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Different tribes of Uttar Pradesh state

उत्तर प्रदेश की विभिन्न जनजातियां

उत्तर प्रदेश राज्य की विभिन्न जनजातियां (Tribes of Uttar Pradesh)

भारतीय संविधान में आदिवासियों को ‘जनजाति (Tribe)’ से संबोधित किया गया है। उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से भोटिया, बुक्सा, जौनसारी, राजी, गोंड, खारवाड़, खैरवाड़, पहरिया, बैगा, पंखा, पानिका, अगरिया, पटारी, चेरो, भुइया, भुनिया और थारू आदि जनजातियां निवास करती हैं। इसके अलावा प्रदेश में खरवार व माहीगीर जनजातियां भी यहाँ निवास करती हैं। प्रदेश की मुख्य जनजातियों का विवरण इस प्रकार है: –

थारू जनजाति (Tharu Tribes)

निवास क्षेत्र

थारू जनजाति उत्तर प्रदेश में गोरखपुर एवं तराई क्षेत्र में निवास करती है।

उत्पत्ति एवं वंश

ये किरात वंश (Kirat Dynasty) के हैं तथा कई उपजातियों में विभाजित हैं। थारू नाम की उत्पत्ति के विषय में इतिहासकारों द्वारा अनेक सम्भावनाएँ व्यक्त की गई हैं। कुछ विद्वानों के विचार से ‘थार’ का तात्पर्य है ‘मदिरा’ और ‘थारू’ का अर्थ ‘मदिरापान करने वाला’। चूंकि ये मदिरा का सेवन पानी की तरह करते हैं, अतः थारू कहलाते हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि थारू जाति के लोग राजपूताना के ‘थार मरुस्थल से आकर यहाँ बसे हैं’ अतः थारू कहलाते हैं।

शारीरिक गठन

थारू जाति के लोग कद में छोटे, चौडी मुखाकृति और पीले रंग के होते हैं। पुरुषों से स्त्रियाँ कहीं अधिक आकर्षक और सुन्दर होती हैं।

वेशभूषा

थारू पुरुष लंगोटी की भाँति धोती लपेटते हैं और बड़ी चोटी रखते हैं, जो हिन्दुत्व का प्रतीक है। थारू स्त्रियाँ रंगीन लहँगा, ओढ़नी, चोली और बूटेदार कुर्ता पहनती हैं। इन्हें आभूषण प्रिय हैं। शरीर पर गुदना गुदवाना भी इन्हें रुचिकर लगता है।

आवास एवं गृह

थारू जाति के लोग अपना घर मिट्टी और ईंटों का नहीं बनाते हैं। इनके मकान लकड़ी के लट्ठों और नरकुलों के द्वारा बनाये जाते हैं। इनके मकान उत्तर-दक्षिण की ओर होते हैं और द्वार पूर्व की ओर होता है। इनके मकानों में कई कमरे होते हैं। घर में एक पूजाघर भी होता है।

भोजन

थारूओं का भोजन मुख्य रूप से चावल है। मछली, दाल, गाय-भैंस का दूध, दही तथा जंगल से आखेट किये जन्तुओं का माँस भी खाते हैं। ये सूअर और मुर्गी पालते हैं और उनका माँस व अण्डे भी प्रयोग करते हैं। इनके भोजन का समय निर्धारित होता है। समयानुसार उनके अलग-अलग नाम हैं –
जैसे –  कलेवा (प्रातः का नाश्ता), मिझनी (दोपहर का भोजन) और बेरी (शाम का भोजन)।
थारू लोग माँस और मदिरा का खूब प्रयोग करते हैं। मदिरा थारूओं का मुख्य पेय है जिसे वे सभी शुभ अवसरों पर खूब पीते हैं। ये चावल द्वारा निर्मित ‘जाड़’ नामक मदिरा को स्वयं बनाते हैं।

पारिवारिक व्यवस्था

थारू जनजाति में संयुक्त परिवार प्रथा है। नेपाल की तराई में अनेक ऐसे थारू मिलते हैं जिनके पारिवारिक सदस्यों की संख्या पाँच सौ तक होती है। परिवार का वृद्ध व्यक्ति की सम्पूर्ण परिवार का मुखिया होता है जो परिवार के अन्य सदस्यों को उनकी क्षमता के अनुसार कार्य सौंप देता है। फिर वही व्यक्ति उस कार्य के लिए उत्तरदायी होते हैं। कार्यों में एक पखवाड़े के बाद परिवर्तन कर दिया जाता है, जिससे कार्यों के प्रति सरसता बनी रहे। थारू जनजाति में संयुक्त पारिवारिक जीवन की प्रथा है। यहाँ सास-बहू, भाई-बहन, माँ-बेटी, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी, ननद-भावज और देवर-भौजाई के उभयपक्षीय अर्थात् कटु एवं मधुर सम्बन्धों का आकर्षक रूप दिखाई देता है।

विवाह प्रथा

थारूओं की विवाह प्रथा अत्यन्त विचित्र है। इनमें वर पक्ष की ओर से किसी मध्यस्थ व्यक्ति द्वारा विवाह की बातचीत चलाई जाती है। अधिकांशतः इन लोगों में विवाह फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष में होते हैं, किन्तु कुछ लोगों के विवाह वैशाख में शुक्ल पक्ष में भी होते हैं। थारूओं में अभी तक बदला विवाह अर्थात् बहनों के आदान-प्रदान की प्रथा थी, परन्तु अब कम होती जा रही है। दोनों ओर से जब विवाह तय हो जाता है तो उसे पक्की पोढ़ी कहते हैं। इस समय दोनों पक्षों में एक समझौता होता है जिसके अन्तर्गत वर पक्ष के लोगों को एक निश्चित मात्रा में चावल, दाल इत्यादि वधू पक्ष वालों को उस समय तक देना पड़ता है जब तक कि वर-वधू का विवाह नहीं हो जाता है। थारू लोग अपनी बारातें गाँव के बाहर चप्पेदार खेतों में ठहराते हैं। द्वारचार के समय लइके और लड़की के पिता को एक अंगोछे से बाँध दिया जाता है। फिर बीस तक गिनती पढ़कर छोड़ देते हैं। थारूओं में विधवा विवाह की भी प्रथा है। यदि कोई विवाहित लड़की जिसका गौना न आया हो अथवा उसका पति मर जाए, तो उसका पिता उसे किसी के घर भेज देगा और बिरादरी को एक भोज़ देगा। इस प्रकार के विवाह भोज को लठभरवा भोज कहते है। यदि किसी विवाहित स्त्री का पति, जिसका गौना हो चुका हो, मर जाता है तो उस लड़की के ससुराल वाले किसी युवक को खोजकर लाते हैं और घर के बाहर लड़की को लड़के और लड़के को लड़की की पोशाक पहना देते हैं। तदुपरान्त लड़की आगे-आगे तथा लड़का उसके पीछे-पीछे अपने मकान में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार वे दोनों पति-पत्नी के रूप में जीवन व्यतीत करने लगते हैं।

धर्म

थारू हिन्दू धर्म को मानते हैं। इनके अनेक देवी-देवता होते हैं। ये भूत-प्रेत और जादू-टोना इत्यादि में विश्वास करते हैं। ये देवी काली को अधिक मानते हैं। भैरव और महादेव भी इनके आराध्य देव हैं। इनका शिवलिंग पत्थर का न होकर बाँस का होता है। ये राम-कृष्ण की भी पूजा करते हैं। थारूओं के अनेक छोटे-छोटे देवी-देवता भी होते हैं। ये पीपल की पूजा करते हैं। इनके अतिरिक्त ये कहीं-कहीं गाय, बन्दर एवं साँप की भी पूजा करते हैं।

त्योहार एवं पर्व

थारू जनजाति के लोग हिन्दुओं के सभी त्योहार मनाते हैं। मकर संक्रांति, होली, कन्हैया अष्टमी (जन्माष्टमी), दशहरा और बजहर थारूओं के मुख्य त्योहार हैं। होली के दिनों में स्त्री-पुरुष दोनों ही मदिरा पीकर गाते हैं तथा साथ-साथ नशे में मस्त होकर नृत्य करते हैं। होली का पर्व फाल्गुन पूर्णिमा से आठ दिनों तक लगातार मनाया जाता है। इस पर्व के अवसर पर रंग-अबीर का खुलकर प्रयोग होता है। बजहर नामक त्योहार ज्येष्ठ अथवा वैशाख के दिनों में होता है। उस दिन गाँव की समस्त स्त्रियाँ गाँव छोड़कर खाना बनाने के आवश्यक सामान के साथ समीप के किसी ऐसे स्थान पर चली जाती हैं जहाँ पीपल अथवा बरगद का पेड़ होता है। उस स्थान पर वे सभी खाना बनाती हैं। इसके बाद भोजन कर पूजा-पाठ और नृत्य संगीत आदि का कार्यक्रम होता है। पुरुष भी वहीं पर भोजन इत्यादि करते हैं, लेकिन रात्रि के समय उनका वहाँ रहना वर्जित होता है जबकि स्त्रियाँ रात्रि में वहीं रहती हैं।

मकर संक्रान्ति और दशहरा का पर्व थारू लोग बडे उल्लास से मनाते हैं। मकर संक्रांति को प्रातः जल्दी सोकर उठते हैं तथा नदी या तालाब में स्नान आदि कर एक-दूसरे को प्रणाम करते हैं। दान-पुण्य आदि भी किया जाता है। इस दिन थारू खिचड़ी खाते हैं तथा शराब क़ा उसके साथ सेवन करते हैं। रात्रि में नृत्य आदि होता है। दशहरा का पर्व कुछ क्षेत्रों में क्वार माह में मनाया जाता है। दूज के दिन ये लोग मकई और जौं मिलाकर किसी मिट्टी के बर्तन में बोकर रख देते हैं। जब वह उग आता है। तब अष्टमी के दिन देवताओं पर चढ़ाते हैं तथा नवमी के दिन जानवरों को खिलाते हैं। तदुपरान्त इन जानवरों की बलि दी जाती है। बलि का गोश्त थारू लोग अपने परिचितों व रिश्तेदारों में बाँटते हैं। सभी लोग मिलजुल कर गाना-बजाना एवं नृत्य करते हैं तथा शराब पीते हैं।

अर्थव्यवस्था

थारूओं की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है। ये लोग मुख्यतः धान की खेती करते हैं, इसके अतिरिक्त दालें, तिलहन तथा गेहूँ की भी कृषि करते हैं। प्रत्येक थारू परिवार सब्जियाँ स्वयं उगाता है। सब्जियों में आलू, बैंगन, सेम, चिचिन्डा, भिण्डी, अरई, गोभी, मूली, शलजम, टमाटर, प्याज, लहसुन आदि प्रमुख हैं।

इनके अन्य व्यवसायों में पशुपालन, लकड़ी ढुलाई, लकड़ी कटाई, शिकार, वन्य भूमियों से लकड़ी, जड़ी-बूटी, फल-फूल एकत्र करना आदि कुटीर उद्योग हैं। शिक्षित थारू सरकारी नौकरियाँ भी करने लगे हैं। भारत तथा उत्तर प्रदेश सरकार थारू जनजातियों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान हेतु निरन्तर प्रत्यनशील हैं। इस हेतु अनेक योजनाओं को भी शुरू किया गया है। लखीमपुर जनपद में एक महाविद्यालय थारू जनजाति के लड़के-लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने हेतु स्थापित किया गया है। जहाँ पर बड़ी संख्या में ये शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और उच्च सरकारी पदों पर कार्य कर रहे हैं। शिक्षा के प्रसार से इस जनजाति के लोगों में सांस्कृतिक चेतना आयी है तथा इनका जीवन सुधर रहा है।

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