सुप्रीम कोर्ट का दलितों और आदिवासियों के वर्गीकरण पर फैसला: भारतीय समाज और राजनीति में बदलाव की दिशा
भारत के संविधान निर्माताओं ने समाज को दो मुख्य वर्गों—पिछड़े और अगड़े—में विभाजित किया था। इसके बाद, पिछड़े वर्ग को तीन हिस्सों में बांटा गया: अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)। इसी विभाजन के आधार पर हमारे चुनावी गोलबंदी की संरचना तैयार हुई और आरक्षण के माध्यम से यह तय होना शुरू हुआ कि राज्य के संसाधनों पर किसका कितना अधिकार होगा। लेकिन इस संवैधानिक नक्शे में संशोधन की कोशिशें हुईं, जिनमें से कोई भी कानूनी दृष्टि से सफल नहीं हो पाई।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला और वर्गीकरण
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा महत्वपूर्ण फैसला दिया है जो दलितों और आदिवासियों के वर्गीकरण को कानूनी मान्यता देता है। इस फैसले का प्रभाव केवल एससी-एसटी तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि ओबीसी समुदाय पर भी इसका गहरा असर पड़ेगा। आने वाले 10 से 15 सालों में, देश की 60 से 70 प्रतिशत आबादी की राजनीतिक और सामाजिक पहचान पूरी तरह से बदल सकती है। हालाँकि, इस फैसले को गंभीर राजनीतिक और कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ सकता है।
बिहार और अन्य राज्यों में वर्गीकरण की प्रासंगिकता
बिहार में कर्पूरी ठाकुर के जमाने में मुंगेरी लाल कमीशन ने ओबीसी में नए समतामूलक वर्गीकरण का प्रस्ताव किया था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से मुंगेरी लाल कमीशन की प्रासंगिकता नए सिरे से समझी जा सकती है। इसके साथ ही, मंडल कमीशन की रिपोर्ट के साथ जुड़े आर.एल. नाइक की असहमति पर भी नए संदर्भ में विचार किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने ओबीसी को खेतिहर और कारीगर जातियों में बांटने का प्रस्ताव दिया था।
रोहिणी कमीशन और ईडब्ल्यूएस पर पुनर्विचार
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से EWS (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) पर पुनर्विचार की संभावना भी उत्पन्न हो सकती है। रोहिणी कमीशन के आंकड़े पहले ही ओबीसी के पुन: वर्गीकरण की जमीन तैयार कर चुके हैं, जो अब और भी प्रभावी लगेंगे।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का कानूनी और राजनीतिक प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब समेत कुछ राज्य सरकारों द्वारा एससी-एसटी श्रेणियों में वर्गीकरण की प्रक्रिया पर कानूनी मुहर लगाई है। यदि यह फैसला पहले आ गया होता, तो बिहार में महादलित श्रेणी में कुछ जातियां (जो कुल दलित समाज का 69% हैं) राजनीतिक दबाव के चलते नहीं घुस पातीं। इस फैसले के बाद, यूपी सरकार भी बसपा के मुख्य जाटव जनाधार के आरक्षण पर दबदबे को घटाकर दूसरी दलित जातियों को प्रमुखता दे सकती है।
भाजपा के लिए अनिश्चितताएं
भाजपा के लिए इस फैसले ने कई तरह की अनिश्चितताएं पैदा कर दी हैं। एक तरफ वह अतिदलित और अतिपिछड़ा वर्ग को नए आश्वासन देकर अपनी ओर खींच सकती है, जबकि दूसरी तरफ इसकी प्रतिक्रिया में ओबीसी श्रेणी की शक्तिशाली खेतिहर जातियां उसका साथ छोड़ सकती हैं।
जातिगत जनगणना की मांग
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद केंद्र और राज्य सरकारों को दलित-आदिवासी और ओबीसी श्रेणियों में उपश्रेणियां बनानी पड़ सकती हैं, जिससे जातिगत जनगणना की मांग बढ़ सकती है। इस फैसले ने जातिगत जनगणना की मांग पर अघोषित मुहर लगा दी है।
राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया
जातिगत जनगणना के सवाल पर भाजपा सतर्कता से कदम उठा रही है। जहां मजबूरी होती है, जैसे कि बिहार, वहां वह इसका समर्थन करती है, जबकि दूसरी ओर इसे समाज को तोड़ने वाला भी करार देती है। इसके विपरीत, कांग्रेस इस मुद्दे पर खुलकर समर्थन में है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय समाज और राजनीति के ताने-बाने को बदल सकता है। यह न केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए बल्कि अन्य पिछड़े वर्गों के लिए भी एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है। इसके चलते देश की राजनीतिक-सामाजिक पहचान में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है, जो आने वाले वर्षों में गहरे प्रभाव छोड़ सकता है।