Geography of Uttar Pradesh

उत्तर प्रदेश का संक्षिप्त भूगोल

उत्तर प्रदेश का भूगोल (Geography of Uttar Pradesh)

उत्तर प्रदेश का वर्तमान भौगोलिक स्वरूप 9 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आया 9 नवम्बर 2000 को उत्तर प्रदेश के 13 पर्वतीय जिलों को काटकर उत्तराखण्ड राज्य का निर्माण किया गया। भुगर्भिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश प्राचीनतम गोंडवाना लैंड का भू-भाग है।  

  • उत्तर प्रदेश का कुल अक्षांशीय विस्तार 6°32′ है।
  • उत्तर प्रदेश का अक्षांशीय विस्तार 23°52′ से 30°24′ उत्तरी अक्षांश के मध्य है।
  • उत्तर प्रदेश का कुल देशांतरीय विस्तार 7°33′ है।
  • उत्तर प्रदेश का देशांतरीय विस्तार 77°05′ पूर्व से 84°38′ पूर्वी देशांतर के मध्य है।
  • उत्तर प्रदेश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 2,40,928 वर्ग किमी. है। जो कि भारत के कुल क्षेत्रफल (32,87,263 वर्ग किमी.) के लगभग 7.33% के बराबर है।
  • पूर्व से पश्चिम तक इसकी लंबाई 650 किमी. तथा उत्तर से दक्षिण तक चौड़ाई 240 किमी. है।
  • क्षेत्रफल की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का भारत में चौथा स्थान है।
  • उत्तर प्रदेश से अधिक क्षेत्रफल वाले राज्य हैं राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र।
  • उत्तर प्रदेश की सीमाएं केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली सहित कुल 9 राज्यों से लगी हुई है।’
  • उत्तर प्रदेश की सीमा को स्पर्श करने वाले राज्य- हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, उत्तराखंड एवं दिल्ली हैं।
  • उत्तर प्रदेश की सीमा को स्पर्श करने वाला एक मात्र केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली है। इसकी सीमाएं उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद एवं गौतम बुद्ध नगर से लगी हुई है।
  • उत्तर प्रदेश की पूर्वी सीमा बिहार एवं झारखंड से लगी हुई है।
  • उत्तर प्रदेश की उत्तरी सीमा नेपाल के अतिरिक्त उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश से लगी हुई हैं।
  • उत्तर प्रदेश की पश्चिमी सीमाएं हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली से लगी है।
  • उत्तर प्रदेश की दक्षिणी सीमाएं मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ को स्पर्श करती है।
  • उत्तर प्रदेश की सबसे लंबी सीमा मध्य प्रदेश से स्पर्श करती है।
  • उत्तर प्रदेश की न्यूनतम सीमा रेखा से स्पर्श करने वाला राज्य हिमाचल प्रदेश है।

उत्तर प्रदेश को निम्नलिखित तीन भौतिक विभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
(1) तराई प्रदेश
(2) गंगा-यमुना का मैदानी प्रदेश
(3) दक्षिण का पठारी प्रदेश ।

तराई प्रदेश

भाबर क्षेत्र के समानान्तर संकीर्ण पट्टी के रूप में विस्तृत समतल, नम एवं दलदली मैदान को तराई क्षेत्र कहा जाता हैं। यह समस्त क्षेत्र उत्तर-पश्चिम में सहारनपुर से लेकर पूर्व में देवरिया जिला तक विस्तृत है। इसमें सहारनपुर, बिजनौर, बरेली, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, बहराइच, गोंडा, बस्ती, गोरखपुर, और देवरिया जिलों के उत्तरी भाग शामिल हैं। इस भाग में ऊपर से आने वाली तीव्रगामी नदियाँ मन्द पड़ जाती हैं। पत्थर धारा में आलोडित विलोडित होकर घिस जाते हैं। नदी इन्हीं पत्थरों को इस क्षेत्र में छोड़ती हुई आगे की तरफ बढ़ जाती है। पत्थरों की छाटन और मिट्टी की पर्त आगे चलकर जम जाती है। इस क्षेत्र में वर्षा भी अधिक होती है जिससे सम्पूर्ण जल क्षेत्र में फैलकर दलदल के रूप में परिणित हो जाता है। इस क्षेत्र की जलवायु हानिप्रद है। यहाँ मलेरिया ज्वर बहुत होता है। तराई का अधिकांश क्षेत्र साल, सेमल, हल्द एवं तेन्दू आदि वृक्षों वाले घने वन और सवाना प्रकार की लम्बी घास से घिरा है। इस क्षेत्र में धान और गन्ना की कृषि बड़े पैमाने पर की जाती है।

गंगा-यमुना का मैदानी प्रदेश

भाबर और तराई का दक्षिण क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का निर्माण-यमुना, राम गंगा, गोमती, घाघरा, शारदा, ताप्ती एवं गण्डक आदि द्वारा बहाकर लाई गई काँप मिट्टी, कीचड़ एवं बालू से हुआ है। यह अत्यन्त गहरा एवं उपजाऊ क्षेत्र है। इसमें कहीं-कहीं मिट्टी की गहराई 4,500 मीटर तक है। इस मैदान की ऊँचाई सामान्यतः 80 मीटर से 250 मीटर तक है।

इस मैदान का ढाल उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की तरफ है। पश्चिमी भाग का ढाल पूर्वी भाग के ढाल की अपेक्षा अधिक है। नदियों द्वारा निक्षेपित तलछट मिट्टी तथा संरचना के आधार पर इस मैदान को दो उपभागों में विभक्त किया जा सकता है
(1) बांगर क्षेत्र,
(2) खादर क्षेत्र।

बांगर क्षेत्र

पुरानी काँप मिट्टी के उस क्षेत्र को कहते हैं, जहाँ की भूमि ऊँची है और जहाँ नदियों के बाढ़ का पानी नहीं पहुँच पाता है। सैकड़ों वर्षों से कृषि उपयोग में आते रहने के फलस्वरूप बांगर क्षेत्र की मिट्टी की उर्वरा शक्ति क्षीण हो चुकी है।

खादर क्षेत्र

खादर क्षेत्र उस भाग को कहते हैं, जो निचले हैं और नदियों द्वारा प्रतिवर्ष लाई गई नई मिट्टी की परतों के एकत्रित होने से बने हैं। खादर क्षेत्रों में ही कछार पाए जाते हैं। कछारों की मिट्टी प्रतिवर्ष बदलने के कारण अत्यन्त उपजाऊ है। वर्षा ऋतु में अधिकांश भागों में जल प्लावन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण खरीफ की फसल को काफी नुकसान पहुँचाता है। इन क्षेत्रों में नदियों द्वारा अधिक आवरण क्षय करने के कारण बीहड़ों (Ravines) का निर्माण हुआ है, जिनकी मिट्टी नितान्त अनुपजाऊ है, जैसे-यमुना और चम्बल के बीहड़।

गंगा-यमुना के मैदान के निम्नलिखित उप-विभाग और किए जा सकते हैं
1. गंगा-यमुना दोआब
2. गंगा-गोमती दोआब
3. गोमती घाघरा दोआब
4. ट्रान्स घाघरा क्षेत्र
5. रुहेलखण्ड का मैदानी क्षेत्र

दक्षिण का पठारी

प्रदेश उत्तर प्रदेश के मैदानी भाग के दक्षिण में पठारी भाग है, जो बुन्देलखण्ड का पठार कहलाता है। इस क्षेत्र में झाँसी, जालौन, हमीरपुर और बाँदा जिले तथा इलाहाबाद जिले की इलाहाबाद और करछाना तहसीलें, मिर्जापुर जिले का गंगा के दक्षिण वाला भाग तथा वाराणसी जिले की चकिया तहसील सम्मिलित है। इसका क्षेत्रफल लगभग 45,200 वर्ग किमी है जिसकी कैमूर और सोनपार की पहाड़ियाँ 600 मीटर से अधिक ऊँची हैं। यहाँ पर सामान्यतया ऊँचाई 300 मीटर है। ऊँचाई दक्षिण से उत्तर की ओर घटती जाती है अर्थात् इस प्रदेश का ढाल दक्षिण से उत्तर को है। मूलतः यह भारत के दक्षिणी पठार का उत्तर की ओर प्रसारित अंश है। विन्ध्याचल पर्वत की पहाड़ियों का क्रम इस पठारी भाग में मिलता है। इस पठार के पूर्व में कैमूर श्रृंखला का विस्तार उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पूर्वी जिले मिर्जापुर में चुनार तथा विन्ध्याचल तक चला गया है। यह पठार प्राचीन चट्टानों से बना हुआ है। भूमि प्रायः कंकरीली, पथरीली एवं उजाड़ है। पहाड़ियाँ आवरण क्षय के कारण घर्षित अथवा अवशिष्ट रूप में पाई जाती हैं। इस प्रदेश की मुख्य नदियों में चम्बल, बेतवा, केन, सोन और टौंस हैं, जिनमें चम्बल, बेतवा और केन पठार को काटती हुई यमुना में और सोन व टौंस गंगा में मिलती हैं। नदियों की पठारी क्षेत्र में संकीर्ण घाटियाँ पाई जाती हैं। पहाड़ों में स्रोत मिलते हैं और नदियाँ अनेक स्थानों पर जल प्रपातों का निर्माण करती हैं।

  • इस प्रदेश का अधिकांश भाग कृषि के अयोग्य है। केवल समतल भूमि वाले भागों में कृषि कार्य किया जाता है। यहाँ वर्षा की भी कमी है, अतः शुष्क कृषि (Dry Farming) ही सम्पन्न होती है।
  • राज्य के तराई क्षेत्र में ‘भाबर’ की तंग पट्टी पायी जाती है। यहाँ पर पहाड़ियाँ समाप्त हो जाती हैं तथा मैदान की शुरूआत होती है। अतः इन पर्वतीय क्षेत्रों में बहकर आने वाली नदियों से इन क्षेत्रों में तीव्र कटाव होता है। साथ ही, अपने बहाव क्षेत्र के पाश्र्ववर्ती भागों में बलुआ पत्थर, कंकड़, बालू आदि का निक्षेप भी करती हैं।  
  • मध्य हिमालय एवं शिवालिक पहाड़ियों के बीच अधिक दवाब तथा भिचाव पड़ने से सीमान्त दरारें पायी जाती हैं।  यह क्रम ‘प्लीस्टोसीन काल से वर्तमान तक जारी रहा है, जिसके फलस्वरूप इस क्षेत्र में जल की अधिकता है।
  • हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों एवं दक्षिणी प्रायद्वीप के मध्य गंगा-यमुना का मैदान विस्तृत हैं, जिसमें प्लीस्टोसीन युग से लेकर आज तक अवसादी पदार्थों का निक्षेप होता चला आ रहा है।
  • जिन क्षेत्रों में मोटे-मोटे कंकड़ पत्थर पाये जाते हैं उन्हें भाबर तथा महीन अवसादों वाले क्षेत्र को तराई के नाम से जाना जाता है।
  • प्राचीन काँप निक्षेपों को बांगर’ एवं नवीन निक्षेपों को खादर’ कहते हैं।  
  • यमुना नदी की काँप मिट्टी में स्तनधारी जीवों के अवशेष वर्तमान में भी आस-पास बिखरे हुए पाये गए हैं।
  • इस मैदान में पायी जाने वाली काँप मिट्टी की मोटाई का अनुमान अभी तक नहीं लगाया जा सका है।
  • इस राज्य की भू-गर्भिक संरचना के अनुसार दक्षिणी भाग प्राचीनतम शैलों से निर्मित है।
  • भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य उत्तर में स्थित उत्तर प्रदेश भू-गर्भिक दृष्टि से भारत के प्राचीनतम ‘गोंडवानालैण्ड महाद्वीप’ का भू-भाग है।
  • राज्य के दक्षिण में स्थित पठारी भाग वास्तव में प्रायद्वीप भारत का उत्तर की ओर निकला हुआ भाग है, जिसका निर्माण विन्ध्य क्रम की शैलों द्वारा पूर्व-कैम्ब्रियन युग में हुआ था।
  • इसी के साथ-साथ मध्यवर्ती भाग में स्थित गंगा-यमुना का मैदान हिमालय पर्वत से बहाकर लायी गयी नवीन कॉप मिट्टी से निर्मित है, जो कि देश में उपजाऊ भू-भागों में माना जाता है।
  • विन्ध्य क्रम की शैल समूहों का निर्माण समुद्र से धरातल पर भू-गर्भिक शक्तियों द्वारा क्षरण किये गए निक्षेपित पदार्थों के जम जाने से हुआ है।
  • मुख्य रूप से विन्ध्याचल पर्वत श्रेणियों में पाये जाने के कारण इन चट्टानों को विन्ध्यक्रम की चट्टानें कहा जाता है। इन चट्टानों में अवशेषों का अभाव मिलता है, प्रमुख रूप से चूने का पत्थर, डोलोमाइट, बलुआ पत्थर, शैल आदि प्राप्त होते हैं।
  • आद्यकल्प में निर्मित नीस शैलों को बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बुन्देलखण्ड नीस कहते हैं। इन नीस शैलों में लाल ओरथोक्लेज फेलस्पार, लाल क्वार्टज, हार्नब्लेण्ड क्लोराइड आदि खनिजों का मिश्रण पाया जाता है। इन शैलों के निर्माण के बाद ऊपरी विन्ध्य शैलों का निर्माण प्री-कैम्बियन युग में हुआ।
  • विन्ध्य शैलों के द्वारा कैमूर श्रृंखला की रचना हुई, जिसमें कठोर बलुआ पत्थर, क्वार्टजाइट एवं कांग्लोमरेट प्राप्त होते हैं।
  • गंगा-यमुना नदी के मध्यवर्ती क्षेत्र में रवेदार शैलें पाई जाती हैं। ‘टर्शियरी कल्प’ के अंगारालैण्ड एवं गोंडवानालैण्ड के मध्य स्थित टेथिस सागर में भारी मात्रा में अवसादों के निक्षेपित हो जाने के फलस्वरूप प्रदेश के उत्तरी भाग में हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण हुआ, क्योंकि मध्यकल्प की समाप्ति के समय इस सागर में निक्षेपित पदार्थ भू-गर्भित हलचलों के कारण ऊपर उठने लगा। प्लायोसीन युग में इसके निर्माण की तृतीय हलचलों के परिणामस्वरूप शिवालिक पहाड़ियों का निर्माण हुआ। जब ये अवसाद गोंडवानालैण्ड की ओर अग्रसित न हो पाए तो निरन्तर दबाव के परिणामस्वरूप ऊपर उठे भाग में मोड़ पड़ गए, जिसके परिणामस्वरूप हिमालय पर्वत तथा उसकी मोड़दार श्रृंखलाओं का निर्माण हुआ।
  • मायोसीन युग में इन श्रेणियों के निर्माण की द्वितीय हलचल हुई, जब लघु एवं मध्य हिमाचल पर्वत श्रेणियों का प्रादुर्भाव हुआ।

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