ब्राज़िल के बेलेम (Belém) शहर में आयोजित 30वें Conference of Parties (COP30) की शुरुआत, वैश्विक जलवायु नीति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ मानी जा रही है। यह सम्मेलन पेरिस समझौते (Paris Agreement) के दस वर्ष पूरे होने के बाद आयोजित हो रहा है — वह ऐतिहासिक समझौता जिसने सभी सदस्य देशों को वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे और “यथासंभव 1.5°C” तक सीमित रखने का लक्ष्य दिया था।
हालाँकि, यह सम्मेलन उस उत्साह और एकजुटता के माहौल में नहीं हुआ जिसकी अपेक्षा की जा रही थी। इसके बजाय, विश्व समुदाय में एक प्रकार का असमंजस और राजनीतिक दरार दिखाई दे रही है, विशेष रूप से अमेरिका की दोबारा पेरिस समझौते से वापसी के कारण।
अंतरराष्ट्रीय पृष्ठभूमि और COP की ऐतिहासिक भूमिका (International Background & Evolution of COP)
जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक वार्ताओं का इतिहास 1992 के Rio Earth Summit से प्रारंभ होता है, जब United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC) अस्तित्व में आई। इसी के अंतर्गत हर वर्ष Conference of Parties (COP) का आयोजन किया जाता है।
वर्तमान में 30वाँ COP (COP30) ब्राज़िल के बेलेम (Belém) शहर में आयोजित हो रहा है, जो कि पेरिस समझौते (Paris Agreement, 2015) के 10 वर्ष पूरे होने के अवसर पर विशेष महत्व रखता है।
इस समझौते में सभी देशों ने यह संकल्प लिया था कि वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे और “यथासंभव 1.5°C” तक सीमित रखा जाएगा। इस पृष्ठभूमि में COP30 को एक “समीक्षा एवं पुनर्संकल्प” सम्मेलन माना जा रहा है — जहाँ अब तक की उपलब्धियों का आकलन और भविष्य की दिशा तय की जा रही है।
अमेरिका की वापसी और वैश्विक असमंजस (U.S. Withdrawal and Global Disarray)
लेख में बताया गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.) ने एक बार फिर पेरिस समझौते से हटने की घोषणा की है (हालाँकि UNFCCC से नहीं)।
2017 में भी ऐसी ही स्थिति बनी थी, पर इस बार यह निर्णय और अधिक “विरोधी और आक्रामक” प्रतीत हो रहा है।
अमेरिका ने टैरिफ की धमकियों और राजनीतिक दबाव के माध्यम से उन पहलों को बाधित किया है जो उत्सर्जन में कटौती, जलवायु अनुकूलन के वित्तपोषण (adaptation finance) और स्वच्छ तकनीक (clean technology) को बढ़ावा देने के लिए की जा रही थीं।
उदाहरण के लिए, अमेरिका ने International Maritime Organization (IMO) में उस प्रस्ताव को रोकने में भूमिका निभाई, जो समुद्री परिवहन उद्योग को जीवाश्म ईंधनों से हटाकर हरित ईंधन (green fuel) की ओर ले जाने का प्रयास था।
लेख में यह भी उल्लेख है कि भले ही वैश्विक निवेश अब स्वच्छ ऊर्जा में जीवाश्म ईंधनों की तुलना में अधिक हो गया है, फिर भी अमेरिका की “विघटनकारी शक्ति” (destabilising force) अभी भी वैश्विक जलवायु शासन को प्रभावित करने में सक्षम है।
COP30 का मुख्य एजेंडा – क्रियान्वयन और ठोस कार्यवाही (COP30 Agenda: Implementation and Action)
ब्राज़िल की अध्यक्षता में आयोजित COP30 को “Implementation COP” कहा गया है। इसका उद्देश्य केवल नए वादे करना नहीं, बल्कि पूर्व निर्धारित लक्ष्यों के ठोस क्रियान्वयन पर ध्यान केंद्रित करना है।
मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं –
- वित्तीय संरचनाएँ (Financial Mechanisms) तैयार करना ताकि जलवायु अनुकूलन (Adaptation) के लिए संसाधन जुटाए जा सकें।
- वन संरक्षण (Forest Preservation) को प्राथमिकता देना, विशेष रूप से अमेज़न जैसे पारिस्थितिक क्षेत्रों में।
- कार्बन क्रेडिट बाज़ारों (Carbon Credit Markets) को पारदर्शी और प्रभावी बनाना।
इसके अतिरिक्त, ब्राज़िल ने एक नए प्रस्ताव पर चर्चा का संकेत दिया है – ‘ग्लोबल क्लाइमेट काउंसिल (Global Climate Council)’ की स्थापना, जो संयुक्त राष्ट्र की मौजूदा बहुपक्षीय प्रक्रिया को अधिक निर्णयक्षम बना सके।
विकसित बनाम विकासशील देशों की भूमिका (Developed vs Developing Nations’ Role)
लेख यह स्पष्ट करता है कि वैश्विक सामूहिक प्रयास अभी भी पेरिस समझौते के लक्ष्यों से काफी पीछे हैं। फिर भी अब वार्ता का स्वर अधिक सकारात्मक और व्यावहारिक दिख रहा है।
विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ – विशेष रूप से भारत, चीन, ब्राज़िल और दक्षिण अफ्रीका (BRICS समूह के सदस्य) – के पास इस बार अवसर है कि वे वैश्विक जलवायु नेतृत्व में अपनी भूमिका सुनिश्चित करें।
इसके लिए आवश्यक है कि ये देश अपनी पुरानी नीतिगत स्थितियों का पुनर्संतुलन (Recalibration) करें, और वित्तीय योगदान (Financial Contributions) में अधिक भागीदारी दिखाएँ। भारत के लिए यह समय है कि वह आंतरिक नीति संवाद आरंभ करे और स्वयं को इस “अस्पष्ट लेकिन संभावनाशील भविष्य” के लिए तैयार करे।
सामाजिक-आर्थिक प्रभाव और जलवायु न्याय (Socio-Economic Impact and Climate Justice)
लेख के अनुसार, जलवायु संकट केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं है, बल्कि एक आर्थिक और सामाजिक चुनौती भी है। विकासशील देशों पर इसका प्रभाव दोहरा है — एक ओर उन्हें विकास के लिए ऊर्जा की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर वे जलवायु आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
इसलिए COP30 में यह सवाल अत्यंत महत्वपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने का आर्थिक बोझ किस पर अधिक पड़ेगा — विकसित देशों पर, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से अधिक उत्सर्जन किया, या विकासशील देशों पर, जो आज अपनी विकास गति बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं।
लेख यह संकेत देता है कि अब “क्लाइमेट जस्टिस (Climate Justice)” की अवधारणा को गंभीरता से अपनाना होगा ताकि वैश्विक नीति में न्यायसंगत और समान उत्तरदायित्व (Common but Differentiated Responsibilities) का सिद्धांत लागू हो सके।
भारत के लिए नीति-सुझाव (Policy Implications for India)
भारत के लिए COP30 केवल एक कूटनीतिक अवसर नहीं, बल्कि एक रणनीतिक नीति मंच है। भारत को चाहिए कि वह –
- अपने Nationally Determined Contributions (NDCs) को और सशक्त बनाए।
- नवीकरणीय ऊर्जा (Renewable Energy), जलवायु अनुकूल कृषि, और वन प्रबंधन में निवेश बढ़ाए।
- कार्बन मार्केट में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करे।
- Global South के देशों के साथ मिलकर “समानता और न्यायपूर्ण संक्रमण (Just Transition)” के लिए ठोस नीति बनाए।
भारत के लिए यह भी आवश्यक है कि वह “ग्रीन डिप्लोमेसी” को अपने विदेश नीति एजेंडे का केंद्रीय भाग बनाए ताकि जलवायु नेतृत्व में उसकी भूमिका और अधिक मज़बूत हो सके।
निष्कर्ष – एक नई जलवायु व्यवस्था की ओर (Conclusion – Toward a New Climate Order)
लेख निष्कर्ष रूप में यह कहता है कि COP30 केवल चर्चा का मंच नहीं, बल्कि वैश्विक जलवायु व्यवस्था (Global Climate Order) को पुनर्परिभाषित करने का अवसर है। अमेरिका के असहयोग के बावजूद, ब्राज़िल, भारत और अन्य विकासशील देशों के पास इस प्रक्रिया को नए जीवन और दिशा देने का अवसर है।
यदि ये देश मिलकर वित्त, प्रौद्योगिकी और राजनीतिक इच्छाशक्ति का संयोजन प्रदर्शित करें, तो COP30 “घोषणाओं का नहीं, परिणामों का COP” बन सकता है।
UPSC / State PCS के लिए उपयोगिता:
- GS Paper 3 (Environment) – Climate change, mitigation, adaptation, carbon markets.
- GS Paper 2 (International Relations) – Multilateral negotiations, Global South leadership.
- Essay Paper – Sustainable development, Climate justice, Global responsibility.
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