यह लेख The Indian Express में प्रकशित Editorial (Indian Constitution went beyond Western notions. This is why it has endured) से लिया गया हैं, इस लेख में भारतीय संविधान ने पश्चिमी उदार मॉडल से आगे बढ़कर समानता, समूह-विशेष अधिकार, धर्म-निरपेक्षता और सामाजिक न्याय का अभिनव ढाँचा पर बात की गई हैं, जिससे इसकी 76-वर्षीय स्थायित्व संभव हुआ।
संवैधानिक पृष्ठभूमि: ऐतिहासिक संदर्भ और निर्माताओं की दृष्टि
भारत का संविधान 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया, और आज इसकी 76वीं वर्षगाँठ है। इसकी रचना ऐसे समय में हुई जब देश विभाजन की हिंसा, बड़े पैमाने पर विस्थापन और औपनिवेशिक शासन से शक्ति-हस्तांतरण की जटिलताओं से जूझ रहा था। इसके बावजूद संविधान-निर्माताओं ने केवल पश्चिमी उदार परंपराओं का अनुकरण न करते हुए, भारतीय समाज की बहुस्तरीय असमानताओं और विविधताओं को ध्यान में रखते हुए एक सृजनात्मक और प्रगतिशील संवैधानिक ढाँचा तैयार किया। लेख के अनुसार, यह संविधान न केवल पश्चिमी मॉडल से प्रेरित था बल्कि कई मामलों में उनसे काफी आगे बढ़ा हुआ था — विशेषकर समानता, धर्म-निरपेक्षता, और समूह-विभेदित अधिकारों के संदर्भ में।
वर्तमान स्थिति: भारतीय संविधान की स्थायित्व की उत्कृष्टता
वर्तमान में जब दुनिया के कई देशों में संविधान या लोकतांत्रिक संस्थाएँ अस्थिरता से जूझ रही हैं, भारत का संविधान 75 से अधिक वर्षों से एक विविध, विशाल और बहुधर्मी समाज को सफलतापूर्वक संचालन में सक्षम बनाता रहा है। संविधान केवल एक विधिक दस्तावेज नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आकांक्षाओं, एकता और समावेशन का नैतिक आख्यान भी है। इस स्थायित्व का कारण यह है कि संविधान निर्माताओं ने भारतीय समाज की गहराई से निहित असमानताओं, सामाजिक पदानुक्रम, सामुदायिक तनावों, और समूह-विशेष भिन्नताओं को स्पष्ट रूप से पहचानते हुए, उनके अनुरूप अधिकार और व्यवस्थाएँ दीं।
ऐतिहासिक भूमिका: पश्चिमी उदार संविधानवाद से आगे बढ़ना
पश्चिमी संविधानों की प्राथमिकता मुख्यतः नकारात्मक स्वतंत्रता—यानी राज्य द्वारा हस्तक्षेप-न-करने के अधिकार—पर आधारित रही है। इसके विपरीत भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय, सामाजिक असमानता और संरचनात्मक भेदभाव को दूर करने के लिए सकारात्मक राज्य हस्तक्षेप को मान्यता दी गई।
लेख रेखांकित करता है कि भारत ने न केवल नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को अपनाया, बल्कि उन्हें सामाजिक वास्तविकताओं के अनुरूप विस्तृत किया। इस दृष्टिकोण के कारण ही भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्थाएँ शामिल हुईं जो पश्चिमी लोकतंत्रों में बहुत बाद में आईं—जैसे कि affirmative action (आरक्षण) और समूह-विशेष अधिकारों का संरक्षण।
समानता का उन्नत दर्शन: अनुच्छेद 14, 15 और 17
भारतीय संविधान का सबसे क्रांतिकारी पहलू इसका समानता का विस्तृत दृष्टिकोण है।
- अनुच्छेद 14: सभी व्यक्तियों के लिए कानून के समक्ष समानता और समान संरक्षण।
- अनुच्छेद 15(1): राज्य को नागरिकों के विरुद्ध धर्म, जाति, लिंग, जन्म-स्थान आदि के आधार पर भेदभाव से प्रतिबंधित करता है।
- अनुच्छेद 15(2): पश्चिमी संविधानों से महत्वपूर्ण भिन्नता—यह केवल राज्य नहीं, बल्कि निजी व्यक्तियों द्वारा सार्वजनिक स्थानों में भेदभाव को भी निषिद्ध करता है।
- अनुच्छेद 17: अछूत प्रथा का उन्मूलन, जो भारत की जातिगत संरचना को चुनौती देने वाला ऐतिहासिक कदम था।
- अनुच्छेद 23: मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी पर रोक।
संविधान-निर्माताओं ने मान्यता दी कि भारतीय समाज में सत्ता का बड़ा हिस्सा गैर-राज्यीय सामाजिक समूहों के पास भी होता है; इसलिए केवल “राज्य-विरोधी स्वतंत्रता” पर्याप्त नहीं थी।
समूह-विभेदित अधिकार और आरक्षण की अवधारणा: वैश्विक नेतृत्व
दूसरा महत्वपूर्ण नवाचार था group-differentiated rights का संवैधानिक संरक्षण, विशेषकर अल्पसंख्यकों और ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों के लिए।
- संविधान सभा में इस विषय पर उग्र बहसें हुईं — विशेषकर धार्मिक अल्पसंख्यकों को मिले अधिकारों, पृथक मताधिकार, और विशेष संरक्षण को लेकर।
- 1949 में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए विधायी आरक्षण समाप्त कर दिया गया, परंतु डॉ. बी. आर. आंबेडकर के आग्रह पर अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण और अन्य संरक्षण बनाए रखे गए।
भारत ने 1950 में सकारात्मक भेदभाव (Affirmative Action) को संवैधानिक ढाँचे में शामिल किया — जबकि अमेरिका में यह विचार बहुत बाद में 1960 के दशक में सिविल राइट्स आंदोलन के दौरान विस्तृत रूप में उभरा। यह बताता है कि भारत सामाजिक न्याय के संवैधानिकरण में वैश्विक अग्रणी रहा।
धर्म-निरपेक्षता और धार्मिक स्वतंत्रता का संतुलित मॉडल
भारतीय संविधान का धर्म-निरपेक्ष ढाँचा आधुनिक विश्व में सबसे सुसंतुलित प्रयास माना जाता है।
- अनुच्छेद 25: व्यक्तियों को धार्मिक स्वतंत्रता।
- अनुच्छेद 26: धार्मिक समूहों को अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन स्वतंत्र रूप से करने का अधिकार।
- अनुच्छेद 27: किसी धर्म को बढ़ावा देने हेतु अनिवार्य कराधान पर रोक।
- अनुच्छेद 28: राज्य-पोषित शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध।
- अनुच्छेद 29–30: धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को भाषा, संस्कृति की रक्षा और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना/प्रबंधन का अधिकार।
- अपने धर्म-परिवार कानूनों को बनाए रखने की अनुमति भी भारतीय धर्म-निरपेक्षता की विशिष्टता को दर्शाती है — यह न तो धर्म का पक्ष लेती है और न ही धर्म-विरोधी है।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि “Secular” शब्द संविधान में 42वें संशोधन 1976 में जोड़ा गया, परंतु मूल ढाँचा शुरू से ही धर्म-निरपेक्ष स्वभाव का था।
कार्यपालिका की शक्ति और संविधान की सीमाएँ
संविधान की कुछ व्यवस्थाएँ आज भी आलोचना के दायरे में हैं:
- आपातकालीन प्रावधान, जिनका स्रोत औपनिवेशिक शासन है, नागरिक स्वतंत्रताओं को सीमित करते हैं।
- विभिन्न अधिकारों के निलंबन का निर्णय अक्सर कार्यपालिका (Executive) पर निर्भर करता है।
- हालाँकि इन पर न्यायिक समीक्षा उपलब्ध है, फिर भी कार्यपालिका एक अत्यंत शक्तिशाली संस्था बनती है।
इस प्रकार, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा पूर्ण और निरंतर नहीं कही जा सकती।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान का 76 वर्षों तक स्थायित्व इस बात का प्रमाण है कि यह न केवल एक विधिक दस्तावेज बल्कि राष्ट्रीय एकता, विविधता और सामाजिक समावेशन का जीवंत प्रतीक है। यह दर्शाता है कि राष्ट्रीय एकता ‘एकरूपता’ नहीं बल्कि ‘समान गरिमा’ पर आधारित होती है, और गहरी सामाजिक असमानताओं वाली दुनिया में ‘समानता’ का अर्थ हमेशा ‘समान व्यवहार’ नहीं होता।
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📌 संभावित UPSC / State PCS परीक्षा प्रश्न GS Mains Paper I (Essay Paper)
GS Paper II (Polity & Governance)
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