भारत में रक्षा क्षेत्र में स्वदेशीकरण की गति तेज हुई है, परंतु CDS द्वारा चेतावनी मिली कि कई निर्माताओं द्वारा भ्रामक “स्वदेशी” दावों से विश्वास कमजोर हो रहा है। लेख बताता है कि केवल उद्योग को दोष देना अनुचित है; समस्या R&D निवेश की कमी, संस्थागत बाधाएँ, और अवास्तविक QRs में निहित है।
आत्मनिर्भर रक्षा प्रणाली: उद्योग, नीति और नवाचार की वास्तविक चुनौतियाँ
परिचय: भारत में रक्षा स्वदेशीकरण की उभरती दिशा
पिछले दशक में भारत ने रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य के तहत उल्लेखनीय प्रगति की है—प्रोक्योरमेंट नीतियों का पुनर्गठन, निजी उद्योग की बढ़ती भागीदारी, और रक्षा निर्यातों में उभरती हुई विश्वसनीयता इसके प्रमुख संकेतक हैं। परंतु हाल ही में चीफ ऑफ डिफेन्स स्टाफ (CDS) द्वारा दिए गए वक्तव्य ने एक गंभीर मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित किया है—कई रक्षा कंपनियाँ स्वदेशीकरण के अतिरंजित दावे कर रही हैं, जो नीति-निर्माण और वास्तविक क्षमता-विकास दोनों को नुकसान पहुँचाता है।
अवधारणात्मक पृष्ठभूमि: वास्तविक और कृत्रिम स्वदेशीकरण का अंतर
रक्षा स्वदेशीकरण का मूल उद्देश्य यह है कि भारत अपनी प्रौद्योगिकीय निर्भरता को कम करे और महत्वपूर्ण प्रणालियों पर स्वतंत्र नियंत्रण प्राप्त करे। लेकिन लेख बताता है कि कई कंपनियाँ आयातित प्रणालियों के असेंबली-आधारित उत्पादन को “Made in India” बताकर ग़लत छवि बनाती हैं।
जब कंपनियाँ बुनियादी डिज़ाइन, महत्त्वपूर्ण अवयवों या विदेशी IP पर निर्भर रहते हुए स्वदेशीकरण का दावा करती हैं, तो इससे न केवल पारदर्शिता कमजोर होती है, बल्कि सैन्य निर्णय-निर्माण में भ्रम, संसाधनों का दुरुपयोग, और तकनीकी क्षमता-विकास का अवमूल्यन होता है।
वर्तमान चेतावनी: CDS द्वारा उठाई गई प्रमुख चिंताएँ (Current Status)
CDS का संदेश स्पष्ट है—यदि इंडस्ट्री “स्वदेशीकरण” को ब्रांडिंग एक्सरसाइज बना दे, तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता है।
उनकी मुख्य चिंताएँ:
- सतही डिज़ाइन-परिवर्तन करके स्वदेशीकरण का दावा।
- लघु उप-प्रणालियों को बदलकर अंतिम प्रणाली को “स्थानीय” बताना।
- विदेशी IP पर आधारित प्रणालियों को भारतीय बताना।
- इससे प्रोक्योरमेंट प्रक्रिया दिशाहीन हो जाती है और गलत परियोजनाओं को प्राथमिकता मिलती है।
स्वदेशीकरण में नैतिकता की अनिवार्यता (Ethical Imperatives)
रक्षा स्वदेशीकरण केवल नीतिगत आवश्यकता नहीं बल्कि नैतिक उत्तरदायित्व है।
इस हेतु आवश्यक है:
- कंपनियों द्वारा पारदर्शी खुलासा (Disclosure Standards) — कौन-सा अवयव कहाँ निर्मित हुआ?
- डिज़ाइन की घरेलू स्वामित्व का स्पष्ट विवरण।
- टेक्नोलॉजी की वास्तविक गहराई का प्रमाण।
- इससे निष्पक्ष प्रतियोगिता, बेहतर मूल्यांकन और वास्तविक R&D में निवेश करने वाली कंपनियों को उचित पहचान मिलेगी।
दूसरा पक्ष: सरकार और वैज्ञानिक ढांचे की कमजोरियाँ
सिर्फ उद्योग को दोष देना अनुचित है। समस्या का मूल यह है कि भारत अभी भी दुर्बल वैज्ञानिक आधार पर विश्वस्तरीय रक्षा नवाचार की अपेक्षा कर रहा है।
मुख्य तथ्य:
- भारत कुल GDP का केवल 0.65% R&D पर खर्च करता है।
- तुलना: अमेरिका 2.83%, चीन 2.14%, फ्रांस 2.19%, दक्षिण कोरिया 4.8%।
- DRDO का बजट वास्तविक (real) मूल्यों में स्थिर है।
- निजी रक्षा कंपनियाँ अपनी आमदनी का सिर्फ 1.2% R&D पर खर्च करती हैं, जबकि वैश्विक औसत 3.4% है।
- भारतीय रक्षा कंपनियों में PhD कर्मचारियों का अनुपात 0.1%, जबकि वैश्विक औसत 0.3%।
- भारतीय कंपनियाँ प्रति $1 बिलियन राजस्व पर केवल 7.3 पेटेंट निकालती हैं, जबकि वैश्विक औसत 240 पेटेंट है।
ये आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत में रक्षा नवाचार की क्षमता अभी भी सीमित है, और केवल “असेंबली आधारित स्वदेशीकरण” से वास्तविक शक्ति नहीं बन सकती।
प्रणालीगत बाधाएँ (Systemic Barriers)
भारत के रक्षा उद्योग को कई संरचनात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है:
- निजी कंपनियों के लिए उच्च प्रवेश बाधाएँ,
- टेस्टिंग सुविधाओं की कमी,
- प्रोक्योरमेंट प्रणाली जो अक्सर सार्वजनिक उपक्रमों (PSUs) के पक्ष में झुकी रहती है,
- लंबे समय की ऑर्डरिंग में अनिश्चितता,
- Tier-II और Tier-III सप्लायर बेस का पतला ढांचा।
इन कारणों से भारत का रक्षा उद्योग व्यापक और गहन औद्योगिक इकोसिस्टम में विकसित नहीं हो पाता।
अवास्तविक QRs (Quality Rating System) और संस्थागत जड़ता
पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा था कि QR लिखने वाले “Marvel comic movies” देख रहे हैं, यह दर्शाते हुए कि कई QRs अव्यावहारिक और अवास्तविक हैं।
QR की कुछ प्रमुख समस्याएँ:
- तकनीकी रूप से असंभव या अत्यधिक महत्वाकांक्षी विनिर्देश।
- मूल्यांकन मानकों में असंगति।
- निरंतर परिवर्तित मानदंडों के कारण उद्योग में अनिश्चितता।
यह स्थिति नवाचार को प्रेरित करने के बजाय हतोत्साहित करती है।
जोखिम-विरोध और असफलता-असहिष्णुता का संकट
DRDO के चेयरमैन समीर वी. कामत ने एक महत्वपूर्ण अवलोकन किया:
- भारत की वैज्ञानिक संस्कृति में असफलता का अस्वीकार और जोखिम लेने का भय बहुत अधिक है।
- असफलता होते ही CAG रिपोर्ट आ जाती है और अधिकारियों पर “सार्वजनिक धन की हानि” का आरोप लगता है।
- परिणाम → परियोजनाएँ बंद होने के बजाय अनिश्चित काल तक खिंचती रहती हैं।
वास्तविक वैज्ञानिक नवाचार असफलताओं पर आधारित होता है; भारत इस बिंदु पर अभी भी पीछे है।
तकनीकी निर्भरता के वास्तविक स्रोत
लेख बताता है कि भारत के कई “स्वदेशी” प्लेटफ़ॉर्म वास्तव में अंतिम-असेंबली आधारित हैं।
भारत अभी भी अत्यधिक निर्भर है:
- Aircraft Engines,
- AESA Radars,
- Missile Seekers,
- Stealth Coatings,
- Propulsion Systems,
- Advanced Composites पर।
ये क्रिटिकल टेक्नोलॉजी डोमेन विदेशी नियंत्रण में रहते हैं और एक छोटा-सा विदेशी अवरोध पूरी उत्पादन-श्रृंखला रोक सकता है—जैसा कि कई बार हुआ है।
समाधान का मार्ग (Way Forward)
लेख समाधान के रूप में एक बहुआयामी दृष्टिकोण सुझाता है:
- R&D को राष्ट्रीय रणनीतिक प्राथमिकता बनाना।
- निजी क्षेत्र को विदेशी और घरेलू साझेदारियों के माध्यम से प्रोत्साहित करना।
- DRDO का आधुनिकीकरण, बेहतर HR संरचना और विश्वविद्यालयों के साथ दीर्घकालिक अनुसंधान मिशन।
- पारदर्शी इंडस्ट्री डिस्क्लोजर स्टैंडर्ड्स लागू करना।
- अवास्तविक QRs में व्यावहारिकता और स्थिरता लाना।
- अधिकांश वैज्ञानिक क्षेत्रों में “Make” नहीं बल्कि “Make & Innovate” दृष्टिकोण अपनाना।
लेख निष्कर्ष देता है कि स्वदेशीकरण की नैतिकता केवल उद्योग का दायित्व नहीं; यह सरकार, R&D संस्थानों और सैन्य तंत्र की साझा जिम्मेदारी है।
निष्कर्ष (Conclusion)
भारत में वास्तविक रक्षा स्वदेशीकरण केवल स्थानीय असेंबली नहीं बल्कि गहन तकनीकी स्वामित्व, मजबूत R&D निवेश, पारदर्शी उद्योग-प्रथाएँ और व्यवहारिक सैन्य आवश्यकताओं की मांग करता है। केवल उद्योग को दोषी ठहराना पर्याप्त नहीं; संपूर्ण तंत्र को सुधारना होगा ताकि भारत एक विश्वस्तरीय रक्षा शक्ति बन सके।
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📌 UPSC / State PCS के संभावित परीक्षा प्रश्न GS Paper I (Essay Paper)
GS Paper II (Governance & Policy)
GS Paper III (Defence & Economy)
GS Paper IV (Ethics)
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