घोरा ।
अब जनि देर दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालक बध जोगू ।। (तुलसीदास)

(3) सुनहूँ राम जेहि शिवधनु तोरा सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा न त मारे जइहें सब राजा।। (तुलसीदास)

(4) रे नृप बालक कालबस, बोलत तोहि न संभार।
धनुही सम त्रिपुरारी धनु, विदित सकल संसार।। (तुलसीदास)

(5) जो राउर अनुशासन पाऊँ। कन्दुक इव ब्रह्माण्ड उठाऊँ॥
काँचे घट जिमि डारिऊँ फोरी। सकौं मेरु मूले इव तोरी॥ (तुलसीदास)

(6) शत घूर्णावर्त, तरंग-भंग, उठते पहाड़,
जल- राशि, राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बंध प्रतिसंध धरा, हो स्फीत-वक्ष,
दिग्विजय- अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष।। (सूर्यकांत त्रिपाठी निराला)

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अद्भुत रस (Adbhut Ras)

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  • किसी आश्चर्यजनक वर्णन से उत्पन्न विस्मय भाव की परिपक्वावस्था को अद्भुत रस कहा जाता है।
  • भरतमुनि ने वीर रस से अद्भुत की उत्पत्ति बताई है तथा इसका वर्ण पीला एवं देवता ब्रह्मा कहा है।

अद्भुत रस के अवयव (उपकरण)

  • अद्भुत रस का स्थाई भाव – आश्चर्य। 
  • अद्भुत रस का आलंबन (विभाव) – आश्चर्य उत्पन्न करने वाला पदार्थ या व्यक्ति। 
  • अद्भुत रस का उद्दीपन (विभाव) – अलौकिक वस्तुओ का दर्शन, श्रवण, कीर्तन आदि। 
  • अद्भुत रस का अनुभाव – दाँतो तले उंगली दवाना, आंखे फाड़कर देखना, रोमांच, आँसू आना, काँपना, गदगद होना आदि। 
  • अद्भुत रस का संचारी भाव – उत्सुकता, आवेग, भ्रान्ति, धृति, हर्ष, मोह आदि ।

अद्भुत रस के उदाहरण –  

(1) इहाँ उहाँ दुह बालक देखा। मति भ्रम मोरि कि आन बिसेखा।
देखि राम जननी अकलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥
देखरावा मातहि निज, अद्भुत रूप अखण्ड।
‘रोम-रोम प्रति लागे, कोटि-कोटि ब्रह्मण्ड। (तुलसीदास)

(2) ‘ब्रज बछरा निज धाम करि फिरि ब्रज लखि फिरि धाम।
फिरि इत र्लाख फिर उत लखे ठगि बिरंचि तिहि ठाम’।। (पोद्दार : ‘रसमंजरी’)

(3) बिनू पद चलै सुने बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै विधि नाना।। (तुलसीदास)

(4) आयु सिता-सित रूप चितैचित,
स्याँम शरीर रगे रँग रातें।
‘केसव’ कॉनन ही न सुनें,
सु कै रस की रसना बिन बातें।।  (तुलसीदास)

(5) देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया,
क्षणभर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया। (सूरदास )

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करुण रस (Karuna Ras)

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  • किसी प्रिय व्यक्ति के चिर विरह या मरण से उत्पन्न होने वाले शोक आदि के भाव की परिपक्वास्था को करुण रस कहा जाता है

करुण रस के अवयव (उपकरण)

  • करुण रस का स्थाई भाव – शोक। 
  • करुण रस का आलंबन (विभाव) – विनष्ट व्यक्ति अथवा वस्तु। 
  • करुण रस का उद्दीपन (विभाव) – आलम्बन का दाहकर्म, इष्ट के गुण तथा उससे सम्बंधित वस्तुए एवं इष्ट के चित्र का वर्णन। 
  • करुण रस का अनुभाव – भूमि पर गिरना, नि:श्वास, छाती पीटना, रुदन, प्रलाप, मूर्च्छा, दैवनिंदा, कम्प आदि। 
  • करुण रस का संचारी भाव – निर्वेद, मोह, अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति, श्रम, विषाद, जड़ता, दैन्य, उन्माद आदि ।

करुण रस के उदाहारण  –
(1) ‘करुणे, क्यों रोती है? उत्तर में और अधिक तू रोई।
मेरी विभूति है जो, उसको भवभूति क्यों कहे कोई?’।
(मैथिलीशरण गुप्त)

(2) ‘मुख मुखाहि लोचन स्रवहि सोक न हृदय समाइ।
मनहूँ करुन रस कटकई उत्तरी अवध बजाइ’।
(तुलसीदास)

(3) हाय रुक गया यहीं संसार
बना सिंदूर अनल अंगार
वातहत लतिका वह सुकुमार
पड़ी है छिन्नाधार!
(सुमित्रानंदन पंत)

(4) शोक विकल सब रोवहिं रानी।
रूप सीलु सबु देखु बखानी।।
करहिं विलाप अनेक प्रकारा।
परिहिं भूमि तल बारहिं बारा ।। (तुलसीदास)

(5) मेधा का यह स्फीत भाव औ’ अहंकार सब तभी जल गया,
पंचतत्त्व का चोला बदला, पंचतत्त्व में पुन: मिल गया,
मुझे याद आते हैं वे दिन, जब तुम ने की थी परिचर्या,
शैशव में, उस रुग्ण दशा में तेरी वह चिंतातुर चर्या !
(प्रभाकर माचवे)

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