Jain Dharm

जैन धर्म (Jainism)

जैन धर्म (Jainism)

छठी शताब्दी में गृहस्थ के लिए भी काफी लोकप्रिय हुआ था। जैन (Jain) परंपरा के अनुसार इस धर्म में 24 तीर्थकर हुए हैं। इनमें प्रथम ऋषभदेव (Rishabhdev) हैं, किंतु 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को छोड़कर पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।

वर्द्धमान महावीर (Vardhaman Mahaveer) का जन्म प्राचीन वज्जि गणतंत्र की राजधानी वैशाली के निकट कुण्डग्राम के ज्ञातृक कुल के प्रधान सिद्धार्थ के यहां 540 ई.पू. में हुआ था इनकी माता का नाम त्रिशला था, जो लिच्छवी राजकुमारी थी, तथा उनकी पत्नी का नाम यशोदा था। 

12 वर्ष तक लगातार कठोर तपस्या एवं साधना के बाद 42 वर्ष की अवस्था में महावीर को जुम्भिकग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे एक साल वृक्ष के नीचे कैवल्य (सर्वोच्च ज्ञान) प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उन्हें केवलिन (कैवल्य प्राप्त करने वाला), जिन (विजेता) अर्हत (योग्य) निग्रंथ (बन्धन रहित) कहा गया। अपनी साधना में अटल रहने के साथ अतुल पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें महावीर कहा गया। 

जैन धर्म के त्रिरत्न (Triratna of Jainism)

  • सम्यक् दर्शन : यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा की सम्यक दर्शन है। 
  • सम्यक् ज्ञान : सत्य व असत्य का अन्तर ही सम्यक् ज्ञान है। 
  • सम्यक चरित्र : अहितकार कार्यों का निषेध तथा हितकार कार्यों का आचरण ही सम्यक् चरित्र है।

पंच महाव्रत (Panch Mahavrata)

  • सत्य – इसके अंतर्गत मिथ्य वचन का परित्याग करना आवश्यक है। 
  • अहिंसा – जानबूझकर अथवा अनजाने में भी किसी प्रकार की हिंसा न करना। 
  • अस्तेय – इसके अंतर्गत अनुमति बिना किसी अन्य की वस्तु न ग्रहण करें और न ग्रहण करने की इच्छा ही करें। 
  • अपरिग्रह – इस व्रत के अनुसार भिक्षुओं को किसी भी प्रकार का संग्रह नहीं करना 
  • ब्रह्मचर्य – इस व्रत के अंतर्गत भिक्षु के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना अति आवश्यक है। 

पंच अणुव्रत (Panch Anuvrat)

जैन धर्म में गृहस्थ के लिए भी पंचमहाव्रत नियम ही प्रतिपादित किए गए हैं, यद्यपि इनकी कठोरता कम कर दी गई है, इसलिए इन्हें अणुव्रत की संज्ञा दी गई है।

 

जैन धर्म सिद्धांत (Doctrine of Jainism)

  • जैन धर्म के अनुयायी 24 तीर्थंकरों तथा उनके उपदेशों में विश्वास रखते हैं। वे इन्हें सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान मानते हैं।
  • जैन धर्म अनीश्वरवादी है। यह ईश्वर तथा वेदों की सत्ता में विश्वास नहीं रखता है। 
  • जैन अनुयायी अहिंसा में विश्वास करते हैं। 
  • जैन धर्म में कर्म को प्रधानता दी गई है। 
  • जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है। 
  • बौद्ध धर्म की भांति ‘निर्वाण’ ही जैन धर्म का चरम लक्ष्य है।

जैन सिद्धांत के अनुसार समस्त विश्व जीव तथा अजीव नामक दो स्वतंत्र तत्वों से मिलाकर बना है। जीव चेतन तत्व है जबकि अजीव जड़ तत्व है। यहां जीव से तात्पर्य उपनिषदों की सार्वभौम आत्मा से न होकर मनुष्य की व्यक्तिगत आत्मा से है। चैतन्य आत्मा का स्वाभाविक गुण है। सृष्टि के कण-कण में जीवों का वास है। 

कैवल्य (मोक्ष) मनुष्य के जीवन का चरम लक्ष्य है, कर्म बन्धन का कारण है जो जीव में प्रवेश करके उसे संसार की ओर खींच लेता है। वस्तुतः इस बंधन का कारण है जो जीव में प्रवेश करके उसे संसार की ओर आकर्षित कर लेता है। वस्तुतः इस बंधन का मूल कारण अज्ञान है। बंधन का मुक्ति हेतु त्रिरत्नों का अनुशीलता आवश्यक है। त्रिरत्नों के अनुशीलता से कर्म समाप्त हो जाते हैं तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। महावीर ने मोक्ष हेतु कठोर तपश्या एवं काया क्लेश पर बल दिया।

जैन तीर्थंकर उनके चिह्न तथा उनके शिष्य

तीर्थंकरप्रतीक चिन्हशिष्य
भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ)सांड या बैल पुंडरिकब्राह्मी
अजितनाथहाथी सिंहसेनाफल्गु
सम्भवनाथघोड़ा चारूश्यामा
अभिनन्दननाथबन्दर वज्रनाभाअजिता
सुमतिनाथचकवा या लाल हंसकाश्यपी
पद्मप्रभुकमल प्रद्योतनारति
सुपार्श्वनाथस्वस्तिक विदिर्भासोमा
चन्द्रप्रभुचन्द्रमा दिन्नासुमना
पुष्पदन्तमगरमच्छ वाराहकवारूणी
शीतलनाथकल्पवृक्षसुजसा
श्रेयान्सनाथगैंडा कश्यपधरणी
वासुपुज्यभैंस सुभूमाधरणी
विमलनाथसूअर मंडराधारा
अनन्तनाथसाही जसपद्मा
धर्मनाथवज्रदण्ड अरिष्टअर्थशिवा
शांतिनाथहिरण चक्रयुद्धसूची
कुन्थुनाथबकरी संबादामिनी
अरहनाथमछली कुम्भरक्षिता
मल्लिनाथकलश अभिक्षकबन्धुमति
मुनिसुव्रतनाथकछुआ मल्लिपुष्पावती
नमिनाथनीलकमल शुभअनिला
नेमिनाथशंख वारादत्तायक्षदिन्ना
पारसनाथसर्प आर्यदिन्नापुष्पचूड़ा
महावीरसिंह इन्द्रभूतिचन्द्रबाला

जैन धर्म के संप्रदाय (Sects of Jainism)

जैन धर्म के अनुयायी मुख्य रूप से दो संप्रदायों में विभाजित हैं – 

  • दिगम्बर : इस संप्रदाय के लोग भद्रबाहु को अपना गुरु स्वीकार करते हैं। ये लोग नग्न रहते हैं। 
  • श्वेताम्बर : ये लोग श्वेत वस्त्र धारण करते हैं तथा स्थूलभद्र को अपना गुरु मानते हैं। 

 

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