यह लेख “The Hindu” में प्रकाशित “Wrong notion: On simultaneous elections” पर आधारित है, इस लेख में “समवर्ती चुनावों पर गलत धारणा” की आलोचना करता है कि पूरे भारत में एक साथ चुनाव कराना व्यावहारिक और संवैधानिक रूप से सही है। लेख में बताया गया है कि यह प्रस्ताव भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ है क्योंकि इसमें राज्यों की स्वायत्तता और स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है। इसमें राजनीतिक और संवैधानिक चुनौतियों का उल्लेख किया गया है, और यह तर्क दिया गया है कि समवर्ती चुनाव देश के लोकतांत्रिक मूल्यों और शासन प्रणाली के लिए हानिकारक हो सकते हैं।
समवर्ती चुनावों पर गलत धारणा
(Wrong notion: On simultaneous elections)
भारत सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति की सिफारिशों के आधार पर समान चुनावों की योजना को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया है। यह समिति, जिसका नेतृत्व पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कर रहे थे, लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ करवाने का सुझाव देती है। इसके बाद 100 दिनों के भीतर पंचायत और नगरपालिका चुनाव करवाने की भी सिफारिश की गई है। इस योजना के सफल क्रियान्वयन के लिए कई संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी, जिन्हें संसद और राज्य विधानसभाओं से पारित कराना आवश्यक है।
संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता
इस योजना को लागू करने के लिए भारत के संविधान में कई महत्वपूर्ण संशोधन करने की आवश्यकता होगी। संविधान के अनुच्छेदों में बदलाव करके चुनावी प्रक्रिया को समायोजित करना होगा ताकि लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ आयोजित किए जा सकें। वर्तमान संविधान में अलग-अलग चुनावी प्रक्रिया का प्रावधान है, जो भारत के संघीय ढांचे का हिस्सा है। इन संशोधनों को पारित करना केवल संसद में ही नहीं, बल्कि राज्य विधानसभाओं में भी एक बड़ी चुनौती हो सकती है।
चुनावी लागत में कमी का तर्क
समिति के अनुसार, एक साथ चुनाव कराने से चुनावी प्रक्रिया की लागत में भारी कमी आएगी। चुनाव आयोग को चुनाव करवाने के लिए बड़े पैमाने पर संसाधनों की आवश्यकता होती है, जिसमें सुरक्षा बलों की तैनाती, मतदान केंद्रों की व्यवस्था, और चुनाव प्रचार के लिए व्यवस्थाएँ शामिल होती हैं। अगर सभी चुनाव एक साथ होते हैं, तो यह लागत कम हो सकती है। हालाँकि, इस तर्क के समर्थन में बहुत कम ठोस डेटा उपलब्ध है।
तथ्य: वर्तमान में भी आम चुनाव कई चरणों में होते हैं, विशेष रूप से बड़े राज्यों में। ऐसे में अगर सभी चुनाव एक साथ होते हैं, तो इस प्रक्रिया में और समय लग सकता है, जो कि लागत कम करने के तर्क के खिलाफ जाता है।
मिड-टर्म चुनावों की जटिलता
समिति की एक और सिफारिश यह है कि अगर किसी राज्य की विधानसभा का कार्यकाल “नियत तारीख” (समान चुनाव की तारीख) से पहले समाप्त हो जाता है, तो वहां मध्यावधि चुनाव करवाए जाएंगे। लेकिन नई विधानसभा का कार्यकाल पूरा पांच साल का नहीं होगा, बल्कि उसकी समाप्ति समान चुनाव की “नियत तारीख” के साथ ही हो जाएगी। यह प्रावधान भी लागत में कमी के तर्क के खिलाफ जाता है, क्योंकि मध्यावधि चुनाव आयोजित करना अतिरिक्त खर्च को जन्म देगा। इसके अलावा, यह संघीय ढांचे के सिद्धांतों का उल्लंघन है, क्योंकि राज्यों के स्वतंत्र चुनाव कराने की क्षमता प्रभावित होगी।
संघीय ढांचे पर प्रभाव
भारत का संविधान संघीय ढांचे पर आधारित है, जिसमें केंद्र और राज्यों के अधिकार स्पष्ट रूप से विभाजित हैं। प्रत्येक स्तर पर चुनावी प्रक्रिया अलग होती है, जिससे लोग विभिन्न मुद्दों पर अपने प्रतिनिधियों का चयन कर सकते हैं। स्थानीय, राज्य और राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में विभिन्न मुद्दे होते हैं, जो मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित करते हैं।
समस्या: यदि सभी चुनाव एक साथ होते हैं, तो यह संघीय ढांचे के खिलाफ हो सकता है। मतदाता कई बार राष्ट्रीय मुद्दों को देखकर अपने मत का प्रयोग करते हैं, जबकि राज्य और स्थानीय चुनावों में मुद्दे भिन्न होते हैं। इससे राज्य और स्थानीय चुनावों का महत्व कम हो सकता है, क्योंकि मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर ही अपना निर्णय कर सकते हैं।
सतत चुनावी अभियान का मुद्दा
एक और तर्क यह दिया गया है कि राजनीतिक दल हमेशा चुनावी मोड में रहते हैं, जिससे शासन और विधायी कार्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। समान चुनावों से यह समस्या हल हो सकती है, क्योंकि एक ही समय में सभी चुनाव संपन्न हो जाएंगे। हालाँकि, यह तर्क भी पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता। यह चुनावी प्रणाली की समस्या नहीं, बल्कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का परिणाम है, जहाँ राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति अपनाते हैं।
राज्य सरकारों के कार्यकाल पर प्रभाव
अगर समान चुनावों की योजना लागू होती है, तो कई राज्य सरकारों के कार्यकाल को समय से पहले समाप्त करना पड़ेगा ताकि सभी चुनाव एक साथ कराए जा सकें। यह संघीय ढांचे और राज्यों की स्वतंत्रता के खिलाफ है। वर्तमान संविधान राज्य सरकारों को पाँच साल का कार्यकाल देता है, जिसे समय से पहले समाप्त करना राज्यों के अधिकारों का हनन होगा।
निष्कर्ष
समान चुनावों का प्रस्ताव न केवल चुनावी स्वतंत्रता और संघवाद के खिलाफ है, बल्कि इससे भारत के संघीय ढांचे पर भी गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। चुनावी प्रक्रिया को केंद्रीकृत करने से राज्य और स्थानीय स्तर के चुनावों का महत्व कम हो सकता है। इसके अलावा, इस योजना को लागू करने के लिए आवश्यक संवैधानिक संशोधन और राज्य सरकारों के कार्यकाल में हस्तक्षेप, लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। इसलिए, राजनीतिक दलों और समाज के संघवाद समर्थकों को इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध करना चाहिए।