Lateral Entry and its Controversy Debate on Lateral Entry in Bureaucracy

लेटरल एंट्री और उसका विवाद

लेटरल एंट्री (Lateral Entry) सरकारी नौकरियों में निजी क्षेत्र से विशेषज्ञों की सीधी भर्ती की एक प्रक्रिया है, जिसमें उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) जैसी परीक्षा देने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रक्रिया में, ऐसे अनुभवी और विशेषज्ञ व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता है जो सरकारी विभागों में मिड और सीनियर लेवल पर काम कर सकते हैं। लेटरल एंट्री के तहत नियुक्तियां आमतौर पर तीन से पांच साल के अनुबंध पर की जाती हैं।

लेटरल एंट्री की शुरुआत और उसका उद्देश्य

लेटरल एंट्री की अवधारणा सबसे पहले कांग्रेस सरकार के समय 2005 में सामने आई थी, जब वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने इसे प्रस्तावित किया था। इसका मुख्य उद्देश्य सरकारी विभागों में विशेषज्ञता की कमी को दूर करना और बाहरी विशेषज्ञों की सेवाओं का लाभ उठाना था। 2017 में, नीति आयोग ने भी अपने तीन साल के एजेंडे में इस योजना को शामिल किया और 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार ने पहली बार लेटरल एंट्री के लिए आवेदन आमंत्रित किए। इस समय से अब तक कुल 63 नियुक्तियां लेटरल एंट्री के जरिए की जा चुकी हैं, जिनमें से 57 वर्तमान में विभिन्न मंत्रालयों और विभागों में कार्यरत हैं।

लेटरल एंट्री पर विवाद और विरोध

हाल ही में UPSC द्वारा 45 वरिष्ठ पदों पर लेटरल एंट्री के लिए विज्ञापन प्रकाशित किया गया था, जो विवाद का कारण बना। इस विज्ञापन में ज्वाइंट सेक्रेटरी, डायरेक्टर और डिप्टी डायरेक्टर जैसे पदों के लिए आवेदन मांगे गए थे। विपक्ष के नेताओं ने आरोप लगाया कि लेटरल एंट्री के जरिए अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) के अधिकारों का हनन किया जा रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे SC, ST, और OBC का हक मारने वाला कदम बताया, जबकि अखिलेश यादव, मायावती, और मल्लिकार्जुन खरगे जैसे अन्य विपक्षी नेताओं ने भी इस पर आपत्ति जताई।

लेटरल एंट्री पर विवाद का मुख्य कारण यह था कि इन पदों पर आरक्षण लागू नहीं किया जा रहा था, क्योंकि ये “सिंगल पोस्ट” थे। यानी हर पद के लिए केवल एक ही सीट थी, जिसमें आरक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। विपक्षी दलों का आरोप था कि इससे दलित, पिछड़े और वंचित वर्गों को नुकसान होगा और सरकार अपने समर्थकों को नौकरियों में भर्ती करने का प्रयास कर रही है।

सरकार की प्रतिक्रिया और निर्णय

इस विवाद के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी और कार्मिक विभाग के मंत्री जितेंद्र सिंह ने UPSC की चेयरमैन प्रीति सूदन को पत्र लिखकर इस विज्ञापन को रद्द करने का अनुरोध किया। सरकार का कहना था कि सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए इस निर्णय को लिया गया है। इसके साथ ही, शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने भी UPSC से इस संबंध में विज्ञापन हटा लेने को कहा।

हालांकि, लेटरल एंट्री के समर्थन में कुछ नेताओं ने भी आवाज उठाई। कांग्रेस के नेता शशि थरूर ने कहा कि लेटरल एंट्री से विशेषज्ञता प्राप्त करने का अवसर मिलता है, जो अन्यथा संभव नहीं हो पाता। उन्होंने इसे सरकारी विभागों में सुधार के लिए आवश्यक बताया।

लेटरल एंट्री के समर्थन और विरोध के बीच

लेटरल एंट्री की प्रक्रिया में विशेषज्ञों की नियुक्ति का उद्देश्य यह था कि सरकार को निजी क्षेत्र, विश्वविद्यालयों, और शोध संस्थानों से अनुभवी और ज्ञानवान व्यक्तियों की सेवाएं मिल सकें। यह व्यवस्था विशेष रूप से उन विभागों के लिए महत्वपूर्ण मानी गई, जहां विशिष्ट विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, जैसे कि आर्थिक, स्वास्थ्य, और तकनीकी क्षेत्रों में। लेकिन राजनीतिक दलों के बीच इस पर आम सहमति नहीं बन सकी।

लेटरल एंट्री का विचार नया नहीं है, लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में यह एक विवादित मुद्दा बन गया है। विपक्ष इसे वंचित वर्गों के हकों के खिलाफ एक साजिश मानता है, जबकि सरकार इसे सुधार का एक महत्वपूर्ण कदम मानती है। अंततः, प्रधानमंत्री मोदी के हस्तक्षेप के बाद इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी गई है, लेकिन यह बहस अभी समाप्त नहीं हुई है।

निष्कर्ष

लेटरल एंट्री के जरिए नौकरियों में निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की सीधी भर्ती की प्रक्रिया में कई सकारात्मक और नकारात्मक पहलू हैं। जहां एक ओर यह सरकारी विभागों में विशेषज्ञता की कमी को दूर करने में सहायक हो सकती है, वहीं दूसरी ओर इसका दुरुपयोग वंचित वर्गों के अधिकारों का हनन कर सकता है। इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा और सावधानीपूर्वक निर्णय लेने की आवश्यकता है ताकि समाज के सभी वर्गों के हितों का संरक्षण हो सके।

 

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