Daily Editorial - Kedarnath Disaster The Cost of Natural Imbalance and Neglect

केदारनाथ आपदा: पर्यावरणविदों के सुझावों की अनदेखी का दुष्परिणाम

केदारनाथ की आपदा: प्राकृतिक असंतुलन और अनदेखी की कीमत
(Kedarnath Disaster: The Cost of Natural Imbalance and Neglect)

वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा ने भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन की जरूरत को उजागर किया था। इस आपदा के 11 साल बाद, 31 जुलाई 2024 की रात को फिर से केदारनाथ घाटी में जलप्रलय जैसे हालात उत्पन्न हो गए, जिससे सैकड़ों तीर्थयात्रियों की जान खतरे में पड़ गई। इस घटना ने एक बार फिर से स्पष्ट किया कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और विशेषज्ञों की चेतावनियों की अनदेखी से कितनी भयंकर स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं।

केदारनाथ क्षेत्र की भौगोलिक संवेदनशीलता

केदारनाथ क्षेत्र की भौगोलिक और भूगर्भीय स्थिति बेहद संवेदनशील है। यह क्षेत्र मुख्य केंद्रीय भ्रंश (Main Central Thrust – MCT) के दायरे में आता है, जो इसे भूस्खलन और भूकंप जैसी घटनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है। इस क्षेत्र की भूगर्भीय स्थिति ऐसी है कि यहां पहाड़ों की स्थिरता कमजोर है, और छोटी सी भी प्राकृतिक घटना भूस्खलन जैसी बड़ी आपदाओं को जन्म दे सकती है। इसके बावजूद, यहां भारी निर्माण कार्य किए गए हैं, जो कि इन प्राकृतिक आपदाओं के खतरे को और बढ़ाते हैं। केदारनाथ में किए गए सौंदर्यीकरण और सुरक्षा के नाम पर भारी निर्माण कार्यों ने इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर गहरा असर डाला है।

इसरो का जोखिम मानचित्र और उसका महत्व

2023 में इसरो ने देश के भूस्खलन-संवेदनशील 147 जिलों का एक जोखिम मानचित्र तैयार किया था। इस मानचित्र में उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले को सबसे अधिक संवेदनशील माना गया था, जो कि केदारनाथ आपदा का केंद्र रहा है। इसके अलावा, इसरो के मानचित्र में उत्तराखंड के टिहरी जिले को भी उच्च जोखिम वाले क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया गया था। 26 और 27 जुलाई 2024 को टिहरी जिले में भारी भूस्खलन हुआ, जिससे तिनगढ़ गांव तबाह हो गया। इसरो का यह मानचित्र बताता है कि इन क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बहुत अधिक है, और हमें इन चेतावनियों को गंभीरता से लेना चाहिए।

अर्ली वार्निंग सिस्टम की कमी

वर्ष 2013 की आपदा के बाद, केदारनाथ में डॉप्लर राडार स्थापित करने की योजना बनाई गई थी, जिससे मौसम का सटीक पूर्वानुमान मिल सके और ऐसी आपदाओं से बचने के लिए पहले से तैयारी की जा सके। डॉप्लर राडार एक ऐसी तकनीक है जो हवा में नमी और बारिश के पैटर्न का सटीक अनुमान लगाकर संभावित खतरों की जानकारी देती है। लेकिन, एक दशक बीत जाने के बावजूद, यह प्रणाली केदारनाथ क्षेत्र में स्थापित नहीं हो सकी। अगर यह प्रणाली 31 जुलाई 2024 को सक्रिय होती, तो बादल फटने जैसी स्थिति से निपटने में प्रशासन को अधिक सफलता मिल सकती थी।

पर्यावरणीय चेतावनियों की अनदेखी

भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग, उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, और गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिकों ने केदारनाथ क्षेत्र की पारिस्थितिकी को ध्यान में रखते हुए वहां भारी निर्माण की मनाही की थी। इसके बावजूद, वहां बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य किए गए। वर्ष 2013 की आपदा में चोराबाड़ी ग्लेशियर पर बादल फटने और ग्लेशियर झील के टूटने की घटनाओं की अनदेखी की गई, जो कि जलवायु परिवर्तन के स्पष्ट संकेत थे। इस बार भी, वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की चेतावनियों को नजरअंदाज किया गया, जिससे इस आपदा की पुनरावृत्ति हुई।

जलवायु परिवर्तन और आपदाओं की बढ़ती घटनाएँ

केदारनाथ घाटी और उत्तराखंड का पूरा क्षेत्र हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। पिछले कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण बादल फटना, असामान्य बारिश, और बर्फ पिघलने जैसी घटनाओं में वृद्धि देखी गई है। 2013 की आपदा में भी, ग्लेशियर के ऊपर स्थित बादलों ने बर्फ के बजाय भारी बारिश की, जो कि एक असामान्य घटना थी और जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत था। इस प्रकार की घटनाओं से हिमालयी क्षेत्रों में आपदाओं का खतरा लगातार बढ़ रहा है।

यात्री सीमा और पर्यटन का दबाव

2018 में सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ क्षेत्र की सीमित धारण क्षमता को ध्यान में रखते हुए वहां प्रतिदिन 5000 से कम यात्रियों की सीमा तय की थी। लेकिन, राजनीतिक दबावों और स्थानीय हितधारकों के प्रभाव में आकर सरकार ने इस सीमा को बढ़ाकर बदरीनाथ के लिए 20,000, केदारनाथ के लिए 18,000, गंगोत्री के लिए 11,000, और यमुनोत्री के लिए 9,000 यात्रियों तक कर दिया। इससे आपदा का खतरा और बढ़ गया। इसके अलावा, अत्यधिक भीड़ और वाहनों की बढ़ती संख्या ने इन क्षेत्रों की पारिस्थितिकी पर और अधिक दबाव डाला है।

यातायात और वाहनों की बढ़ती संख्या

केदारनाथ और अन्य हिमालयी क्षेत्रों में वाहनों की बढ़ती संख्या भी एक बड़ी चिंता का विषय है। यह न केवल यातायात की समस्याएं पैदा कर रहा है, बल्कि इन क्षेत्रों की पारिस्थितिकी पर भी गहरा असर डाल रहा है। अति संवेदनशील गोमुख क्षेत्र में भी इस साल अब तक 6,309 यात्री पहुंचे हैं, जिनमें से ज्यादातर कांवड़िये थे। इस तरह की यात्राओं से स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर अत्यधिक दबाव पड़ रहा है, जो इन क्षेत्रों में आपदाओं के खतरे को और बढ़ा रहा है।

निष्कर्ष

पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों की चेतावनियों को नजरअंदाज करने से केदारनाथ और अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में आपदाओं का खतरा बढ़ता जा रहा है। विकास की जरूरतों को पूरा करना आवश्यक है, लेकिन इसके लिए प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। अगर हमने अभी भी प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी, तो भविष्य में और भी भयंकर आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है। हमें यह समझना होगा कि प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की अनदेखी से हम अपने ही नागरिकों को संकट में डाल रहे हैं। इसके लिए सतर्कता और जिम्मेदारी से कदम उठाने की जरूरत है, ताकि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित कर सकें और आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित और स्थिर पर्यावरण प्रदान कर सकें।

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