Islam dharm ki uttpatti

इस्लाम धर्म (Islam Religion)

इस्लाम धर्म
(Islam Religion)

‘इस्लाम (Islam)’ का शाब्दिक अर्थ ‘आत्म समर्पण’ है। यह एक ईश्वर परक धर्म है। इस धर्म में मूर्ति पूजा के लिए कोई स्थान नहीं है। इस्लाम धर्म (Islam Religion) के संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद साहब (Prophet Muhammad) माने जाते हैं। इनका जन्म 570 ई. में अरब के मक्का नामक स्थान पर हुआ था। हजरत मुहम्मद जब 40 वर्ष के हुए तो उन्हें ‘सत्य के दिव्य दर्शन’ हुए और वे पैगम्बर बन गये। पैगम्बर बनने के बाद उन्होंने इस्लाम धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। दिव्य दर्शनों के बाद मुहम्मद साहब को पूर्ण विश्वास हो गया कि अल्लाह ही एकमात्र ईश्वर है और वे ही ईश्वर के पैगम्बर हैं। इस्लाम की मान्यता के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को सर्वशक्तिमान अल्लाह में और अल्लाह के पैगम्बर के शब्दों में आस्था रखनी चाहिए। ईश्वर की इच्छा के सामने मनुष्य की कोई शक्ति नहीं है, अतः मनुष्य का ईश्वर की इच्छा के आगे झुकना श्रेयस्कर है। इस धर्म की प्रमुख शिक्षाएं इस प्रकार हैं – 

  • अल्लाह या खुदा एक है तथा सभी मनुष्य उसके बंदे हैं।
  • अल्लाह इल्हाम अर्थात् सच्चा ज्ञान अपने पैगम्बरों को देता है। 
  • इस्लाम की दृष्टि में सभी समान हैं। 
  • इस्लाम के अनुयायियों को हर रोज पांच बार नमाज पढ़नी चाहिए और प्रत्येक शुक्रवार को दोपहर के बाद मस्जिद में नमाज पढ़ना चाहिए। 
  • निर्धनों और भिक्षुओं की मदद करनी चाहिए। 
  • इस्लाम के पवित्र महीने रमजान में उसे सूर्योदय से सूर्यास्त तक व्रत रखना चाहिए। 
  • ब्याज लेना, जुआ खेलना, शराब पीना और सूअर का माँस खाना अनिवार्य रूप से निषेध माना जाता है। 

सूफी आंदोलन (Sufi Movement)

एक अवधारणा है कि सूफी शब्द अरबी भाषा के ‘सफा’ से बना, जो कि पवित्रता का समानार्थी है, इस प्रकार जीवन में आध्यात्मिकता एवं पवित्रता का अनुपालन करने वाला सूफी कहे जाने लगे। सूफी आंदोलन भी भक्ति आंदोलन की तरह अपने प्रभाव में मध्यकाल मे आया। इस्लाम धर्म में चलने वाले रहस्यवादी दर्शन को सूफी आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा। सूफी संतों ने सादगीपूर्ण जीवन बिताते हुए आमजनों के बीच नैतिकता का विकास किया एवं इस्लाम को और उदार बनाने की कोशिश की। 

सूफी धर्म की अवस्थाएँ (States of Sufi Religion)

  1. तौबा (पश्चाताप) 
  2. वार (विरक्ति) 
  3. जहद (पवित्रता) 
  4. फक्र (निर्धनता) 
  5. सब्र (धैर्य) 
  6. शुक्र (कृतज्ञता) 
  7. खौफ (भय) 
  8. रजा (आशा) 
  9. तबक्कुल (संतोष) 
  10. रिजा (ईश्वर की इच्छा के प्रति अधीनता)

भारत में सूफियों का आगमन (Arrival of Sufis in India)

भारत में सूफी मत का आगमन 11वीं और 12वीं शताब्दी से माना जाता है। किंतु, 13वीं-14वीं शताब्दी आते-आते यह कश्मीर, बिहार, बंगाल तथा दक्षिण तक फैल चुका था, जबकि पहले सूफियों का मुख्य केंद्र मुल्तान व पंजाब था।

अबूल फजल ने आइने अकबरी में सूफियों के 14 सिलसिलाओं का वर्णन किया है। जो मुख्यतः दो प्रकार के दर्शनिक धाराओं में बंटे हुए हैं –

वहदत-उल-वजूद 

सूफी दर्शन की यह धारा अधिक लोकप्रिय थी। कश्मीर में प्रचलित एवं भारत के अन्य हिस्सों में (दिल्ली सहित) नक्शबंदी को छोड़कर अधिकांश सिलसिलाएँ इससे ही जुड़े हुए थे। ये खुदा और व्यक्ति बीच के अस्तित्व एकता की बात करता है। इस धारा के एक सन्त मंसूर ने ‘अनल हक’ (मैं ही खुदा हूँ) का दावा किया था। ये लोग व्यक्ति के अंदर छिपे हुए खुदा की प्राप्ति के लिए प्रेममार्ग पर चलने के लिए बल देते थे। इन संतों ने प्रेम के विकास के लिए कई आचरण एवं नियम बनाए, इसके साथ ही ये शमां, और फना (पार्थिव अस्तित्व को भूल जाना) पर भी बल देते थे।

वहदत-उल-सुहूद 

इस धारा के विचारक ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं और व्यक्ति को खुदा का बन्दा। इन्होंने खुदा और व्यक्ति के बीच की एकता को असंभव बताया ये शमां (संगीत) का विरोध करते थे। 

मुख्य सूफी सम्प्रदाय एवं उनसे जुड़े प्रमुख संत 

चिश्ती संप्रदाय 

इस संप्रदाय के संत सादगी और निर्धनता में आस्था रखते थे। इसे चिश्तिया संप्रदाय भी कहते हैं, इसके प्रथम संत शेख मुईनुद्दीन चिश्ती थे, जो ख्वाजासाब के नाम से विख्यात हुए। इनका जन्म पूर्वी ईरान के सिजिस्तान नामक प्रांत में हुआ। ये प्रारंभ में लाहौर में रहे फिर अजमेर में स्थाई रूप से बस गए। ख्वाजा साहब का निधन 1236 ई. में हुआ। अजमेर इनकी दरगाह है। चिश्ती संप्रदाय के अन्य महत्वपूर्ण संत हमीदुद्दीन नागौरी, शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर, निजामुद्दीन औलिया, शेख नासिरूद्दीन चिराग, शेख सलीम चिश्ती आदि थे। 

सुहरावर्दी सूफी संप्रदाय 

यह भी सूफियों का महत्वपूर्ण संप्रदाय है, जिसके प्रणेता शेख सिहाबुद्दीन सुहरावर्दी थे। भारत में इस संप्रदाय को आगे बढ़ाने का श्रेय वहाउद्दीन जकारिया को दिया जाता है, जो कि 13वीं सदी के प्रभावशाली सूफी संत थे। सुहरावर्दी सूफी संप्रदाय के अन्य प्रभावशाली संत शेख हमीदुद्दीन नागौरी, सद्रद्दीन आरिफ रूकनुद्दीन को बहुत सम्मानित स्थान मिला। इस संप्रदाय में उनकी स्थिति वैसी ही थी, जैसी चिश्तिया संप्रदाय में निजामुद्दीन औलिया की थी। 

कादिरी संप्रदाय 

इस संप्रदाय की स्थापना का श्रेय बगदाद के शेख अब्दुल कादिर जिलानी को दिया जाता है, जिन्होंने 12वीं सदी में इस संप्रदाय को स्थापित किया। भारत में कादिरी संप्रदाय के पहले संत शाह नियामत उल्ला और नासिरूद्दीन महमूद जिलानी थे। इस संप्रदाय के अन्य महत्वपूर्ण संत थे-मियाँ मीर और मुल्ला शाह बदख्शीं। मुलग सम्राट शाहजहाँ का बड़ा बेटा कादरी सूफी संप्रदाय से प्रभावित होकर इसका अनुयायी बन गया था। 

नक्शबंदी संप्रदाय 

इस संप्रदाय के प्रणेता ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी (1317-89 ई.) को माना जाता है। भारत में इस संप्रदाय के प्रचारक बकी बिल्लाह (1563-1603 ई.) थे, जो बहाउद्दीन के सातवें उत्तराधिकारी थे। इस संप्रदाय ने इस्लाम में नए परिवर्तनों का विरोध किया तथा पैगम्बर द्वारा दिखाए गए रास्ते पर चलने पर बल दिया। नक्शबंदी संप्रदाय के महत्वपूर्ण संतों के नाम इस प्रकार हैं – शेख अहमद सरहिन्दी, शाह वली उल्लाह एवं ख्वाजा मीर दर्द।

कलन्दरिया संप्रदाय 

इस संप्रदाय का प्रचार-प्रसार सैय्यद शाह नज्मुद्दीन कलंदर ने किया। वह सैय्यद खिज्र रूमी के शिष्य थे। इस संप्रदाय के अनय महत्वपूर्ण संत थे-कुतुबुद्दीन कलंदर और शरीफुद्दीन अली कलन्दर।

शत्तारिया संप्रदाय 

सूफी संप्रदाय की इस शाखा को ईरान एवं मध्य एशिया में ‘इश्किया’ तथा तुर्की में ‘विस्तामिया’ नाम से जाना जाता है। शत्तारिया संप्रदाय में ‘शत्तर’ से आशय गति से है। इस संप्रदाय की यह विशिष्टता है कि इसमें साधक को कम समय में ‘फना’ और ‘बका’ की अवस्था मिल जाती है। भारत में शत्तारिया संप्रदाय के प्रवर्तक शेख अब्दुला शत्तार को माना जाता है। इस संप्रदाय के अन्य महत्वपूर्ण संत शाह गौस और शाह बहाउद्दीन थे।

प्रमुख सूफी कवि और रचनाएँ

कवि रचना 
मुल्ला दाऊद चंदायन 
उस्मान चित्रवली 
शेखनबी ज्ञानद्वीप 
कुतुबन मृगावती 
नूर मुहम्मद अनुराग बांसुरी, इंद्रावती 
कासिम शाह हंस जवाहिर 
जायसी पदमावत, अखराट, आखिरी कलाम, कन्हावत 
मंझन मधुमालती 

 

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इस्लाम की उत्पत्ति तथा विकास

इस्लाम की उत्पत्ति तथा विकास
(Origin and Development of Islam)

इस्लाम (Islam) जिसका शाब्दिक अर्थ ‘समर्पण’ है, की उत्पत्ति अरब मक्का में हुई थी। व्यस्त व्यावसायिक मार्गों के संगम पर बसे होने के कारण मक्का अत्यंत समृद्ध हो गया था। 

इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद अब्दुल्ला तथा अमीना के पुत्र थे जिनका पालन-पोषण उनके चाचा अबु तालिब ने किया था। खजीदा नामक एक विधवा से विवाह कर उन्होंने अपनी पहचान समाज के कमजोर वर्गों में स्थापित की। मुहम्मद का मानना था कि वे अल्लाह के दूत हैं। उनकी पत्नी तथा उनका चचेरा भाई अली उनके प्रारंभिक अनुयायी बने तथा शीघ्र ही उनके मित्रों ने उन्हें पैगंबर के रूप में स्वीकार कर लिया। लेकिन उनकी शिक्षाओं के कारण मक्का के समृद्ध व्यक्ति उनके शत्रु बन गए। परिणामस्वरूप 24 सितंबर 622 ई० को मुहम्मद मदीना चले गए। 

बाद में उनके प्रवर्जन के साथ मुस्लिम हिज्रा युग की शुरुआत मानी गई तथा चंद्रमा की गति पर आधारित मुस्लिम कैलेंडर से मेल खाने के लिए इसे 24 सितंबर की जगह 16 जुलाई 622 ई० माना गया। मुहम्मद अपने अनुयायियों के साथ 630 ई० तक मक्का लौट गए। उनकी मृत्यु जून 632 ई० में हो गई ।

मुहम्मद की मृत्यु के पश्चात् मदीना के मुहाजिरों तथा अंसारों ने अबु बक्र को खलीफा (उत्तराधिकारी) चुना क्योंकि मुहम्मद ने किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था। लेकिन पैगंबर के कुछ अन्य अनुयायी तथा पैगंबर के हाशिमी कबीले के सदस्य इससे अलग हो गए, जिनका मानना था कि मुहम्मद ने अपने दामाद अली को अपना उत्तराधिकारी नामजद किया था। अली के समर्थक शिया कहलाए जबकि अबु बक्र के समर्थक सुन्नी कहे गए। 

अबु बक्र ने उमर अल-खत्तब को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया जिसके काल में सीरिया फिलिस्तीन एवं मिस्र के बाई जेंटिनियायी क्षेत्र तथा ईरान एवं ईराक के सासानियायी क्षेत्र खलीफा के अधीन आ गए। उमर की हत्या उसके एक ईरानी दास ने कर दी तो पैगंबर के वरिष्ठ सहयोगियों में से एक, उस्मान, को खलीफा बनाया गया। उस्मान के शासन काल के 6 वर्षों का पूर्वार्द्ध शांतिपूर्ण रहा पर उत्तरार्द्ध में गृहयुद्ध छिड़ गया। परिणामस्वरूप समुदाय के पतन को रोकने के लिए अली (656-61) ने खलीफा का पद स्वीकार किया।

उस्मान के संबंधी सीरिया के शासक मुआविया ने अली की अधीनता मानना अस्वीकार कर दिया। अंततः अली की हत्या हो गई और मुआविया खलीफा बना जिसने उमय्यद वंश (661743) की नींव डाली। एक शताब्दी के अंदर ही उमय्यद वंश अब्बासिद वंश (749-1258) द्वारा विस्थापित कर दिया जो ईरान तथा अरब की उमय्यद विरोधी जनता के बीच लोकप्रिय थे। हालांकि उमय्यद तथा अब्बासिद खलीफा कहे जाते थे, पर वे वंशानुगत थे। पैगंबर के बाद के चार शासक रशीदुन (उचित खलीफा) कहे जाते हैं।

सिंध में अरबमा 

सिंध पर मुहम्मद बिन कासिम का आक्रमण ईराक के उमय्यद शासक, हज्जाज के सिंध से ट्रान्सोक्सिआना तक के क्षेत्र पर अधिकार करने की अग्रगामी नीति का परिणाम थी। उस समय सिंध का शासक चाप का पुत्र दाहिर था जिसने पूर्ववर्ती बौद्ध शासकों से सत्ता छीनी थी। मुहम्मद ने 712 ई० में सिंध पर आक्रमण कर ब्राह्मनाबाद के युद्ध में दाहिर की हत्या कर दी। मुहम्मद ने दाहिर की विधवा, रानी लाडी, से विवाह किया तथा संपूर्ण निम्न सिंध का स्वामी बन गया। सिंध में मुहम्मद द्वारा लागू किए गए प्रशासनिक अधिनियमों का उल्लेख ‘चचनामा’ में मिलता है। हज्जाज के आदेश पर सिंध के लोगों को जिम्मी (सुरक्षित जनता) का स्तर प्रदान किया गया तथा उनकी संपत्ति एवं जीवन पर कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। इस्लामी कानून के विभिन्न संस्थापकों में से सिर्फ अबु हनीफा (हनाफी विचारधारा के संस्थापक, 8वीं सदी) ने हिंदुओं को जजिया लेने का अधिकार दिया है जबकि दूसरों ने उन्हें ‘मृत्यु अथवा इस्लाम’ में से एक को धारण करने का आदेश दिया है। 714 ई० में हज्जाज तथा अगले वर्ष उसके संरक्षक खलीफा वलीद की मृत्यु के कारण मुहम्मद को वापस बुला लिया गया। नए खलीफा ने उसे बंदी बना लिया जिसके बाद सिंध का प्रशासन बिखर गया। 

इसके बाद सिंध मुसलमानों के अधीन बना रहा। परंतु आठवीं सदी में अरबों के इसके आगे भारत में प्रवेश नहीं कर सकने का कारण शक्तिशाली प्रतिहार राज्य तथा सिंध का उनका गलत चुनाव था जो उन्हें विजय के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं करा सका।

गज़नी का काल 

भारत पर महमूद का आक्रमण 1000 ई० में प्रारंभ हुआ जब उन्होंने लामघन के निकट एक किले पर कब्जा किया। उन्होंने 1001 ई० में पेशावर के निकट एक युद्ध में हिंदू शाही राजा जयपाल को पराजित किया। जयपाल के बाद उनका पुत्र आनंदपाल आया। आठ साल बाद महमूद ने दुबारा सिंध पार कर जयपाल के उत्तराधिकारी आनंदपाल को 1009 ई० में वाईहिंद में पराजित किया। पंजाब तथा पूर्वी राजस्थान पर महमूद के बार-बार आक्रमण से राजपूत प्रतिरोध नष्ट हो गया। 1025-26 में वह गुजरात के प्रसिद्ध सोमनाथ अभियान पर निकला। अनहिलवाड़ा के चालुक्य राजा भीम I ने कोई प्रतिरोध नहीं किया तथा मंदिर लूट लिया गया।

महमूद सिर्फ उन कवियों के प्रति काफी उदार था जो उसकी प्रशंसा करते थे, अन्य को कुछ नहीं मिला। वैज्ञानिकों को तो खासकर, जैसे अल – बरूनी जिसे 1017 ई० में ख्वारजशाह में बंदी बनाया गया था, प्रोत्साहन नहीं दिया जाता था। फिरदौसी, जिसने 1010 में शाहनामा लिखा था, को भी खास इनाम नहीं मिला। 

 

अल-बरूनी का भारत

इन्होंने गज़नी के राजा की जानकारी हेतु किताब की तहकीक मा लील-हिंद लिखा। यद्यपि वे गज़नी में रहते थे तथा ब्राह्मण शिक्षा के गढ़ कन्नौज, बनारस तथा काश्मीर वे कभी नहीं गए थे, इन्हें कुछ संस्कृत विद्वानों तथा व्यापारियों द्वारा सूचना मिलती थी। वे पातंजलि के योगसूत्र, भगवद्गीता तथा सांख्य-कारिका से उदाहरण लेकर अपनी बातों को सिद्ध करते थे। मानवीय तथा सांस्कृतिक संबंधों की विभिन्न विश्वासों के परिपेक्ष में तुलना के साथ ही वे हिंदू वर्ण विभाजन के वर्ग (तबाकात) तथा जाति को जन्म विभाजन (नसब) बताते हैं। उनके अनुसार शूद्रों के नीचे अनत्यज अथवा जातिहीन होते थे जो आठ श्रेणियों में विभाजित थे : परिष्कारक, मोची, बाजीगर, डलिया तथा ढाल बनाने वाला, नाविक, गहुआरा, शिकारी तथा बुनकर। सफाई करने वाले हाड़ी, डोम तथा चांडाल वर्ण व्यवस्था से बाहर थे। अंततः, विदेशियों को मलेच्छ अथवा अशुद्ध माना जाता था।

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