यह लेख The Hindu में प्रकशित Editorial (Losing the plot: On North India’s air quality issue) से लिया गया हैं, इस लेख में उत्तर भारत में बिगड़ती वायु गुणवत्ता एक स्थायी शासन-संबंधी चुनौती बन चुकी है, जिसके समाधान हेतु समन्वित संस्थागत ढाँचा, नागरिक सहभागिता और दीर्घकालिक क्षेत्र-विशिष्ट सुधार आवश्यक पर बात की गई हैं।
संवैधानिक और शासन-संबंधी पृष्ठभूमि
भारत का संविधान पर्यावरण संरक्षण को एक साझा जिम्मेदारी के रूप में मान्यता देता है। अनुच्छेद 48A राज्य को पर्यावरण और वनों की रक्षा के लिए बाध्य करता है, जबकि अनुच्छेद 51A(g) नागरिकों को प्राकृतिक परिवेश की सुरक्षा का कर्तव्य सौंपता है। इसके अतिरिक्त, सातवीं अनुसूची के ‘संवर्ती सूची’ में पर्यावरण से जुड़े कई क्षेत्र केंद्र और राज्यों के साझा अधिकार क्षेत्र में आते हैं। उत्तर भारत की वायु गुणवत्ता समस्या — विशेषकर दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार — इस साझा जिम्मेदारी की जटिलता को उजागर करती है।
वर्तमान परिदृश्य में वायु प्रदूषण न सिर्फ एक स्वास्थ्य संकट है बल्कि प्रशासनिक, संघीय और राजनीतिक समन्वय का परीक्षण भी करता है। न्यायपालिका भी समय-समय पर हस्तक्षेप करती रही है, विशेष रूप से राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) द्वारा प्रदूषण नियंत्रण से जुड़े अनेक निर्णयों के माध्यम से। इस पृष्ठभूमि में वायु गुणवत्ता का उचित प्रबंधन एक संवैधानिक दायित्व और प्रशासनिक चुनौती दोनों है।
वर्तमान स्थिति: एक विस्तृत ‘एयरशेड’ संकट
दिल्ली में 24 नवंबर को जब वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) लगभग 400 (Severe Category) के आसपास बना रहा, तब इंडिया गेट पर एक छोटे, शांतिपूर्ण समूह द्वारा विरोध प्रदर्शन किया गया। यह विरोध न केवल प्रदूषण के चरम स्तर का संकेत था बल्कि यह भी दर्शाता है कि हवा अब एक सार्वजनिक आंदोलन का विषय बन रही है।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह समस्या केवल दिल्ली तक सीमित नहीं है। निगरानी केंद्रों के अनुसार प्रदूषण का एक निरंतर क्षेत्र इस्लामाबाद से लेकर बिहार तक फैला हुआ है — जिसे वैज्ञानिक भाषा में ‘साझा एयरशेड’ कहा जाता है। इसमें उद्योग, ऊर्जा उत्पादन, परिवहन, निर्माण, और कृषि (विशेषकर पराली जलाना) से निकलने वाले उत्सर्जन सामूहिक रूप से योगदान करते हैं।
Air Quality Life Index (AQLI) के दीर्घकालिक आकलनों से स्पष्ट है कि असुरक्षित वायु अब भारत के अधिकांश हिस्सों में सामान्य स्थिति बन चुकी है, और वर्तमान निगरानी एवं प्रवर्तन व्यवस्थाएँ अपर्याप्त हैं।
ऐतिहासिक एवं सामाजिक संदर्भ: नागरिक व्यवहार में परिवर्तन
इतिहासतः दिल्ली का मध्यम वर्ग वायु प्रदूषण से बचने के लिए व्यक्तिगत उपायों जैसे एयर प्यूरीफायर, बंद खिड़कियाँ, शहर से बाहर छुट्टियाँ और निजी असंतोष का रास्ता अपनाता था। लेकिन इंडिया गेट की ताज़ा घटना ने इस धारणा को बदलने की दिशा में संकेत दिया है। यह जनभागीदारी के नए चरण की ओर इशारा करता है जहाँ नागरिक अब सार्वजनिक जवाबदेही की माँग करने लगे हैं।
इसके विपरीत, सरकार ने इसे सहभागी शासन (participatory governance) की समस्या मानने के बजाय कानून-व्यवस्था का मुद्दा बनाकर देखा और Rapid Action Force (RAF) की तैनाती कर दी। यह न केवल अनुचित प्रतिक्रिया को दर्शाता है बल्कि ऐसी रणनीति नागरिकों के साथ संवाद को कमजोर करती है और पारदर्शिता को बाधित करती है।
प्रशासनिक ढाँचा: खंडित अधिकार-क्षेत्र की चुनौती
आज उत्तर भारत के ‘एयरशेड’ पर अधिकार विभिन्न संस्थाओं में बँटा हुआ है —
- केंद्रीय मंत्रालय,
- राज्य विभाग,
- नगर निकाय,
- और विशिष्ट नियामक एजेंसियाँ।
प्रत्येक संस्था के पास आंशिक अधिकार और भिन्न प्रोत्साहन संरचना है, जिससे समन्वय कठिन हो जाता है। इस चुनौती को देखते हुए केंद्र सरकार ने Commission for Air Quality Management (CAQM) का गठन किया, जिसके पास उत्सर्जन नियंत्रण निर्देश जारी करने, राज्यों के बीच समन्वय कराने तथा उल्लंघन पर दंडात्मक कार्रवाई का अधिकार है। परंतु लेख के अनुसार, CAQM का हस्तक्षेप समस्या की विस्तार और स्थायित्व के अनुरूप नहीं रहा है। संस्थागत विफलताओं के चलते यह संकट प्रत्येक वर्ष दोबारा लौट आता है।
राजनीतिक भूमिका और जवाबदेही का अभाव
दिल्ली सरकार और पड़ोसी राज्यों की राजनीति अक्सर वायु प्रदूषण को एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का विषय बना देती है। पराली जलाने, निर्माण गतिविधियों पर नियंत्रण, और डीज़ल जनरेटर के प्रयोग जैसे मुद्दे अक्सर राजनीतिक दृष्टिकोण के आधार पर प्रस्तुत किए जाते हैं। इंडिया गेट पर हुए विरोध के दौरान भारी पुलिस बल की तैनाती यह दर्शाती है कि प्रक्रिया राजनीतिक ‘असुविधा’ (political embarrassment) को कम करने पर केंद्रित है। लेख में इस स्थिति को “शासन की समस्या के बजाय कानून-व्यवस्था की समस्या के रूप में देखने” की प्रवृत्ति बताया गया है — जो कि लोकतांत्रिक सहभागिता को कुंद कर देती है।
सामाजिक प्रभाव: स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और असमानता
वायु प्रदूषण का प्रभाव बहुआयामी है:
- स्वास्थ्य पर प्रभाव: सूक्ष्म कण PM2.5 और PM10 का दीर्घकालिक एक्सपोज़र फेफड़ों और हृदय संबंधी बीमारियों का मुख्य कारण माना जाता है।
- आर्थिक लागत: श्रम उत्पादकता में गिरावट और स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि के कारण भारत हर वर्ष अरबों डॉलर का नुकसान झेलता है।
- सामाजिक असमानता: धनी वर्ग एयर प्यूरीफायर, कार-फिल्टर्स और दूरस्थ यात्राओं से बचाव कर पाते हैं, जबकि गरीब तबके लगातार जहरीली हवा में जीवनयापन करने पर मजबूर रहते हैं।
इस संदर्भ में लेख नागरिकों की बढ़ती भागीदारी को महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन के रूप में देखता है।
समाधान की राह: दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधार
लेख में कहा गया है कि मौजूदा व्यवस्था “मौसमी आपातकाल” की तरह प्रतिक्रिया देती है जबकि समस्या स्थायी संस्थागत उपायों की मांग करती है।
आवश्यक सुधार:
- क्षेत्र-विशिष्ट योजनाएँ (Sectoral Plans) — CAQM को राज्यों और बड़े प्रदूषकों से समयबद्ध योजनाएँ तैयार करवानी चाहिए।
- लगातार निगरानी और सार्वजनिक डेटा — निरंतर निगरानी (continuous monitoring) और डेटा का सार्वजनिक खुलासा।
- तकनीकी ‘क्विक फिक्स’ का परित्याग — स्मॉग टॉवर जैसे अल्प-प्रभावी समाधानों पर खर्च करने के बजाय स्रोत-उन्मूलन पर ध्यान।
- ऊर्जा, परिवहन, निर्माण और कृषि क्षेत्रों में संरचनात्मक बदलाव –
- पुराने संयंत्रों का समयबद्ध बंद/उन्नयन,
- स्वच्छ ईंधनों का समर्थन,
- किसानों को पराली प्रबंधन हेतु विश्वसनीय वैकल्पिक उपाय।
- राजनीतिक इच्छाशक्ति और साहसी दृष्टि — समाधान अल्पकालिक नहीं हो सकते; इन्हें वर्षों लगेंगे लेकिन स्थायी सुधारों की ओर ले जाएंगे।
निष्कर्ष
लेख यह स्पष्ट करता है कि उत्तर भारत की वायु गुणवत्ता समस्या सिर्फ प्रशासनिक विफलता नहीं बल्कि नागरिक सहभागिता और राजनीतिक जवाबदेही का परीक्षण भी है। स्थायी समाधान के लिए साझा एयरशेड प्रबंधन, पारदर्शिता, बहु-स्तरीय समन्वय और स्रोत-आधारित नियंत्रण आवश्यक हैं। अंततः, साहसिक राजनीतिक दृष्टि और नागरिकों के साथ संवाद ही इस संकट को दीर्घकालिक रूप से हल कर सकते हैं।
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📌 संभावित UPSC / State PCS परीक्षा प्रश्न GS Mains Paper I (Essay Paper)
GS Paper II (Polity & Governance)
GS Paper III (Environment, Economy, Technology)
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