Santhal Rebellion

संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion)

वीरभूम, ढालभूम, सिंहभूम, मानभूम और बाकुड़ा के जमींदारों द्वारा सताए गए संथाल 1790 ई. से ही संथाल परगना क्षेत्र, जिसे दामिन-ए-कोह कहा जाता था, में आकर बसने लगे। इन्हीं संथालों द्वारा किया गया यह विद्रोह झारखंड के इतिहास में सबसे अधिक चर्चित हुआ, क्योंकि इसने कंपनी और उसके समर्थित जमींदारों, सेवकों और अधिकारियों को बहुत बड़ी संख्या में जनहानि पहुँचाई थी।

विद्रोह के कारणों

इस प्रकार विद्रोह के कारणों में कृषक उत्पीड़न प्रमुख था। संथाल जनजाति भी कृषि और वनों पर निर्भर थी, लेकिन जमींदारी प्रथा ने इन्हें इनकी ही भूमि से बेदखल करना शुरू कर दिया था। अंग्रेज समर्थित जमींदार पूरी तरह से संथालों का शोषण कर रहे थे और साथ ही कंपनी ने कृषि करों को इतना अधिक कर दिया था कि संथाल लोग इसे चुकाने में अक्षम थे। इसके अतिरिक्त बाहरी लोगों के आवागमन ने इन संथालों को अपनी ही भूमि पर सिमटने को विवश और निर्धन कर दिया था। संथाल जीवननिर्वाह के लिए साहूकारों व जमींदारों के शोषणचक्र में फस रहे थे। ये लोग ऊँची ब्याज दर पर ऋण देते थे और फिर वसूली के नाम पर मानसिक एवं शारीरिक शोषण भी करते थे। न्याय-व्यवस्था भी इन्हीं संपन्न एवं समृद्ध शोषकों का साथ देती थी। इस उत्पीड़न जाल से बाहर निकलने का मार्ग संथालों के सामने न होने से ये लोग आत्महत्या कर रहे थे।

ऐसी विकट स्थिति में तो साधारण लोग ईश्वर के अवतार की ही कामना करते हैं। ईश्वर भी ऐसे लोगों की पुकार अनसुनी नहीं करता, तभी तो संथालों के ऐसे घोर उत्पीड़न का विरोध करते सिधू-कान्हू नामक दो जवान सामने आए। इन दोनों ने दिन-रात एक करके संथालों में विद्रोह का साहस भरा और उन्हें एकजुट होने के लिए प्रोत्साहित किया।

सन् 1855 में हजारों संथालों ने भोगनाडीह के चुन्नू माँझी के चार पुत्रों सिधू, कान्हू, चाँद तथा भैरव के नेतृत्व में एक सभा की, जिसमें उन्होंने अपने उत्पीड़कों के विरुद्ध लामबंद लड़ाई लड़ने की शपथ ली। सिधू-कान्हू ने लोगों में एक नई ऊर्जा व उत्साह भर दिया। उन्होंने एकजुट होकर अपनी भूमि से दीकुओं को चले जाने की चेतावनी दी। इन दीकुओं में अंग्रेज और उनके समर्थित कर्मचारी, अधिकारी तथा जमींदार आदि थे। सरकारी आज्ञा न मानने, दामिन क्षेत्र में अपनी सरकार स्थापित करने और लगान न देने की घोषणा की गई। इसी बीच दरोगा महेशलाल दत्त की हत्या कर दी गई। चेतावनी देने के दो दिन बाद संथालों ने अपने शोषकों को चुन-चुनकर मारना शुरू कर दिया। अंबर के जमींदार की हवेली जला दी गई। महेशपुर राजमहल पर विद्रोहियों ने कब्जा करने का प्रयास किया। अधिकारी और जमींदार इनके मुख्य निशाने पर थे, फिर जो बाहरी व्यापारी थे, उनके मकान एवं दुकानों को तोड़ दिया गया। यह खुला सशस्त्र विद्रोह था, जो कहलगाँव से राजमहल तक फैल गया। यह विद्रोह 1856 में वीरभूम, बाँकुड़ा और हजारीबाग में भी फैल गया। यह देख कंपनी चिंतित हो गई और बातचीत के द्वारा संथालों को समझाने का प्रयास किया जाने लगा, लेकिन धैर्य की सीमा पार करके उपजा संथालों का आक्रोश कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। संथाल तो अपनी भूमि से अंग्रेजों और उनके समर्थकों को भगाने या समाप्त करने की शपथ ले चुके थे। अंग्रेजों के कार्यालयों को भस्म किया जाने लगा। जहाँ भी कोई अंग्रेज दिखाई देता, उसे वहीं ढेर कर दिया जाता। संथाल साक्षात् कालबन गए थे। दुर्दीत होकर उन्होंने अंग्रेज महिलाओं और बच्चों को भी मार डाला।

संथालों के हंगामे से अंग्रेजी प्रशासन में हड़कंप मच गया। कंपनी ने सेना को खुली छूट देकर इस विद्रोह को दबाने का आदेश दिया। अंग्रेजों ने भी संथालों के प्रति बहुत बर्बरता दिखाई और उनके गाँव-के-गाँव जला दिए। अंग्रेजी सेना संथालों के नेताओं की धरपकड़ में दिन-रात एक करने लगी और इसमें उसे सफलता भी मिली। अधिकांश विद्रोही नेता या तो मारे गए थे या फिर बंदी बना लिये गए थे। चाँद और भैरव गोलियों के शिकार हो वीरगति को प्राप्त हुए। सिद्धू और कान्हू पकड़े गए, उन्हें बरहेट में फाँसी दे दी गई। इस विद्रोह को फिर भी कुछ सफलता अवश्य मिली थी, क्योंकि संथालों ने अपने क्षेत्र से अधिकांश अंग्रेजों और उनके समर्थकों को या तो मार दिया था या भगा दिया था। जो शेष बचे भी थे, वे भी बहुत समय तक आतंक के साए में जीते रहे। इस विद्रोह के जनक सिधू-कान्हू वर्तमान झारखंड के लोगों के लिए पूजनीय हो गए और आज भी उन्हें झारखंड के जननायक के रूप में याद किया जाता है। सिधू-कान्हू की गाथाएँ आज भी झारखंड के लोगों के लिए ओज एवं शक्ति की प्रेरणास्रोत हैं।

जनवरी 1856 ई. तक संथाल परगना क्षेत्र में संथाल विद्रोह दबा दिया गया, लेकिन सरकार ने संथालों की वीरता और शौर्य को स्वीकार किया। सरकार को प्रशासनिक परिवर्तनों की अनिवार्यता स्वीकार करनी पड़ी।

इस संथाल विद्रोह के परिणामस्वरूप 30 नवंबर, 1856 ई. को विधिवत् संथाल परगना जिला की स्थापना की गई और एशली एडेन को प्रथम जिलाधीश बनाया गया।

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