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Katyuri Dynasty

उत्तराखंड मे कत्यूरी राजवंश का इतिहास

कत्यूरी वंश की स्थापना एवं इतिहास

डा. ताराचन्द्र त्रिपाठी के अनुसार तालेश्वर तथा पाण्डुकेश्वर के दान पत्रों से कार्तिकेयपुर राज्य की अनेक प्रशासनिक इकाइयों और उनमें स्थित स्थानों का उल्लेख मिलता है। तालेश्वर दान पत्रों में कार्तिकेयपुर के अन्तर्गत वर्णित सभी स्थान कत्यूर घाटी में विद्यमान हैं। अतः यह निश्चित है कि कार्तिकेयपुर नरेशों के युग से बहुत पहले कार्तिकेयपुर कत्यूर घाटी में विद्यमान था। पर जब पाण्डुकेश्वर दानपात्रों में वर्णित कार्तिकेयपुर और उसके अन्तर्गत सांकेतिक स्थान-नामों को पहचानने का प्रयास किया जाता है तो लगभग सभी स्थान-नाम वर्तमान जोशीमठ तहसील में ही मिल जाते हैं। पाण्डुकेश्वर के प्रथम दो दानपात्र और कंडारा से प्राप्त एक दान पत्र कार्तिकेयपुर नरेश ललितश्वर देव का है, एक दानपत्र पद्मटदेव का है, एक दानपत्र देशटदेव का और एक सुभिक्षराज देव का है। जोशीमठ और कत्यूर घाटी, दोनों ही पुरावशेषों की दृष्टि से सम्पन्न क्षेत्र हैं। कदाचित् पहले राजधानी जोशीमठ और कालान्तर में राज्य का विस्तार हो जाने के कारण जोशीमठ को राजधानी के लिए अनुपयुक्त पाते हुए कत्यूर घाटी की ओर संक्रमित हुए होंगे और कत्यूरी वंश के नाम से जाने गए होंगे।

जनश्रुति के अनुसार कत्यूरी वंश का संस्थापक वासुदेव था किन्तु उसका नाम किसी भी अभिलेख या वंशावलि में नहीं मिलता। काबुल के कटोरमान वंश का अन्तिम नरेश भी वासुदेव था। एटकिन्सन दोनों को एक मानने के पक्ष में है किन्तु बागेश्वर में प्राप्त त्रिभुवनराज के शिलालेख से विदित होता है कि प्रथम कत्यूरी नरेश का नाम बसन्तनदेव था, न कि बासुदेव। कत्यूरी नरेश ‘ललितशूर’ की राज्य अवधि को ध्यान में रखते हुये यही अनुमानित है कि ‘बसन्तनदेव’ का राज्यकाल सन् 633 ई0 से 645 ई0 तक किसी समय भी आरम्भ होता है। कार्तिकेयपुर के नरेशों के अब तक आठ अभिलेख मिले हैं। सभी अभिलेखों की लिपि कुटिला है जो नवीं व दसवीं सदी के मगध के पालवंशी नरेशों के अभिलेखों में तथा कुछ तिब्बत से प्राप्त ताम्रपत्रों में मिलती है।

कत्यूरी अभिलेखों से विदित होता है कि एक ही राजवंश के तीन परिवारों ने कार्तिकेयपुर या उसके आसपास अपनी राजधानी स्थापित कर एक-दूसरे के पश्चात् शासन किया था। इन राजपरिवारों के संस्थापक बसन्तनदेव, निम्बर देव और सलोणादित्य थे। अभिलेखों की शब्दावली, अधिकारियों के नाम की सूची तथा अन्य प्रमाणों से यह ज्ञात होता है कि सलोणादित्य के परिवार ने निम्बरदेव के परिवार के पश्चात् राजसिंहासन प्राप्त किया था।

ललितशूर के राज्यकाल के 21वें व 22वें वर्ष के दो ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं। जिनसे यह प्रमाणित होता है कि ललितशूर का राज्यारम्भ सन् 832 तथा मृत्यु सन् 854 ई0 के बाद हुई। यही नहीं उन ताम्रपत्रों से यह भी सिद्ध होता है कि ललितशूर कत्यूरी वंश का सर्वाधिक प्रतापी एवं शौर्यवान नरेश था।

अभिलेखों में कत्यूरी नरेशों की सतयुगी धर्म का अवतार, प्राचीन मर्यादाओं के रक्षक तथा अत्यधिक चरित्रवान बताया गया है। वे आदर्श जीवन बिताते थे एवं विद्यानुरागी थे। उनकी सभा में सुदूर स्थानों से विद्वान ब्राह्मण पधारते थे जिन्हें बहुमूल्य उपहार, स्वर्ण आदि प्रदान कर सम्मानित किया जाता था। इसीलिये राजा को ईश्वर का अंश माना जाता था जिसके दर्शनमात्र से पाप मुक्त हो जाते थे।

कत्यूरियों की राजधानी वर्तमान जोशीमठ में थी। जोशीमठ से आगे भारत-तिब्बत सीमा तक बहुत कम गाँव हैं। यदि यहाँ पर तिब्बत का अधिकार होता तो कत्यूरी नरेशों की राज्य सीमा कम से कम भारत व तिब्बत के मध्यवर्ती गिरिद्वारों वाली श्रेणी तक होती। प्राचीन जनश्रुति के अनुसार जोशीमठ को राजधानी बनाकर शासन करने वाले कत्यूरी नरेशों का राज्य पश्चिम में सतलुज नदी के तट से लेकर दक्षिण के मैदान तक फैला था। वर्तमान सम्पूर्ण रूहेलखण्ड उनके शासन के अन्तर्गत आता था।

चन्द्रगुप्त मौर्य की ही भाँति कत्यूरी नरेशों के निम्नांकित विभिन्न पदाधिकारी होते थे :-

  • प्रान्तपाल – सीमाओं का जागरूक प्रहरी सीमाओं की सुरक्षा का भार लिये होता था।
  • घट्टपाल- विभिन्न गिरिद्वारों के रक्षक होते थे।
  • वर्मपाल- सीमावर्ती मार्गों से आने व जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर कड़ी निगाह रखता था।
  • नरपति- नदी घाटों पर आवागमन की सुविधा, कर की वसूली तथा संदिग्ध व्यक्तियों की गतिविधियों की छानबीन करता था।
  • सेना- कत्यूरी वीरवाहिनी अपने शौर्य व सफलताओं के लिये जग-प्रसिद्ध है। इसी के बल पर कत्यूरी नरेशों ने उत्तर व दक्षिण के आक्रान्ताओं को पराजित कर उत्तराखण्ड पर कई वर्षों तक शासन किया। सेना चार भागों में विभाजित थीपदातिक, अश्वारोही, गजारोही एवं ऊष्ट्रारोही। पदातिक (पैदल सेना) ‘गौल्मिक’ कहलाते थे। अश्वारोही सेना का सर्वोच्च नायक ‘अश्वबलाधिकृत’ गजारोही का ‘हस्तिबलाधिकृत तथा ऊष्ट्रारोही का ‘ऊष्ट्रबलाधिकृत’ कहलाते थे। तीनों आरोही सेनाओं का सर्वोच्च पदाधिकारी ‘हस्त्यासवोष्ट्रबलाधिकृत कहलाता था। सैन्य संचालन नरेश द्वारा होता था।
  • पुलिस व्यवस्था- प्रजा के जीवन एवं सम्पत्ति की सुरक्षा हेतु तथा राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये एक पुलिस विभाग था। इस विभाग के अनेक अधिकारियों के नाम कत्यूरी ताम्रलेखों में सुरक्षित हैं।

आय के साधन

  • राज्य की आय के प्रमुख साधन कृषि, खनिज सम्पदा एवं वन थे।
  • ‘क्षेत्रपाल’ राज्य में कृषि की उन्नति का ध्यान रखता था।
  • ‘प्रभातार’ का कार्य भूमि की विधिपूर्वक नाप करता था।
  • ‘उपचारिक’ या ‘पट्टकोषचरिक’ नामक अधिकारी भूमि के अभिलेख रखता था।
  • भूमि की नाप उसमें बोए जाने वाले बीज के अनुसार होती थी।
  • कत्यूरी शासन में द्रोणाबापम के अतिरिक्त नालीबापम या एक नाली (349 पाथा 342 सेर) बीजवाली भूमि का भी उल्लेख है।
  • अब भी उत्तराखण्ड में द्रोण (दूण) और नाली (पाथा) का प्रयोग उसी प्रकार चला आता है।
  • खण्डपति व ‘खण्डरक्षारथानाधिपति’ नामक अधिकारी खनिज तथा वनों की रक्षा तथा सम्बन्धित उद्योगों की व्यवस्था करता था।
  • ऊन तथा ऊनी वस्त्र, पालतू पशु-पक्षी, मधु तथा वन-औषधियों के विक्रय से जनता तथा राज्य को प्रचुर लाभ होता था।

कर व्यवस्था

  • कत्यूरी अभिलेखों में विभिन्न करों के नाम मिलते हैं।
  • ‘भोगपति’ व ‘शौल्किक’ नामक अधिकारियों का उल्लेख मिलता है, जिनका कार्य योग और शुल्क आदि करों को वसूल करना था।
  • कृषि तथा पशुओं से प्राप्त पदार्थों का निश्चित अंश कर के रूप में लिया जाता था।
  • भट और चार-प्रचार नामक अधिकारी प्रजा से बिष्टि या बेगार लेते थे। जो भूमि किसी देव मन्दिर को अग्रहार के रूप में दी जाती थी उस पर बसे लोगों से भट और चाट बिष्टि नहीं ले सकते थे और न उनसे अन्य किसी प्रकार का योग या शुल्क लिया जाता था।
  • वे इन करों को राजा को न देकर मन्दिर को देते थे।

राजस्व संबंधी पैमाने 

ताम्रपत्रों में- द्रोण, कुल्य, खारि- जैसे भूमि माप के विभिन्न पदों का उल्लेख आया है। इससे पता चलता है कि भूमि-माप की परंपरा विद्यमान थी। इन इकाईयों का विश्लेषण अग्रांकित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है –

द्रोणवाप 

संस्कृत में ‘वप्’ का अर्थ बीज बोने से है। प्राचीन अभिलेखों में ‘वाप’ प्रत्यय लगाकर बीज की मात्रा प्रकट करने की परंपरा मिलती है। एक द्रोण प्रायः 32 सेर का माना जाता है। अन्य मानकों से तुलना करते हुये एक द्रोण वाप 32 सेर या 16 नाली का बताया गया है। द्रोण आज भी ‘दुन’ के रूप में प्रचलित है। अतः एक द्रोण वाप को हम उतने क्षेत्र से समीकृत करेंगे जितने में 32 सेर बीज छिटक कर बोया जा सके। ब्रिटिश काल में एक नाली को मानकीकृत कर 240 वर्ग गज निश्चित किया गया था जो आज भी में व्यवहृत है। इस आधार पर एक द्रोण माप 3840 वर्ग गज क्षेत्र का द्योतक है।

कुल्यवाप

‘कुल्यवाप’ पद भी प्राचीन अभिलेखों में मिलता है। गुप्तकाल में ‘कुल्य’ पद बहुतायत से उल्लिखित हुआ है। वर्तमान में इस पद का स्पष्ट अर्थ लगाना कठिन है, इसका अर्थ ‘कुलि’ बतलाया जाता है और एक कुलि आठ द्रोण के बराबर माना जाता है। इस आधार पर एक कुलि वाप उतना क्षेत्र माना जाना चाहिए जिसमें 256 सेर बीज छिटक कर बोया जा सके । ब्रिटिश मानकों के आधार पर यह 30720 वर्ग गज क्षेत्र का द्योतक है ।

खारिवाप

पाणिनी ने खारिवाप को द्रोणवाप से बड़ा बतलाया है। प्रचलित एक खारि 20 द्रोण की मानी जाती है। अतः एक खारिवाप ऐसे भू-क्षेत्र को बतलायेगी जिसमें 20 द्रोण या 640 सेर बीज छिटक कर बोया जा सके। ब्रिटिश मानकों के आधार पर यह क्षेत्र 76800 वर्ग गज क्षेत्र का द्योतक है।

जोशीमठ से कत्युर आने की कहानी

डॉ. शिवप्रसाद डबराल का अनुमान है कि कत्यूरी राजाओं का मूल निवास स्थान जोशीमठ (ज्योतिर्धाम) था। वहाँ से वे कत्यूर आए। उनके कत्यूर आगमन की कहानियाँ इस प्रकार हैं –

राजा वासुदेव के कोई गोत्रधारी मृगया के लिये गए थे। घर में विष्णु भगवान नृसिंह के रूप में आये। रानी ने अपूर्व आदर-सत्कार कर भोजनादि करवाया तत्पश्चात् नृसिंह राजा के पलंग पर विश्राम हेतु आसीन हुए। राजा लौटकर आये और अन्तःपुर में अपने पलंग पर किसी अन्य व्यक्ति को देख क्रोधोन्मत हो गये और उन्होंने तलवार का भरपूर वार नृसिंह पर किया, किन्तु आश्चर्य! रक्त के स्थान पर उनके हाथ से दूध निकलने लगा। इस घटना से किंकर्तव्यविमूढ़ हो वे रानी के पास गये। रानी ने बताया कि वे कोई देवता हैं। जिन्होंने बड़ी पवित्रता के साथ भोजन किया एवं विश्रामार्थ पलंग पर सो गये। तब राजा को अत्यधिक पश्चाताप हुआ। उन्होने हाथ जोड़कर नृसिंह देवता को प्रणाम किया और अपने दोष के लिये दंड देने की याचना की। देवता ने कहा- ‘मैं नृसिंह हूँ। तेरे शासन से प्रसन्न था। इसलिए तेरे महल में आया। तेरे अपराध का यही दंड है कि तू जोशीमठ से कत्यूर चला जा, वहीं तेरी राजधानी होगी। याद रख यह घाव तेरे मन्दिर की मूर्ति में भी दिखाई देगा। जब मूर्ति टूट जायेगी तभी तेरे वंश का भी नाश हो जायेगा।” ऐसा कहकर नृसिंह अन्र्तध्यान हो गए।

दूसरा दृष्टांत उस समय का है जब स्वामी शंकराचार्य कत्यूरी रानी के पास आये उस समय राजा विष्णु प्रयाग में स्नान करने गये। यह घटना भी उपर्युक्त से ही मिलती-जुलती है।

इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि यदि कत्यूरी राजा गढ़वाल से कुमाऊँ में आये तो अवश्यमेव कोई धार्मिक कलह उपस्थित हुआ होगा जिस कारण राजा वासुदेव व उनके कुटुम्बी जोशीमठ से कार्तिकेयपुर आने को बाध्य हुये। डा0 पातीराम की कल्पना है कि जब संवत 756 (799 ई0) में कनकपाल मालवा में आया तो उन दिनों सोनपाल एवं कत्यूरी नरेश गढ़वाल में छोटी-छोटी ठकुराइयों के स्वामी थे। सोनपाल का दामाद कनकपाल गढ़वाल के मध्यवर्ती भाग का शासक बन बैठा किन्तु कनकपाल, जिसे गढ़वाल में परमार वंश की स्थापना का श्रेय प्राप्त है, वह सन् 688 ई0 में ही गद्दी पर बैठ चुका था और इसी वर्ष गढ़वाल के कुछ अंश पर तत्पश्चात् गोरखा आक्रमण तक सम्पूर्ण गढ़वाल पर परमारों की सत्ता सुदृढ़ हो चुकी थी। इसी प्रकार कुमाऊँ में चन्द वंश की जड़ें धीरे-धीरे गहरी और व्यापक होती गयीं।

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