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Kol Rebellion

कोल विद्रोह (Kol Rebellion)

यह व्यापक विद्रोह छोटानागपुर, पलामू, सिंहभूम और मानभूम की कई जनजातियों का संयुक्त विद्रोह था, जो अंग्रेजों के बढ़ते हस्तक्षेपों के शोषण के खिलाफ उपजा था।

कोल विद्रोह का कारण

अंग्रेज समर्थित जमींदार इन वर्गों, विशेषकर कृषकों, का ऐसा खून चूस रहे थे कि इन्हें भोजन के लिए भी तरसना पड़ रहा था। कितने ही अवांछित करों और जबरन वसूली ने इन लोगों को खून के आँसू रुला दिए थे। कृषि और शिकार पर आश्रित इन लोगों से मनमाना कर वसूलने के लिए इन पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते तथा कर चुकाने की असमर्थता में इनकी जमीन ‘दीकुओं’ (बाहरी लोग) को दे दी जाती थी। जमींदार इनसे बेगार कराते थे। वे स्वयं पालकी में चलते और कहारों का कार्य आदिवासी लोग करते थे। इनके पशुओं की देखभाल भी आदिवासी ही करते थे।

कैथबर्ट ने कहा है, “इन जमींदारों ने किसानों पर इतने अत्याचार किए कि गाँव-के-गाँव उजड़ गए। इस सामंती व्यवस्था में जमींदार शायद ही किसानों के हित की कोई बात सोचता हो और प्रशासनिक वर्ग अलग से इनका खून चूस रहा था। फलत: आबादी का हस हो रहा था और लोग बस किसी प्रकार अपना जीवन-यापन कर रहे थे।”

इसी संबंध में डब्ल्यू.डब्ल्यू. ब्लेट ने कहा है, “राजा की शासन व्यवस्था घोर निराशावादी और इन दबे वर्गों के प्रति शोचनीय थी। किसानों की जमीन इनसे जबरन छीनी जा रही थी और बाहरी लोगों को दी जा रही थी। इनकी शिकायत पर किसी शासक या प्रशासक का रवैया सहानुभूतिपूर्ण भी नहीं था। इस लूट, दंड और उत्पीड़न ने कितनी ही जाने ले ली थीं।”

इनके अतिरिक्त भी कुछ ऐसे नैतिक कारण थे, जिन्होंने इन आदिवासी लोगों के मन में विद्रोह की भावना पैदा कर दी थी। अतः इन लोगों में असंतोष व्याप्त हो गया था और यह कभी भी ज्वालामुखी की तरह फट सकता था। मुंडा जनजाति ने बंदगाँव में आदिवासियों की एक सभा बुलाई। इस सभा में लगभग सात कोल आदिवासी आए और वहीं से यह भीषण विद्रोह आरंभ हुआ। इसकी चपेट में दीकू, अंग्रेज और उनके समर्थित जमींदार आए। विद्रोहियों ने गाँव-के-गाँव जला दिए। इसका परिणाम यह हुआ कि इस विद्रोह और इसके तात्कालिक कारण ने विद्रोह की आग को सिंहभूम, टोरी, हजारीबाग और मानभूम तक के क्षेत्रों में प्रज्वलित कर दिया। उनके इस विद्रोह में लगभग 1,000 लोग मारे गए।

इस व्यापक विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार ने रामगढ़ में सेना एकत्रित की और बाहर से भी सेना बुलाई गई। विद्रोहियों का नेतृत्व बुधू भगत, सिंग राय और सूर्य मुंडा कर रहे थे। अंग्रेजी सेना की कमान कैप्टन विल्किंसन के हाथों में थी। जब अंग्रेजी सेना का विद्रोहियों से सामना हुआ तो बहुत जन-धन की हानि हुई। बुधू भगत अपने डेढ़ सौ सहयोगियों के साथ मारा गया। यह विद्रोह लगभग पाँच साल तक चला, जिसमें मरनेवाले विद्रोहियों की संख्या अधिक रही, तब कंपनी को भी इसकी चिंता हुई।

कंपनी ने विद्रोह के कारणों की जाँच-पड़ताल की और झारखंड की शासन व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किए गए। बेहतर न्याय-व्यवस्था और पारदर्शी प्रणाली के गठन की आवश्यकता महसूस हुई। उस समय तक झारखंड में अंग्रेजों ने बंगाल के ही सामान्य नियम लागू कर रखे थे, लेकिन अब परिस्थिति की जटिलता को देखकर कंपनी ने ‘रेगुलेशन-XIII’ नाम से एक नया कानून बनाया, जिसके अंतर्गत रामगढ़ जिले को विभाजित किया गया। एक और अलग नए प्रशासनिक क्षेत्र का गठन किया गया, जिसमें जंगल महाल और ट्रिब्यूटरी महाल के साथ एक नान-रेगुलेशन प्रांत बनाया गया। इस प्रशासनिक क्षेत्र को जनरल के प्रथम एजेंट के रूप में गवर्नर के अधीन किया गया। इस व्यवस्था में विल्किंसन को पहला गवर्नर बनाया गया, जो पहले सेना में कैप्टन था और इस विद्रोह के दमन के लिए भेजा गया था। कोल विद्रोह’ झारखंड के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि इसके अनेक दूरगामी परिणाम हुए। इसी विद्रोह ने प्रशासनिक व्यवस्था के सुधार की नींव रखी।

 

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