यह आंदोलन बिरसा आंदोलन से ही जनमा था। यह भी एक बहुआयामी आंदोलन था, क्योंकि इसके नायक भी अपनी सामाजिक अस्मिता, धार्मिक परंपरा और मानवीय अधिकारों के मुद्दों को लेकर आगे आए थे। यह आंदोलन सन् 1914 में शुरू हुआ। टाना भगत कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि उराँव जनजाति की एक शाखा थी, जिसने कुडुख धर्म अपनाया था। इन लोगों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी और इनसे अधिकांशतः श्रमवाले कार्य ही कराए जाते थे।
सुबह से शाम तक भवन, सड़क आदि के निर्माण कार्यों के लिए ये लोग ईंट, पत्थर ढोते रहते और मजदूरी के नाम पर इन्हें कुछ विशेष नहीं मिलता था। एक प्रकार से इन्हें खच्चरों की भाँति प्रयोग किया जाता था। इस आंदोलन के नायक के नाम पर ‘जतरा भगत’ नामक नौजवान को मान्यता मिली थी, जो अलौकिक सिद्धियों में रत रहता था। जनश्रुति के आधार पर इसी जतरा भगत को ‘धर्मेश’ नामक उराँव देवता ने दर्शन दिए थे और उसे कुछ निर्देश देकर इस आंदोलन को शुरू करने की आज्ञा दी थी।
जतरा भगत ने ‘धर्मेश’ देवता का आदेश पाकर भूत-प्रेत की साधना का कार्य छोड़ दिया और निरामिष हो गया। उसने लोगों को अंधविश्वास में आस्था रखने से मना किया और आचरण में सात्त्विकता लाने का संदेश दिया, साथ ही उसने बेगार या कम मजदूरी पर काम करनेवालों को ऐसा काम न करने का आदेश दिया। लोगों में जल्दी ही वह बहुत लोकप्रिय हो गया और लोग उसकी प्रत्येक बात को आत्मसात् करने लगे। इससे अंग्रेज घबरा गए और उन्होंने जतरा भगत को गिरफ्तार कर लिया। इससे उराँव लोगों में रोष फैल गया। अंग्रेज इस आंदोलन से संबंधित सभी लोगों को गिरफ्तार करने में जुट गए। परिणाम यह हुआ कि हिंसा भड़क उठी और एक सामाजिक जनजागरण व्याप्त हो गया। अंग्रेजों ने बड़ी क्रूरता से इस आंदोलन को दबा दिया, फिर भी यह आंदोलन सामाजिक चेतना जगाने में सफल रहा।
इस प्रकार अंग्रेज सरकार के विरुद्ध हुए जनजातीय विद्रोहों ने कुछ हद तक बिहार के दबे-कुचले लोगों को उनके अधिकार दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन आंदोलनों में आक्रामकता, बर्बरता, आक्रोश, शक्ति संगठन और नीतिगत कारण जैसे वे सभी तत्त्व मौजूद थे, जो विद्रोह को जन्म देते हैं। बिहार की तत्कालीन स्थिति दयनीय थी और विडंबना यह थी कि प्राकृतिक रूप से संपन्न इस क्षेत्र का शोषण और दोहन करने पहुँचे बाहरी लोगों ने यहाँ की मूल जनजातियों को लगभग बेदखल ही कर दिया था। शिक्षा से दूर और सुविधाओं से वंचित यह जनजातीय समाज शांतिपूर्वक अपना जीवन निर्वाह कर रहा था। उनके अपने पर्वो, रीतियों और अपने सामाजिक ताने-बाने में ही उनके लिए सभी खुशियाँ थीं। लगभग 300 वर्ष अस्थिरता, अराजकता, शोषण, दमन, अपमान और निर्धनता के साए में रहकर भी इन जनजातियों ने अपने अस्तित्व को बचाए रखा तो यह उनकी जिजीविषा ही है। इतने पर भी बिहार के लोगों ने देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया। इन लोगों ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अतुलनीय योगदान दिया, जिसे विस्मृत नहीं किया जा सकता।
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