उत्तराखण्ड के प्रमुख लोकनृत्य
(Important Folk Dance of Uttarakhand)
धार्मिक नृत्य
- यह नृत्य गीतों एवं वाद्ययन्त्रों के स्वरों द्वारा देवता विशेष पर अलौकिक कम्पन के रूप में होता है। कम्पन की चरम सीमा पर वह विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करने लगता है, इसे देवता आना कहते हैं। जिस पर देवता आते हैं, वह पस्वा कहलाता है।
मृत अशान्त आत्मा नृत्य
- मृतकों की आत्मा को शान्त करने के लिए अत्यन्त कारुणिक गीत ‘राँसों’ का गायन होता है। यह नृत्य डमरू तथा थाली के स्वरों के साथ किया जाता है। यह नृत्य छः प्रकार का होता है — चर्याभूत नृत्य, हन्त्या भूत नृत्य, व्यराल नृत्य, सैद नृत्य, घात नृत्य और छल्या भूत नृत्य।
रणभूत नृत्य
- गढ़वाल क्षेत्र में जो लोग युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हैं, उन्हें देवताओं के समान आदर प्राप्त होता है। रणभूत नृत्य इन शहीदों की आत्मा की शान्ति के लिए उनके परिजनों द्वारा किया जाता है। इसे ‘देवता घिराना’ के नाम से भी जाना जाता है। इनकी स्मृति में इस नृत्य का आयोजन होता है।
थड़या नृत्य
- यह बसन्त पंचमी से मेष संक्रान्ति तक किया जाता है। इसमें खुले मैदान में वे विवाहित लड़कियाँ नृत्य करती हैं जो पहली बार मायके आती हैं। इसके विषय सामाजिक तथा आध्यात्मिक होते हैं।
चौफुला नृत्य
- यह गढ़वाल क्षेत्र का शृंगार भाव प्रधान नृत्य है। इसमें किसी वाद्य यन्त्र का प्रयोग नहीं होता। इसमें हाथों की ताली, पैरों की थाप, झांझ की झंकार, कंगन व पाजेब की सुमधुर ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है।
घसियारी नृत्य
- यह पर्वत श्रृंखलाओं में घास काटती हुई समवयस्काओं का नृत्य है, जो गीतों के स्वरों और दाधी के ‘छमणाट’ में चलता है।
भैला नृत्य
- दीपावली (बग्वाल) तथा हरिबोधिनी (इगास) की रात में गढ़वाल के गाँवों में यह नृत्योत्सव मनाया जाता है।
खुसौड़ा नृत्य
- यह गति से मौज में किया जाने वाला नृत्य है। वाद्य स्वरों में भी यह नृत्य किया जाता है।
चाँचरी नृत्य
- यह नृत्य गढ़वाल क्षेत्र का एक शृंगारिक नृत्य है, जो स्त्री एवं पुरुष के द्वारा चाँदनी रात में किया जाता है। इस नृत्य में हुड़की नामक वाद्य यन्त्र का प्रयोग किया जाता है। कुमाऊँ में इसे झोड़ा कहा जाता है।
छोलिया नृत्य
- इस नृत्य को ‘तलवार’ नृत्य भी कहते हैं। ढोल-दमाऊँ के स्वरों में तलवार चलाने का स्त्री-पुरुषों का यह नृत्य वीर भावना से ओत-प्रोत है।
- कुमाऊँ क्षेत्र में लगने वाले किरजी कुम्भ मेले में यह प्रसिद्ध युद्ध नृत्य धार्मिक आयोजन के रूप में किया जाता है। यह तलवार और ढाल के साथ किया जाता हैं।
केदारा नृत्य
- यह ढोल-दमाऊँ के कठोर वाद्य स्वरों में विकट तलवार एवं लाठी संचालन की ताण्डव शैली का अद्भुत नृत्य है।
सराँव (सरौ) नृत्य
- यह युद्ध कौशल का अनोखा नृत्य है। पहले ठकुरी राजा दूसरे ठकुरी राजा की पुत्री का अपहरण करने जाते थे। विवाह न होने पर युद्ध होता था।
घुघती नृत्य
- यह नृत्य नन्हें बालक-बालिकाओं के द्वारा गढ़वाल क्षेत्र में मनोरंजन के लिए किया जाता है।
फौफटी नृत्य
- यह गढ़वाल का गीतप्रधान नृत्य जो अविवाहित लड़कियों द्वारा किया जाता है।
बनवारा नृत्य
- मध्यकालीन विनोद नृत्य की तरह यह समवयस्का ननद-भाभी को चिढ़ाने वाला विनोदी नृत्य है।
जात्रा नृत्य
- यह विशेष कर स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है, जिसमें किसी पर्व या देवता का वर्णन मुख्य रूप से होता है। बंगाल का ‘जात्रा’ नृत्य इसी के समान है।
थाली नृत्य
- बद्दी ढोलक तथा सारंगी बजाकर गीत की प्रथम पंक्ति गाता है। उसकी पत्नी थालियों के साथ विभिन्न मुद्रा में नृत्य प्रस्तुत करती है।
चैती पसारा
- चैत के सारे महीने व्यावसायिक जातियों के लोग अपने-अपने ठाकुरों के घरों के आगे गाते तथा नाचते हैं।
शिव-पार्वती नृत्य
- यह नृत्य बद्दी या मिरासी शिव के कथानक को लेकर पार्वती के जन्म से लेकर विवाह, संयोग, वियोग एवं पुत्रोत्पत्ति आदि अवस्थाओं का नृत्य करते हैं।
नट-नटी नृत्य
- जन समाज के मनोरंजनार्थ ये लोग नट-नटी का हास्यपूर्ण प्रसंग अपने नृत्यों में रखते हैं। ऐसे नृत्यों का आयोजन मेलों में अधिक होता है।
दीपक नृत्य
- प्रारम्भ में यह नृत्य थाली नृत्य के समान ही होता है। अन्त में थाल में दीये सजाकर नर्तकी नृत्य करती है।
रम्माण
- रम्माण नृत्य में बहुत से देवताओं के मुखोटे लगाकर नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है। यूनेस्को ने रम्माण को विश्व अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर में शामिल किया है।
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