यह लेख “Live Mint” में प्रकाशित “Global climate policies have barely moved the needle” पर आधारित है, इस लेख में बताया गया है की दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पिछले दो दशकों में कई नीतियाँ लागू की गई हैं, लेकिन इनके प्रभाव अत्यधिक निराशाजनक रहे हैं। एक नई अध्ययन रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि लगभग 1,500 जलवायु नीतियों में से केवल 4% ने ही उत्सर्जन में कोई महत्वपूर्ण कमी लाई है। 2000 से 2020 के बीच, चीन, अमेरिका और भारत जैसे बड़े उत्सर्जक देशों में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन में कुल 0.6 से 1.8 गीगाटन की ही कमी देखी गई, जबकि कुल उत्सर्जन 778 गीगाटन रहा। यह मात्र 0.08 – 0.23% की कमी को दर्शाता है। यह अध्ययन स्टेकमेसर एट अल (2024) द्वारा किया गया है, जिसमें 41 देशों के 1,500 नीतियों का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। आइए, इस अध्ययन के प्रमुख बिंदुओं पर विस्तृत चर्चा करते हैं।
जलवायु नीतियों के निष्कर्ष और प्रभाव
1. नीति मिश्रण की प्रभावशीलता
अध्ययन का एक प्रमुख निष्कर्ष यह है कि जब नीतियों का संयोजन किया जाता है, तो उत्सर्जन में अधिक कमी देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए, कार्बन कर और उत्सर्जन व्यापार योजनाओं (ETS) जैसे कार्बन मूल्य निर्धारण तंत्र को जब नवीकरणीय ऊर्जा मानक, भवन कोड, और प्रौद्योगिकी प्रतिबंधों जैसे नियामक उपकरणों के साथ जोड़ा गया, तो उत्सर्जन में अधिक प्रभावी कमी देखी गई। यह निष्कर्ष 2008 में गूल्डर और पैरी द्वारा किए गए अध्ययनों के साथ मेल खाता है, जिसमें उन्होंने बताया था कि कार्बन मूल्य निर्धारण और नियामक ढांचे का तालमेल बाजार की विफलताओं, जैसे कि सूचना विषमता और ‘रीबाउंड प्रभाव’ को कम करने में सहायक होता है।
2. विकसित और विकासशील देशों में नीतियों की प्रभावशीलता
अध्ययन में पाया गया कि विकसित देशों में कार्बन मूल्य निर्धारण नीतियाँ सबसे अधिक प्रभावी रहीं। उद्योग क्षेत्र में, अकेले कार्बन मूल्य निर्धारण नीतियों से कुछ विकसित देशों में उत्सर्जन में 43% तक की कमी आई। उदाहरणस्वरूप, स्वीडन के कार्बन कर ने औद्योगिक उत्सर्जन में काफी कमी लाई बिना देश की प्रतिस्पर्धात्मकता को प्रभावित किए। वहीं, 2013 में ब्रिटेन द्वारा कार्बन मूल्य आधार के साथ यूरोपीय संघ की ETS को मिलाकर लागू की गई नीति ने बिजली क्षेत्र में उत्सर्जन में 2016 तक 25% से अधिक की कमी लाई।
हालांकि, विकासशील देशों में नियामक उपाय, जैसे कि सब्सिडी और ऊर्जा दक्षता निर्देश, अधिक प्रभावी साबित हुए। इस अध्ययन के अनुसार, विकासशील देशों में कार्बन मूल्य निर्धारण की सीमित सफलता के पीछे संरचनात्मक चुनौतियाँ हैं, जैसे कि ऊर्जा बाजार में विकृतियाँ, जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी, और नियामक क्षमता की कमी। इस परिप्रेक्ष्य में, फानकाउसर और स्टर्न (2019) के अध्ययन का समर्थन किया गया है, जिन्होंने तर्क दिया कि विकासशील देशों में नियामक हस्तक्षेप अधिक समय-संगत और प्रभावी होते हैं।
3. एकल नीतियों का प्रदर्शन
स्टैंडअलोन नीतियाँ, विशेष रूप से नियामक उपाय और सब्सिडी, जब अकेले लागू किए गए, तो उन्होंने औसतन 13-15% उत्सर्जन में कमी की। यह परिणाम उस उच्च प्रभावशीलता के विपरीत है जो नीति मिश्रण में देखी गई थी। उदाहरणस्वरूप, जीवाश्म ईंधन सब्सिडी सुधार और भवन तथा परिवहन क्षेत्रों में चरणबद्ध तरीके से नीति लागू करने से 30-32% तक उत्सर्जन में कमी आई। यह निष्कर्ष इस ओर इशारा करता है कि नीति मिश्रण नीतियों को लागू करने की प्रभावशीलता को बढ़ा सकता है, जबकि एकल नीतियाँ अपेक्षाकृत कम सफल साबित होती हैं।
डेटा और क्षेत्रीय असंतुलन की चुनौतियाँ
अध्ययन में यह भी बताया गया है कि कुछ विकासशील क्षेत्रों, विशेषकर अफ्रीका और एशिया में, उत्सर्जन डेटा की अनुपलब्धता नीतियों की प्रभावशीलता का आकलन करने में बाधा उत्पन्न कर रही है। साथ ही, नीति समन्वय की कमी और अपर्याप्त सख्ती के कारण कुछ क्षेत्रों में नीतियों का प्रदर्शन खराब रहा है। विशेषकर जब कार्बन मूल्य निर्धारण और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी सुधार एक साथ लागू किए गए, तो समुचित समन्वय न होने के कारण निवेशकों और उपभोक्ताओं को विरोधाभासी संकेत मिले, जिससे नीतियों का प्रभाव कमजोर हो गया।
वैश्विक उत्सर्जन गैप का आकलन
स्टेकमेसर एट अल का यह अध्ययन वैश्विक उत्सर्जन गैप की मात्रात्मक समझ प्रदान करता है। यहाँ तक कि जिन नीतियों को इस विश्लेषण में सबसे बड़ी सफलता के रूप में पहचाना गया, वे भी सभी 41 देशों में लागू की जाने पर केवल 26% उत्सर्जन गैप को ही कम कर पाएंगी, अगर उनका औसत प्रभाव हो, और 41% तक अगर वे अपनी सर्वोच्च क्षमता पर काम करें।
भारत के लिए नीति सुझाव
इस अध्ययन के भारत के लिए भी विशेष सुझाव हैं। एक तेजी से बढ़ती हुई ऊर्जा खपत वाली विकासशील अर्थव्यवस्था होने के नाते, भारत के सामने आर्थिक विकास और जलवायु प्रतिबद्धताओं के बीच संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है। भारत ने अक्षय ऊर्जा अपनाने को प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी और दक्षता निर्देशों पर निर्भर किया है, लेकिन विकासशील देशों में कार्बन मूल्य निर्धारण की सीमित सफलता यह दर्शाती है कि भारत को अपने नियामक ढांचे को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
भारत के 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ईंधन क्षमता प्राप्त करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सब्सिडी, नियामक निर्देश, और सार्वजनिक निवेश के मिश्रण की आवश्यकता होगी। इसके साथ ही, नीति समन्वय, सख्त प्रवर्तन, और मजबूत डेटा संग्रह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण होगा ताकि नीति असंगति और विरोधाभासी बाजार संकेतों से बचा जा सके। साथ ही, भारत को अपने संस्थागत ढांचे को मजबूत करना होगा ताकि कार्बन मूल्य निर्धारण जैसी बाजार आधारित नीतियों को भविष्य में सफलतापूर्वक लागू किया जा सके।
निष्कर्ष
अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि जलवायु नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए नीति मिश्रण, कार्बन मूल्य निर्धारण और नियामक हस्तक्षेपों का तालमेल सबसे अधिक प्रभावी साबित होता है। विकासशील देशों में विशेष रूप से, नियामक उपाय अधिक प्रभावी होते हैं, जबकि विकसित देशों में कार्बन मूल्य निर्धारण नीतियाँ प्रमुख भूमिका निभाती हैं। भारत जैसे देशों के लिए, नियामक ढांचे को मजबूत करना और दीर्घकालिक नीति तालमेल सुनिश्चित करना अत्यंत महत्वपूर्ण होगा ताकि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में कारगर योगदान दिया जा सके।
Read More |
---|