कर्पूरी ठाकुर की जीवनी
(Biography of Karpoori Thakur)
श्री कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) |
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जन्म | 24 जनवरी, 1924 |
जन्म स्थान | पितौंझिया (कर्पूरी ग्राम), समस्तीपुर, बिहार |
मृत्यु | 17 फरवरी, 1988 |
माता का नाम | श्रीमती रामदुलारी |
पिता का नाम | श्री गोकुल ठाकुर |
अन्य नाम | जननायक |
प्रारम्भिक जीवन
कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी, 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिला के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में गोकुल ठाकुर और रामदुलारी के घर पर हुआ था। कर्पूरी ठाकुर की प्रारम्भिक शिक्षा गांव के ही पाठशाला में हुई। कर्पूरी ठाकुर के अंदर बचपन से ही नेतृत्व क्षमता ने जन्म लेना शुरू कर दिया था, छात्र जीवन के दौरान युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल कर चुके कर्पूरी ठाकुर ने अंग्रेजो के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इसके बाद उन्होंने 1940 में मैट्रिक द्वितीय श्रेणी से पास किया और दरभंगा के चंद्रधारी मिथिला महाविद्यालय में आई. ए. में नामांकन करा लिया। 1942 में आइ. ए. द्वितीय श्रेणी से पास किया और पुनः उसी कॉलेज से B. A. में नामांकन करा लिया जब भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था, तब उन्होंने 1942 में अपनी पढ़ाई छोड़ दी और उस आंदोलन में हिस्सा लिया और जयप्रकाश नारायण के द्वारा गठित आजाद दस्ता के सक्रिय सदस्य बने। तंग आर्थिक स्थिति से निजात पाने के लिए उन्होंने गांव के ही मध्य विद्यालय में ₹30 प्रति माह की दर प्रधानाध्यापक का पद स्वीकार किया उन्हें दिन में स्कूल के अध्यापक और रात में आजाद दस्ता के सदस्य के रूप में जो भी जिम्मेदारी मिलती उसे बखूबी निभाते थे।
स्वतंत्रता सेनानी के रूप में
भारत छोड़ो आंदोलन में जबरदस्त तरीके से हिस्सा लेने और अंग्रेजी सरकार को हिलाने वाले कर्पूरी ठाकुर को 26 माह तक जेल में गुजारना पड़ा। 23 अक्टूबर 1943 को रात के लगभग 2:00 बजे उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और दरभंगा जेल में डाल दिया गया। यह उनकी पहली जेल यात्रा थी।
उनका प्रसिद्ध नारा था –
सो में नब्बे शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है।
धन, धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है॥
राजनीतिक जीवन
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 1952 के प्रथम आम चुनाव में वे समस्तीपुर के ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से कर्पूरी ठाकुर सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर भारी बहुमत से विजय हुए। पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। वह 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर रहे। वह बिहार के पहले ‘गैर- कांग्रेसी’ मुख्यमंत्री थे।
1967 में पहली बार उप मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया। इसके चलते उनकी आलोचना भी खूब हुई लेकिन उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया। इस दौर में अंग्रेजी में फैल मैट्रिक पास लोगों का मजाक ‘कर्पूरी डिवीजन’ से पास हुए कहकर उड़ाया जा रहा था। इसी दौरान उन्हें शिक्षा मंत्री का पद भी मिला हुआ था और उनकी कोशिशों के चलते ही मशीनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया और आर्थिक तौर पर गरीब बच्चों की स्कूल की फीस को माफ करने का काम भी उन्होंने किया।
वह देश के पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक की मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया। 1952 से 1988 के अपने जीवन के अंतिम दिन तक बिहार विधानसभा के सदस्य रहे उन्होंने सीएम बनने के बाद पिछड़े वर्ग के लोगों के हित के लिए बहुत से काम किए जिसके कारण उन्हें “जननायक” की उपाधि दी गई।
सामाजिक रूप से पिछड़ी किन्तु सेवा भाव के महान लक्ष्य को चरितार्थ करती नाई जाति में जन्म लेने वाले इस महानायक ने राजनीति को भी जन सेवा की भावना के साथ जिया। उनकी सेवा भावना के कारण ही उन्हें जन नायक कहा जाता था, वह सदा गरीबों के अधिकार के लिए लड़ते रहे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पिछड़ों को 12 प्रतिशत आरक्षण दिया।
ईमानदार व्यक्तित्व
कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए। जब करोड़ो रुपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता।
1974 में कर्पूरी ठाकुर के छोटे बेटे का मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयन हुआ। और कुछ समय बात वह बीमार पड़ गए तत्पश्चात उन्हें दिल्ली के राममनोहर लोहिया हास्पिटल में भर्ती किया गया। डॉक्टरों ने बताया की उनके बेटे की हार्ट की सर्जरी होगी। इंदिरा गांधी को जैसे ही पता चला, एक राज्यसभा सांसद को वहां भेजा और उन्हें एम्स में भर्ती कराया और ख़ुद भी दो बार मिलने गईं और इलाज के लिए सरकारी खर्च पर अमेरिका भेजने की पेशकश की। कर्पूरी ठाकुर को पता चला तो उन्होंने कहा कि वे मर जाएंगे पर बेटे का इलाज़ सरकारी खर्च पर नहीं कराएंगे। बाद में जयप्रकाश नारायण ने कुछ व्यवस्था कर न्यूज़ीलैंड भेजकर उनके बेटे का इलाज़ कराया।
कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे। बहुगुणा जी कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोपड़ी देख कर रो पड़े थे। स्वतंत्रता सेनानी कर्पूरी ठाकुर 1952 से लगातार विधायक रहे, पर अपने लिए उन्होंने कहीं एक मकान तक नहीं बनवाया।
अंतिम समय
कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को हृदयाघात के कारण इस महान विभूति का निधन हो गया।
- प्रभात प्रकाशन ने कर्पूरी ठाकुर पर ‘महान कर्मयोगी जननायक कर्पूरी ठाकुर’ नाम से दो खंडों की पुस्तक प्रकाशित की है। इसमें कर्पूरी ठाकुर पर कई दिलचस्प संस्मरण शामिल हैं।
देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारतरत्न’
कर्पूरी ठाकुर की मौत के 36 साल बाद देश का सर्वोच्च सम्मान देने का फैसला लिया गया है। आम तौर पर केंद्र सरकार गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पद्म पुरस्कारों और कभी-कभी भारत रत्न का एलान करती है। लेकिन इस बार 2024 में सरकार ने गणतंत्र दिवस से दो दिन पहले ही भारत रत्न के बारे में एलान कर दिया है। 24 जनवरी 2024 को कर्पूरी ठाकुर की शताब्दी जयंती की पूर्व संध्या पर उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न देने की घोषणा हुई है। इसके अलावा उनकी जन्मशताब्दी पर 24 जनवरी को केंद्र सरकार सिक्का और नये स्वरूप का डाक टिकट जारी करेगी। इससे पूर्व 1990 में कर्पूरी ठाकुर के संस्मरण में भारत सरकार में डाक टिकट जारी किया था।
कर्पूरी ठाकुर सर्वोच्च नागरिक सम्मान पाने वाले बिहार के तीसरे व्यक्ति हैं। उनसे पहले प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और लोकनायक जयप्रकाश नारायण को यह सम्मान दिया गया था। बिहार में जन्मे बिसमिल्लाह खां को भी भारत रत्न से नवाजा जा चुका है। हालांकि, उनकी कर्मभूमि उत्तर प्रदेश की वाराणसी रही। उनका परिवार आज भी काशी में रहता है।
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