यह लेख “The Hindu” में प्रकाशित “Healing Manipur: on Manipur and President’s Rule” पर आधारित है, इस लेख में मणिपुर की जटिल जातीय-सामाजिक संरचना, राजनीतिक चुप्पी और राष्ट्रपति शासन के संवैधानिक प्रयोग का संतुलित विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
मणिपुर में प्रशासनिक विफलता और लोकतांत्रिक समाधान की आवश्यकता
(Administrative Failure and the Need for Democratic Solutions in Manipur)
राष्ट्रपति शासन और उसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
1990 के दशक तक राष्ट्रपति शासन (Article 356) का उपयोग राजनीतिक हथियार के रूप में किया जाता था, लेकिन 1994 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक ‘एस.आर. बोम्मई’ निर्णय के बाद इसके दुरुपयोग पर रोक लगी। इस फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया कि केंद्र सरकार केवल वास्तविक संवैधानिक संकट की स्थिति में ही राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है। तब से राष्ट्रपति शासन का प्रयोग सीमित और संवैधानिक मर्यादाओं के भीतर किया गया है, और यह अब केवल गंभीर आंतरिक सुरक्षा संकट या प्रशासनिक विफलता की स्थिति में ही लागू होता है।
मणिपुर में राष्ट्रपति शासन का विस्तार और वर्तमान स्थिति
13 अगस्त 2024 को मणिपुर में राष्ट्रपति शासन को छह महीने के लिए पुनः बढ़ा दिया गया, जो कि मई 2023 से चल रहे जातीय संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता के चलते लागू किया गया था। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के इस्तीफे और भाजपा सरकार के पतन के बाद राज्य में एक कमजोर लेकिन स्पष्ट शांति का माहौल बना। कई उग्रवादी संगठनों पर की गई कार्रवाई के कारण हिंसा में गिरावट आई और कुछ विस्थापित परिवार अपने घर लौटने लगे। हालाँकि, यह स्थायीत्व अभी भी सतही है।
जातीय संघर्ष: कुकी-जो बनाम मैतेई समुदाय
मणिपुर की सबसे गंभीर चुनौती इसकी गहरी और असुलझी जातीय खाई है। कुकी-जो समुदाय एक पृथक प्रशासन की मांग कर रहा है, जबकि कट्टरपंथी मैतेई संगठन उन्हें ‘बाहरी’ मानते हैं। इससे राज्य के भौगोलिक और सामाजिक ताने-बाने में कठोर विभाजन हुआ है। राज्य के विभिन्न हिस्सों को अब ‘बफर ज़ोन’ द्वारा अलग किया गया है, जिससे दोनों समुदायों के बीच संवाद लगभग टूट चुका है। यह विभाजन केवल सामाजिक नहीं, बल्कि राजनीतिक भी बन गया है।
प्रशासनिक कार्रवाई और इसकी सीमाएँ
सरकार द्वारा उग्रवादी गुटों के शस्त्रीकरण को खत्म करने और उन्हें निष्क्रिय करने के लिए किए गए प्रयास स्वागतयोग्य हैं। इससे दण्डमुक्ति की संस्कृति को चुनौती मिली है और उदार सोच वाले नागरिकों को शांति की मांग करने का आत्मबल प्राप्त हुआ है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि केवल प्रशासनिक कदम पर्याप्त नहीं होंगे। एन. बीरेन सिंह के कार्यकाल में जब कुछ नागरिक संगठनों ने पक्षपातपूर्ण शासन की आलोचना की, तो उन्हें दमन का सामना करना पड़ा। अतः कानून-व्यवस्था की बहाली को राजनीतिक इच्छाशक्ति और समावेशी संवाद से पूरक बनाना आवश्यक है।
राजनीतिक विफलता और केंद्र सरकार की भूमिका
भाजपा को 2017 और 2022 में घाटी और पहाड़ी दोनों क्षेत्रों से समर्थन मिला, लेकिन पार्टी जातीय वैमनस्य को दूर करने में विफल रही। लेख स्पष्ट करता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व ने इस संकट को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया और समाधान की जिम्मेदारी प्रशासन और सुरक्षा बलों पर छोड़ दी। इससे राजनीतिक संवाद की संभावना समाप्त हो गई। राष्ट्रपति शासन के तहत यदि केवल हिंसा की अनुपस्थिति को ही सफलता माना जाएगा, तो यह समस्या का सतही समाधान होगा।
समाधान: समावेशी राजनीति और सामाजिक सुलह
मणिपुर की शांति केवल सरकारी कार्रवाई से नहीं आएगी। केंद्र सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह राजनीतिक संवाद को पुनः शुरू करे और सभी समुदायों के बीच भरोसा और संवाद की बहाली सुनिश्चित करे। इसके साथ-साथ राजनीतिक दलों और सिविल सोसायटी समूहों को कट्टरपंथियों की मानसिकता को चुनौती देकर सुलह की प्रक्रिया में भाग लेना होगा। केवल ऐसे प्रतिबद्ध राजनीतिक प्रयासों से ही एक “शांतिपूर्ण और समावेशी मणिपुर” का निर्माण संभव है।
निष्कर्ष
यह लेख मणिपुर संकट की जटिलताओं को प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोणों से विश्लेषित करता है। इसमें बताया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 356 का उपयोग अंतिम उपाय के रूप में किया जाना चाहिए, और शासन की सफलता हिंसा की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण पुनर्निर्माण से मापी जानी चाहिए।
परीक्षा दृष्टिकोण से मुख्य बिंदु (Key Points from Exam Point of View)
- राष्ट्रपति शासन का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य : – 1990 के दशक से पहले राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) का दुरुपयोग अक्सर राजनीतिक कारणों से किया जाता था, लेकिन S.R. Bommai केस (1994) के बाद इसकी न्यायिक समीक्षा और सख्त मानदंड निर्धारित हुए। यह संघवाद और राज्यों की स्वायत्तता की रक्षा की दिशा में मील का पत्थर है।
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मणिपुर में राष्ट्रपति शासन का औचित्य : – वर्तमान में मणिपुर में राष्ट्रपति शासन की अवधि को 13 अगस्त 2024 से छह माह के लिए बढ़ा दिया गया है। यह कदम राज्य में चल रहे जातीय संघर्ष (Kuki-Zo बनाम Meitei समुदाय) और संविधानिक शून्यता के कारण लिया गया है।
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जातीय संघर्ष की पृष्ठभूमि : – मणिपुर में कुकी-जो (Kuki-Zo) और मैतेई (Meitei) समुदायों के बीच लंबे समय से सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक मतभेद रहे हैं। 2023 के जातीय दंगों के बाद हालात बिगड़े और कई परिवार विस्थापित हुए, हिंसा फैली।
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प्रशासनिक प्रयास और परिणाम : – केंद्र सरकार द्वारा उग्रवादी संगठनों के विरुद्ध कार्रवाई और डि-वेपनाइजेशन (De-weaponisation) जैसे कदम उठाए गए, जिससे खुली हिंसा में कमी आई और कुछ विस्थापित लोग वापस लौटने लगे। फिर भी सामुदायिक विभाजन अब भी गहरा है।
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राजनीतिक पहल की कमी : – केंद्र और भाजपा नेतृत्व ने इस संकट को प्रशासनिक स्तर पर छोड़ दिया, जबकि राजनीतिक संवाद और पहल की सख्त आवश्यकता थी। न. बीरेन सिंह (N. Biren Singh) के इस्तीफे के बाद सरकार गिर गई, लेकिन राजनीतिक वैक्यूम अब भी बना हुआ है।
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संवैधानिक और लोकतांत्रिक दायित्व : – राष्ट्रपति शासन केवल अस्थायी समाधान हो सकता है, लेकिन स्थायी समाधान राजनीतिक इच्छाशक्ति, संवाद और सामाजिक सुलह (reconciliation) से ही संभव है। संविधान (अनुच्छेद 355 और 356) केंद्र को हस्तक्षेप की अनुमति देता है, परंतु यह स्थायी समाधान नहीं है।
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नागरिक समाज की भूमिका : – सिविल सोसायटी संगठनों और मध्यमार्गी नेताओं की आवाज को दबाया गया, जो शांति और निष्पक्षता की बात कर रहे थे। अब आवश्यकता है कि सभी वर्गों को संवाद में शामिल किया जाए और कट्टरपंथी विचारधाराओं को चुनौती दी जाए।
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