आर्थिक नीति

सुप्रीम कोर्ट का फैसला: सामुदायिक संसाधनों में निजी संपत्ति का दायरा

यह लेख “The Hindu” में प्रकाशित “​All or any: On resources and Supreme Court verdict” पर आधारित है, इस लेख में बताया गया है की सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने संविधान के अनुच्छेद 39 में वर्णित “सामुदायिक संसाधनों” की परिभाषा पर महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान किया है। यह विस्तार से बताता है कि निजी संसाधनों को “सामुदायिक संसाधन” की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है या नहीं और यह राज्य के कार्यों पर किस प्रकार का प्रभाव डालता है।

परिचय: संविधान का आर्थिक दृष्टिकोण और राज्य का दायित्व

भारतीय संविधान की आर्थिक दृष्टि समाजवादी सिद्धांतों में निहित है, जो मुख्यतः राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में अभिव्यक्त होती है। इन सिद्धांतों का उद्देश्य समाज में समानता सुनिश्चित करना और संसाधनों का वितरण इस प्रकार करना है कि हर किसी को उसका लाभ मिल सके। संविधान के अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) के तहत राज्य का यह कर्तव्य है कि वह “सामुदायिक संसाधनों” का वितरण इस प्रकार करे जिससे वह समाज के हित में हो और आर्थिक व्यवस्था समाज को हानि न पहुंचाए।

हाल ही में, नौ-सदस्यीय सुप्रीम कोर्ट पीठ ने यह स्पष्ट किया कि “सामुदायिक संसाधन” की परिभाषा में निजी संपत्तियों को शामिल किया जा सकता है या नहीं। इस पर बहस ने यह सवाल उठाया कि क्या संविधान की इस सामाजिक-आर्थिक दृष्टि को व्यापक रूप से देखा जाना चाहिए, या इसे कुछ सीमाओं में रखा जाना चाहिए।

अनुच्छेद 39 के तहत ‘सामुदायिक संसाधन’ की परिभाषा

अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में यह कहा गया है कि राज्य का यह कर्तव्य है कि वह “सामुदायिक संसाधनों” का इस प्रकार से वितरण करे जिससे समाज का भला हो। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या निजी संपत्तियों को भी इस दायरे में शामिल किया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “सामुदायिक संसाधन” का दायरा व्यापक है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हर प्रकार के निजी संसाधन इसमें आ जाएंगे। इस बात पर जोर दिया गया कि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 39 को इस प्रकार से बनाया ताकि यह भविष्य की नीतियों को किसी एक विचारधारा में सीमित न करे।

निजी संसाधन और सार्वजनिक हित के लिए अधिग्रहण

हालांकि यह संभव है कि कुछ निजी संसाधन सामुदायिक उपयोग के लिए अधिग्रहित किए जा सकते हैं, कोर्ट ने इस अधिग्रहण को “गैर-समाप्ति कारकों” पर निर्भर बताया। इनमें मुख्य रूप से संसाधनों का प्रकार, उनकी विशेषताएं, उनका सामुदायिक हित के लिए आवश्यक होना, उनकी दुर्लभता, और उनके निजी हाथों में केंद्रित होने के परिणाम शामिल हैं।

उदाहरण के लिए, भूमि अधिग्रहण को हमेशा “राज्य का विशेषाधिकार” के सिद्धांत के तहत किया जाता है, जबकि प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है। इसी तरह, उपयोगिताओं, सेवाओं और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण तब किया जाता है जब यह राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुरूप हो।

संविधान की विचारधारा और न्यायालय का दृष्टिकोण

सुप्रीम कोर्ट का यह दृष्टिकोण इस बात की पुष्टि करता है कि संविधान को किसी एक आर्थिक विचारधारा में सीमित नहीं किया जा सकता। यह स्पष्ट किया गया कि अनुच्छेद 39 को इस प्रकार से लिखा गया है कि यह केवल समाजवादी या किसी अन्य विचारधारा के प्रति नहीं, बल्कि समग्रता में राष्ट्र के विकास के लिए है। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया का असहमति पूर्ण निर्णय इस बहस में विशेष महत्व रखता है। उनका मानना है कि अनुच्छेद 39 में “सामुदायिक संसाधनों” की परिभाषा का दायरा सीमित करने के बजाय इसे विधायिका के विवेक पर छोड़ देना चाहिए।

न्यायालय की व्याख्या और वर्तमान आर्थिक वास्तविकता

यह निर्णय वर्तमान समय की आर्थिक वास्तविकताओं को भी ध्यान में रखता है, जहां राज्य का कर्तव्य है कि वह संसाधनों का ऐसा वितरण करे जिससे समाज को समग्र रूप से लाभ पहुंचे। न्यायालय ने माना कि प्रत्येक निजी संसाधन सामुदायिक हित के लिए अधिग्रहीत नहीं किया जा सकता, बल्कि यह आवश्यकता पर निर्भर करता है। इसका अर्थ यह है कि समाज में समानता स्थापित करने के लिए राज्य का हस्तक्षेप उचित होना चाहिए, लेकिन यह किसी एक विचारधारा से प्रेरित नहीं होना चाहिए।

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया का असहमति पूर्ण निर्णय

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया के असहमति पूर्ण निर्णय ने समाज में वर्तमान असमानताओं को ध्यान में रखते हुए न्यायालय के निर्णय पर प्रश्न उठाए हैं। उनके अनुसार, समाज में असमानताओं को देखते हुए राज्य को अधिक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए था।

उनका मानना है कि संसाधनों का अधिक समान वितरण राज्य की जिम्मेदारी होनी चाहिए, और इसके लिए कानून में बदलाव की जिम्मेदारी विधायिका पर छोड़ दी जानी चाहिए। उनका दृष्टिकोण यह इंगित करता है कि वर्तमान में आर्थिक असमानता के समाधान के लिए राज्य का हस्तक्षेप आवश्यक है।

निष्कर्ष: समाज और न्याय का संतुलन

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय संविधान के प्रावधानों को एक संतुलित दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता को बताता है। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि संविधान के तहत राज्य का यह कर्तव्य है कि वह सामुदायिक संसाधनों का उचित वितरण सुनिश्चित करे, लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि यह हस्तक्षेप उचित और आवश्यक हो।

इस फैसले का महत्व इस बात में है कि यह संविधान की मूल भावना के साथ वर्तमान समय की आवश्यकताओं को भी शामिल करता है।

 

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अप्रत्याशित वृद्धि: मूल्य वृद्धि पर एक दृष्टिकोण

अप्रत्याशित वृद्धि: मूल्य वृद्धि पर एक दृष्टिकोण (Surprise acceleration: On price gains)

भारत में हाल के वर्षों में कीमतों में अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई है, जिसने न केवल उपभोक्ताओं को प्रभावित किया है बल्कि आर्थिक नीति निर्माताओं के लिए भी एक चुनौती प्रस्तुत की है। “The Hindu” के संपादकीय ‘Surprise acceleration: On price gains‘ में इस विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है। इस लेख में हम मूल्य वृद्धि की चुनौतियों और इसके संभावित समाधानों पर विचार करेंगे।

मूल्य वृद्धि की पृष्ठभूमि

मूल्य वृद्धि, जिसे मुद्रास्फीति भी कहा जाता है, तब होती है जब वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें समय के साथ बढ़ती हैं। भारत में, खाद्य और ऊर्जा मूल्य वृद्धि प्रमुख कारण रहे हैं। खाद्य पदार्थों की कीमतें, विशेष रूप से सब्जियों और अनाज की, तेजी से बढ़ी हैं। यह वृद्धि मौसमी कारकों, जैसे कि असामान्य मौसम, और आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधानों के कारण हुई है। ऊर्जा की कीमतों में वृद्धि, विशेष रूप से तेल और गैस की कीमतों में, भी मुद्रास्फीति को बढ़ावा देती है।

आर्थिक प्रभाव

मूल्य वृद्धि का सबसे बड़ा प्रभाव उपभोक्ताओं पर पड़ता है। बढ़ती कीमतों के कारण आम आदमी की जीवन लागत बढ़ जाती है, जिससे उनकी क्रय शक्ति कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त, यह आर्थिक अस्थिरता को बढ़ावा दे सकता है क्योंकि उच्च मुद्रास्फीति से बचत की दर कम हो सकती है और निवेश पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

सरकार और नीति निर्माताओं की भूमिका

मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए सरकार और नीति निर्माता कई उपाय अपना सकते हैं। इनमें मौद्रिक नीति के तहत ब्याज दरों को बढ़ाना, आपूर्ति श्रृंखला को सुधारना, और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को स्थिर करने के लिए सरकारी हस्तक्षेप शामिल हैं। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए नियमित रूप से नीतिगत दरों की समीक्षा करता है और आवश्यकतानुसार बदलाव करता है।

समाधान और सुझाव

  1. मौद्रिक नीति: भारतीय रिजर्व बैंक को मौद्रिक नीति को सख्त करना चाहिए ताकि मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित किया जा सके और मांग में कमी लाई जा सके। इससे मुद्रास्फीति पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
  2. आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन: सरकार को आपूर्ति श्रृंखला को सुधारने और खाद्य पदार्थों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए कदम उठाने चाहिए। इससे मौसमी और अस्थायी व्यवधानों से निपटा जा सकता है।
  3. ऊर्जा नीति: ऊर्जा की कीमतों को स्थिर करने के लिए सरकार को दीर्घकालिक ऊर्जा नीति अपनानी चाहिए। इसमें नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का अधिक उपयोग शामिल हो सकता है।
  4. वित्तीय साक्षरता: उपभोक्ताओं को वित्तीय साक्षरता के माध्यम से मुद्रास्फीति के प्रभावों से निपटने के लिए तैयार किया जा सकता है। इससे वे अपनी बचत और खर्चों को बेहतर तरीके से प्रबंधित कर सकते हैं।

निष्कर्ष

भारत में मूल्य वृद्धि एक गंभीर समस्या है जो उपभोक्ताओं और नीति निर्माताओं दोनों के लिए चुनौतीपूर्ण है। हालांकि, सही नीतियों और सुधारात्मक उपायों के माध्यम से इसे नियंत्रित किया जा सकता है। मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने के लिए मौद्रिक नीति, आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन, ऊर्जा नीति, और वित्तीय साक्षरता जैसे कदम उठाने की आवश्यकता है। इससे न केवल मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जा सकता है, बल्कि आर्थिक स्थिरता और विकास को भी सुनिश्चित किया जा सकता है।

 

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