यह लेख “Indian Express” में प्रकाशित “Yogendra Yadav on Sonam Wangchuk: Delhi needs to listen to Himalayas” पर आधारित है, इस लेख में बताया गया है की सोनम वांगचुक की ऐतिहासिक लेह से दिल्ली तक की पदयात्रा एक महत्वपूर्ण संदेश देती है जो भारत को राममनोहर लोहिया द्वारा प्रस्तावित “हिमालय नीति” की आवश्यकता है। जब चीन-भारत सीमा के नागरिकों का एक समूह लगभग 1000 किमी की दूरी तय कर अपनी राष्ट्रीय राजधानी पहुंचता है, तो कम से कम उनकी सुनवाई होनी चाहिए थी। इसके विपरीत, उन्हें धारा 144 के तहत बंदिशों, गिरफ्तारी और उनके अनशन स्थल को लेकर दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इस लेख में योगेंद्र यादव ने हिमालय क्षेत्र की समस्याओं और उनके समाधान की दिशा में एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता पर जोर दिया है।
हिमालय की आवाज़: सोनम वांगचुक के नेतृत्व में पदयात्रा का महत्व
(The Voice of the Himalayas: Importance of the Padyatra Led by Sonam Wangchuk)
हिमालय के मुद्दे: एक समग्र दृष्टिकोण की जरूरत
लद्दाख में वर्तमान में जारी विरोध प्रदर्शन हिमालयी क्षेत्र की एक लंबी कड़ी का हिस्सा हैं। कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के बाद की स्थिति, उत्तराखंड में भूस्खलन, सिक्किम में बाढ़, असम में NPR की समस्या और मणिपुर में गृहयुद्ध जैसी घटनाएं एक बड़ी तस्वीर का हिस्सा हैं। हालांकि इन घटनाओं को अलग-अलग श्रेणियों में रखा जाता है – जैसे भू-राजनीति, आंतरिक सुरक्षा, प्राकृतिक आपदाएं, और जातीय हिंसा – लेकिन इनमें गहरे संबंध हैं। 70 साल पहले राममनोहर लोहिया ने इन्हीं संबंधों को समझने और हिमालय क्षेत्र के लिए एक समग्र नीति की वकालत की थी।
लोहिया की हिमालय नीति: अतीत से सीख
आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों में लोहिया ने हिमालय नीति पर जोर दिया। उनका मानना था कि बाहरी और आंतरिक चुनौतियों का आपस में गहरा संबंध है। उन्होंने तिब्बत और नेपाल के लोगों के संघर्ष का समर्थन किया और कश्मीर तथा नागालैंड में विद्रोहियों के साथ लोकतांत्रिक वार्ता की वकालत की। उनका सबसे बड़ा मतभेद नेहरू की विदेश नीति को लेकर था, जो चीन के विस्तारवादी इरादों को नजरअंदाज करती थी। लोहिया की हिमालय नीति की अवधारणा में हिमालयी राज्यों के लोगों के बीच एकता और भारत के बाकी हिस्सों के साथ उनके संबंध शामिल थे।
सोनम वांगचुक की पदयात्रा और उनकी मांगें
वांगचुक और उनके साथियों का आंदोलन न केवल हिमालयी क्षेत्र की समस्याओं पर ध्यान दिलाता है, बल्कि यह भी बताता है कि आज के समय में एक हिमालय नीति का क्या मतलब हो सकता है। लद्दाख के लोग या तो राज्य का दर्जा चाहते हैं या फिर दिल्ली और पुदुचेरी की तरह एक निर्वाचित विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश। दशकों तक जम्मू-कश्मीर के ‘एल’ के रूप में अदृश्य रहने के बाद, लद्दाख के लोग अब एक ऐसी सरकार चाहते हैं जो उनके द्वारा चुनी जाए और उनके प्रति जवाबदेह हो।
लद्दाख की जनसंख्या केवल 3 लाख है, जो अयोध्या या हिसार जैसे छोटे शहरों के बराबर है, लेकिन इसका क्षेत्रफल 59,000 वर्ग किमी से अधिक है। यह जम्मू-कश्मीर से भी बड़ा है और मणिपुर, मिजोरम और नागालैंड के संयुक्त क्षेत्रफल से भी अधिक है। इसलिए लद्दाख के लिए संसद में दो सांसद और राज्यसभा में एक प्रतिनिधि होना चाहिए।
लद्दाख के लिए छठी अनुसूची का दर्जा
इस आंदोलन की मुख्य और तत्काल मांग लद्दाख के लिए छठी अनुसूची का दर्जा है, जिससे प्रत्येक जिले – न केवल लेह और कारगिल – बल्कि आठ जिलों में अलग-अलग जनजातीय समुदायों को अपनी स्वायत्त जिला परिषदों के माध्यम से अपने आंतरिक शासन का अधिकार मिलेगा। इससे छोटे समुदायों को अपनी संस्कृति और पहचान बनाए रखने में मदद मिलेगी। यह मांग बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में भी की गई थी।
विकास का नया मॉडल और पर्यावरणीय लोकतंत्र
वांगचुक और उनके सहयोगी केवल राजनीतिक मांगों तक सीमित नहीं हैं। वे स्थानीय लोगों के लिए भूमि, रोजगार और सांस्कृतिक अधिकार सुनिश्चित करने की मांग करते हैं, जिसे हम “पर्यावरणीय लोकतंत्र” कह सकते हैं। हालांकि वे अंधाधुंध हाइडल परियोजनाओं का विरोध करते हैं, वे विकास के विरोधी नहीं हैं। वांगचुक एक इंजीनियर और आविष्कारक हैं और स्थानीय संदर्भ में आधारित शिक्षा आंदोलन के संस्थापक भी हैं। उनके प्रयासों ने उन्हें 2018 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार भी दिलाया। वे न केवल विकास में अपना हिस्सा मांगते हैं, बल्कि एक नए विकास मॉडल की मांग करते हैं।
गांधीवादी तरीका: वांगचुक की नैतिक अपील
वांगचुक के अनशन का तरीका भी खास है। वह गांधीजी के सिद्धांतों की याद दिलाते हैं, जो ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ नैतिक आधार पर लड़ाई लड़ते थे। वांगचुक अपने लोगों की तरफ से राजनीतिक मांग करते हैं, लेकिन वह किसी भी आक्रामकता के बिना, शांतिपूर्वक और दृढ़ता से अपनी बात रखते हैं। यही कारण है कि दिल्ली पुलिस को उनके साथ कैसे निपटना है, यह समझ नहीं आ रहा है। वांगचुक दिल्ली के तथाकथित “सभ्यता” को चुनौती देते हैं और पारंपरिक ज्ञान के महत्व पर जोर देते हैं। वह विकास, शिक्षा और ऊर्जा पर एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, जो सिर्फ लद्दाख के लोगों के लिए नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए मुक्ति का मार्ग है।
हिमालय नीति की मौजूदा स्थिति
लोहिया के समय में हिमालय नीति एक नया विचार था। आज, यह अकादमिक और कार्यकर्ता जगत में स्वीकृत हो चुका है। हिमालयी क्षेत्र पर कई जर्नल और पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, जैसे “पहाड़” और “हिमाल”। हिमालय को अब केवल एक काव्यात्मक छवि या प्राकृतिक सुंदरता के स्रोत के रूप में नहीं, बल्कि एक युवा और नाजुक पर्वत श्रृंखला के रूप में देखा जाता है, जो असीमित सड़कों, पुलों और इमारतों का बोझ सहन नहीं कर सकती। राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण में भी बदलाव आया है, जो अब केवल सेना और भू-राजनीति पर केंद्रित नहीं है, बल्कि हिमालय में रहने वाले लोगों की सुरक्षा और उनकी जरूरतों पर ध्यान देता है।
निष्कर्ष: दिल्ली को हिमालय की आवाज सुननी होगी
15 अक्टूबर को सोनम वांगचुक का दिल्ली के तिब्बत भवन में अनिश्चितकालीन अनशन का 10वां दिन था। उनकी एक सरल मांग है – प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या राष्ट्रपति के साथ वार्ता और लद्दाख के लोगों के चार्टर को उनके सामने पेश करना। वांगचुक हिमालय की बुद्धिमानी और शांति को दिल्ली में लेकर आए हैं। सवाल यह है कि क्या हमारी राजनीतिक नेतृत्व हिमालय की इस आवाज को सुनेगी, या हम उस समय तक इंतजार करेंगे जब हिमालय की नाराजगी दिल्ली पर टूट पड़ेगी?
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