कुणिन्द राजवंश का इतिहास (History of Kunind Dynasty)
उत्तराखण्ड के विभिन्न भागों से कुणिन्दों (Kunind Dynasty) द्वारा जारी सिक्के मिलते हैं । इस दृष्टि से अल्मोड़ा जनपद का विशेष स्थान है, यहाँ से न केवल कुणिन्दों के अन्य भांति के सिक्के प्रकाश में आये हैं, वरन् विद्वानों ने कुणिन्द–सिक्कों के एक विशेष प्रकार को “अल्मोड़ा भांति के सिक्के” नाम से भी अभिहित किया है । कुणिन्दों का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से मिलता है, लगभग 6वीं सदी ईस्वी पूर्व के प्रारंभ में रहने वाले पाणिनी ने भी कुणिन्दों का वर्णन किया है, अन्य साहित्यिक साक्ष्यों-महाभारत ; टॉलेमी , महामयूरी ; वायु-पुराण ; ब्रह्माण्ड पुराण ; तथा वारामिहिर में भी कुणिन्दों का उल्लेख मिलता है । उपरोक्त तथ्यों से पता चलता है कि मध्य हिमालय के इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही कुणिन्द विद्यमान थे ।
उन्होंने कब एक राज्य का रूप धारण किया, इस सन्दर्भ में रैप्सन का मानना है कि, मोर्यों और शुंगों के पतन से उत्पन्न परिस्थितियों में उत्तर-पश्चिम भारत में अनेक स्वतंत्र देशी एवं विदेशी सत्ताओं की स्थापना हुई थी, मौर्यों से पूर्व सिकन्दर के काल में भी यह क्षेत्र- आधुनिक पंजाब, हरियाणा, हिमांचल, दिल्ली, राजस्थान के भाग तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश प्रमुखतः सैन्य जातियों या आयुधजीवी संघ द्वारा शासित थे । इन जातीय राज्यों में- कुलूट, औदुम्बर, कुणिन्द, यौधेय, राजन्य, अर्जुनायन तथा प्रकट गणराज्यों का उल्लेख मिलता है । उपरोक्त गणराज्यों में से- कुलूट, औदुम्बर तथा कुणिन्द गणराज्यों को कौटिल्य ने ‘राज्य शब्दिन संघ’ या राजा की उपाधि को स्वीकार करने वाले गणराज्य माना है ।
मुद्राशास्त्रीय प्रमाणों से भी हिमालय के इस भू-भाग में कुणिन्दों की उपस्थिति के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं । कनिंघम के समय तक जो मुद्राएँ मिली थीं, उनके आधार पर कनिंघम ने यह निष्कर्ष निकाला था कि कुणिन्दों का वर्चस्व यमुना और सतलज नदियों के मध्य शिवालिक पहाड़ियों की एक संकीर्ण पट्टी तक सीमित था,लेकिन कुणिन्दों से सम्बन्धित बाद की खोजों ने, न केवल कुणिन्दों के इतिहास में नवीन प्रकाश डाला है, वरन् उत्तराखण्ड को उनके प्रमुख केन्द्र के रूप में भी उद्घाटित किया है ।
प्रतीत होता है कि, पाणिनी के काल से ही कुणिन्द पंजाब, हरियाणा और उत्तराखण्ड के पहाड़ी भू–भागों में छोटे-छोटे समूहों के रूप में विद्यमान थे । कालान्तर में उन्होंने शक्ति अर्जित की और अमोघभूति के नेतृत्व में लगभग द्वितीय सदी ईस्वी पूर्व के अन्त तक एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना कर ली । अमोघभूति एक शासक का नाम था अथवा यह झुणिन्दों की एक पदवीं थी इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । जायसवाल ने ‘अमोघभूति’ को व्यक्ति विशेष न मानकर एक राजकीय पदवी माना है और इसका अर्थ- ‘कभी न समाप्त होने वाला वैभव’ – बतलाया है लेकिन अधिकांश विद्वान अमोघभूमि को एक शासक का नाम मानते हैं और यह मत प्रतिपादित करते हैं कि इण्डो-ग्रीक शासकों के पतन के पश्चात् अमोघभूति ने शक्ति अर्जित की और अपने सिक्के जारी किये ।