Daily Editorial - Right to Education Act Government Interference and Its Challenges

शिक्षा का अधिकार कानून: सरकारी हस्तक्षेप और इसकी चुनौतियाँ

भारत में शिक्षा का अधिकार (Right to Education – RTE) कानून एक महत्वपूर्ण कदम था जो हर बच्चे को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है। इस कानून का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि देश का कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। हालांकि, इस कानून के लागू होने के बाद से ही इसे कमजोर करने की कोशिशें जारी रही हैं। इस लेख में हम इस मुद्दे की गहराई से पड़ताल करेंगे और देखेंगे कि कैसे राज्य सरकारें RTE को कमजोर करने के उपाय कर रही हैं, और इसके परिणामस्वरूप बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है।

RTE की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम 2009 में पारित हुआ और 2010 से प्रभावी हुआ। इस कानून का उद्देश्य हर बच्चे को 6 से 14 वर्ष की आयु के बीच अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा प्रदान करना है। यह भारतीय संसद द्वारा पारित स्कूल शिक्षा का पहला कानून था, जिसने शिक्षा को हर बच्चे का मौलिक अधिकार बनाया। इस अधिनियम के तहत निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को भी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के बच्चों के लिए अपनी कुल सीटों का एक-चौथाई हिस्सा आरक्षित रखना अनिवार्य किया गया था।

इस कानून के लागू होने के बाद प्रारंभिक संकेतों से यह आशा जगी थी कि यह कानून सामाजिक और प्रणालीगत स्तर पर शिक्षा और बच्चों के अन्य अधिकारों को बढ़ावा देगा। लेकिन धीरे-धीरे यह सकारात्मक तस्वीर धुंधली होती चली गई। इसके पीछे मुख्य कारण है राज्य सरकारों द्वारा इस कानून को कमजोर करने के लिए उठाए गए कदम, जो कि शिक्षा के अधिकार को कम महत्व देने का संकेत देते हैं।

महाराष्ट्र सरकार का विवादित आदेश

हाल ही में, बॉम्बे हाई कोर्ट के एक फैसले ने राज्य सरकारों द्वारा RTE को कमजोर करने की कोशिशों को उजागर किया। महाराष्ट्र सरकार ने एक आदेश जारी किया था जिसमें निजी स्कूलों को RTE के तहत गरीब बच्चों के लिए आरक्षित सीटों को भरने से छूट दी गई थी, अगर स्कूल के एक किलोमीटर के दायरे में कोई सरकारी स्कूल मौजूद है। यह आदेश RTE के एक महत्वपूर्ण प्रावधान को निष्प्रभावी बनाने का प्रयास था, जो कि गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है।

महाराष्ट्र सरकार ने इस आदेश के समर्थन में दो तर्क दिए। पहला तर्क था संसाधनों का दुरुपयोग। उनका कहना था कि अगर सरकार पहले से ही सरकारी स्कूलों में शिक्षा प्रदान कर रही है, तो निजी स्कूलों में भी उसी काम के लिए धन खर्च करने की क्या जरूरत है? इस तर्क का आधार यह था कि सरकार निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के दाखिले के लिए धन की प्रतिपूर्ति करेगी, जो कि सरकार द्वारा अपने स्कूलों में खर्च किए जाने वाले धन के बराबर होगी।

दूसरा तर्क था कि शिक्षा का अधिकार (RTE) अन्य मौलिक अधिकारों की तरह “पूर्ण” नहीं है। इस तर्क के माध्यम से सरकार ने RTE को एक “अर्द्ध-मौलिक” अधिकार के रूप में प्रस्तुत किया, जो कि राज्य सरकारों की इस कानून के प्रति कमजोर प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

RTE का सामाजिक और शैक्षणिक प्रभाव

RTE अधिनियम केवल बच्चों को स्कूल भेजने का अधिकार नहीं देता, बल्कि यह कानून शिक्षा की गुणवत्ता पर भी ध्यान केंद्रित करता है। इसका सबसे बड़ा सामाजिक लाभ यह है कि इसने अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमियों से आने वाले बच्चों को एक साथ पढ़ने का मौका दिया है। RTE ने निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को एक महत्वपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए मजबूर किया, जिससे समाज में अलगाव और भेदभाव को कम करने की कोशिश की गई।

हालांकि, इस प्रावधान को कई निजी स्कूलों ने नापसंद किया। कई स्कूलों ने इसे सामाजिक व्यवस्था में घुसपैठ के रूप में देखा और इसे लागू करने से बचने के लिए कानूनी और राजनीतिक सहायता मांगी। कुछ स्कूलों ने इसके लिए अलग से कक्षाएं चलाने या गरीब बच्चों के लिए अलग सेक्शन बनाने का प्रस्ताव भी दिया, जिसे RTE ने सख्ती से नकार दिया।

RTE की असफलताएं और चुनौतियां

RTE के क्रियान्वयन में कई कठिनाइयाँ आई हैं। इसके तहत कई अहम प्रावधानों को कमजोर कर दिया गया है, जो कि सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों के बीच शिक्षा के अनुभव को गहरा बनाने के लिए थे। इसके अलावा, सबसे बड़ी असफलताओं में से एक है शिक्षकों का प्रशिक्षण। देशभर में शिक्षकों का प्रशिक्षण आज भी RTE की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है। J S Verma आयोग द्वारा दी गई सिफारिशों का पालन करने में भी असफलता देखी गई है। सरकार की उदासीनता के कारण RTE कानून में दिए गए दिशा-निर्देशों पर ध्यान कम होता जा रहा है।

बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला और अन्य राज्यों पर इसका प्रभाव

बॉम्बे हाई कोर्ट के हालिया फैसले ने RTE की पवित्रता को बनाए रखने का प्रयास किया है। इस फैसले से उम्मीद जताई जा रही है कि अन्य राज्य भी RTE के खिलाफ उठाए गए अवैध कदमों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे। कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्यों में भी RTE के तहत गरीब बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाने के मामले में अवरोध हैं। इन राज्यों में यह नियम है कि अगर किसी बच्चे के निवास स्थान के एक किलोमीटर के दायरे में कोई सरकारी स्कूल है, तो वे केवल तभी निजी स्कूल में दाखिला ले सकते हैं जब सरकारी स्कूल में जगह न हो।

निष्कर्ष

शिक्षा का अधिकार कानून (RTE) भारतीय बच्चों के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था, लेकिन राज्य सरकारों के प्रयासों ने इसे कमजोर कर दिया है। इस कानून का उद्देश्य गरीब और वंचित बच्चों को समान शिक्षा का अवसर प्रदान करना था, लेकिन राज्य सरकारें इसे लागू करने में विफल हो रही हैं। बॉम्बे हाई कोर्ट का हालिया फैसला उम्मीद की किरण दिखाता है, लेकिन RTE की सफलता के लिए सभी राज्य सरकारों को एकजुट होकर काम करना होगा।

 

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