खरवार जनजाति (Kharwar Tribe)
निवास क्षेत्र
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में खरवार जनजाति निवास करती है। इनका मूल क्षेत्र बिहार का पलामू और अठारह हजारी क्षेत्र है। खरवार 11वीं एवं 12वीं शताब्दी में अपने पूर्ण वैभव को प्राप्त थे। इनका पतन मिर्जापुर के दक्षिणी भाग में चन्देल राजाओं द्वारा सन् 1203 ई० में किये गये आक्रमणों के उपरान्त हुआ।
उत्पत्ति
खरवार आरम्भ में एक शिकारी जनजाति थी। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि खरवार कत्थे का व्यापार करते थे जबकि, कुछ लोग इन्हें बिहार में सोन घाटी क्षेत्र का शासक मानते हैं। वर्तमान में इस जाति के लोगों की आर्थिक दशा काफी खराब है। इस कारण इन्हें जनजातियों की श्रेणी में शामिल कर लिया गया है। इनकी उपजातियों में सूरजवंशी, पटबन्दी, दौलतबन्दी, खेरी, राउत, मौगती, मोझयाली, गो आर्मिया आदि हैं। ये शरीर में खूखार व बलिष्ठ होते हैं। इनकी स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति हिम्मती एवं बहादुर होती हैं।
भाषा तथा बोली
विभिन्न स्थानों पर रहने वाले खरवारों की भाषा व बोली पर स्थानीयता का प्रभाव परिलक्षित होता है। इनकी वाणी में कर्कशता अधिक देखी जाती है तथा किसी शब्द का उच्चारण खींच कर करते है। प्रमुख रूप से खरवार जनजाति के लोग अनुनासिक ध्वनियों का प्रयोग अधिक करते हैं जिसमें ‘रे’, ‘तोर’, ‘मोर’, ‘केकर’, ‘ओकर आदि शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है।
वेशभूषा
खरवार जाति के लोग साधारणतः टेहुन तक धोती, बंडी एवं सिर पर पगड़ी पहनते हैं तथा स्त्रियाँ साड़ी पहनती हैं। इनके आभूषणों में हैकल, हँसुली, बाजूबन्द, कड़ा, नथिनी, बरेखा, गुरिया या नँगा की माला आदि मुख्य हैं।
धर्म
खरवार जनजाति मुख्यतः हिन्दू धर्म के रीति रिवाजों का पालन करती है। ये लोग बघउस, घमसान, वनसन्ती, दूल्हादेव, गोरइया, शिव, दुर्गा, हनुमान आदि देवी देवताओं के अलावा वृक्षों में सेमल, पीपल, नीम तथा जन्तुओं में नाग, बिच्छू आदि की पूजा करते हैं। इनकी स्त्रियाँ टोना करने में बड़ी दक्ष होती हैं।
पर्व
खरवार जीवितपुत्रिका (जिउतिया), अनन्त चतुर्दशी, नवरात्रि, होली आदि पर्व हर्षोल्लास से मनाते हैं तथा इन पर्वो पर नाचते-गाते एवं करमा का आयोजन करते हैं। इन अवसरों पर मदिरापान भी विशेष रूप से किया जाता है।
भोजन
खरवार जनजाति के लोग माँसाहारी और शाकाहारी दोनों प्रकार के होते हैं। मुख्यतः गेहूँ व चावल का प्रयोग भोजन में करते हैं, लेकिन उत्सवों के अवसर पर पशुओं का माँस खाते हैं तथा मदिरापान भी करते हैं। शेर, भालू, चीता, सूअर आदि का शिकार कर माँस खाते हैं।
अर्थव्यवस्था
प्रारम्भ में खरवार जनजाति के लोग जंगलों पर आश्रित थे, लेकिन प्रदेश सरकार की वनों की विशेष सुरक्षा की नीति के कारण अब इनके लिए वनों की लकड़ी काटना निषेध कर दिया गया है। अब ये लोग जंगल में दातून, पत्ता, लकड़ी तक नहीं काट पाते हैं। वर्तमान में न तो इनके पास कृषि भूमि है और न ही कोई उद्योग-धन्धा, अतः इन्हें मजबूर होकर भिक्षाटन के लिए निकलना पड़ता है। कुछ स्थानों पर इन्हें बंधुआ मजदूरों का भी जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। फलस्वरूप इनमें शिक्षा भी नाममात्र को ही पायी जाती है, क्योंकि अपनी गरीबी के कारण ये अपने बच्चों को विद्यालयों में भेज ही नहीं पाते हैं। इनके बच्चे गाय-बैल चराने, बीडी-पत्ता तोड़ने एवं लकड़ी काटने का काम करते हैं। सदियों से शोषित रहने के कारण खरवार जनजाति की आर्थिक दशा और भी दयनीय हो गयी है। सरकार इनके आर्थिक स्तर को सुधारने के लिए निरन्तर प्रयास कर रही है।
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