यह लेख The Hindu में प्रकशित Editorial (Burden of proof: On SIR 2.0 and the voter) से लिया गया हैं, इस लेख में बताया गया है कि भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 12 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में संचालित SIR (Special Intensive Revision) प्रक्रिया में नागरिकों पर मतदाता वैधता सिद्ध करने का भार डाला गया है, जिससे संभावित रूप से बड़े पैमाने पर वंचन का जोखिम बढ़ता है। यह मुद्दा वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती के अधीन है।
मतदाता सूची सत्यापन का संकट: SIR मॉडल की चुनौतियाँ और जोखिम
संवैधानिक पृष्ठभूमि (Constitutional Background)
भारत में निर्वाचन प्रक्रिया का आधार संविधान का अनुच्छेद 326, जो सार्वजनिक वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) की गारंटी देता है, तथा Representation of the People Act, 1950 है। ऐतिहासिक रूप से, भारत निर्वाचन आयोग (ECI) ने मतदाता सूची के निर्माण में यह सिद्धांत अपनाया कि किसी भी क्षेत्र में रहने वाला वयस्क व्यक्ति ‘साधारण निवासी’ (Ordinarily Resident) माना जाएगा।
Gauhati High Court का महत्वपूर्ण निर्णय (Dr. Manmohan Singh, _1999_) ने इस अवधारणा को व्यापक अर्थ दिया, यह कहते हुए कि यदि कोई व्यक्ति किसी स्थान पर नियमित रूप से रहता है और रहने का इरादा रखता है, तो वह साधारण निवासी माना जाएगा। इस न्यायिक व्याख्या ने लचीलेपन को बढ़ाया और यह सुनिश्चित किया कि मतदाता सूची नागरिकों के वास्तविक निवास को प्रतिबिंबित करे।
लेकिन SIR (Special Intensive Revision) प्रक्रिया इस संवैधानिक आधार को चुनौती देती दिखती है, क्योंकि यह मतदाता बनने या बने रहने का दायित्व नागरिक पर डाल रही है—जो कि “साधारण निवासी को मान्यता देने” की ऐतिहासिक परंपरा के विपरीत है।
वर्तमान स्थिति (Current Status of SIR in 12 States/UTs)
12 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में वर्तमान में SIR संचालन एक त्वरित और अत्यधिक कठोर प्रक्रिया के रूप में उभर रहा है।
ECI के अनुसार अधिकांश घरों तक BLO द्वारा फॉर्म पहुंचा दिए गए हैं, परंतु ज़मीनी स्तर पर अनेक वास्तविक मतदाता फॉर्म के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिससे यह साबित होता है कि दिशानिर्देशों और क्रियान्वयन में भारी अंतर है।
- BLO के घर–घर जाने का निर्देश वास्तव में लागू नहीं हो रहा, जिससे कई वर्गों—खासतौर पर महिलाएँ, प्रवासी, किरायेदार और गरीब समुदाय—सूचीकरण से वंचित होने के जोखिम में हैं।
- आगामी अगले महीने जारी होने वाली ड्राफ्ट मतदाता सूची से पहले आवश्यक दस्तावेज़ों को लेकर व्यापक भ्रम बना हुआ है।
इस संपूर्ण प्रक्रिया में समय की कमी, प्रशासनिक दबाव और अस्पष्ट दिशानिर्देश बड़ी समस्या बन रहे हैं।
ऐतिहासिक अनुभव: बिहार मॉडल की सीमाएँ (Historical Role & Bihar Experience)
ECI की SIR पद्धति की शुरुआत बिहार से हुई थी। बिहार के आंकड़ों से पता चला कि:
- हालांकि यह प्रक्रिया चुनावी परिणामों में भारी बदलाव नहीं लाई,
- लेकिन महिला मतदाता अनुपात में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई—जो कि संभावित प्रणालीगत वंचन (systemic disenfranchisement) का संकेत है।
यह तथ्य विशेष चिंताजनक है क्योंकि भारत के कई क्षेत्रों में महिलाएँ पहले से ही दस्तावेज़, निवास प्रमाण और स्थान-परिवर्तन संबंधी चुनौतियों का सामना करती हैं।
बिहार में स्थानीय स्तर पर अनुपातिकता के कई विकृत रूप, जैसे—कुछ क्षेत्रों में अचानक मतदाताओं की संख्या में गिरावट—देखने में आए, जिससे इस मॉडल पर सवाल उठता है।
प्रशासनिक और परिचालन विफलताएँ (Administrative Efforts and Operational Concerns)
ECI की भूमिका मतदाता सूचियों को सटीक, समावेशी और त्रुटिरहित रखना है। लेकिन SIR मॉडल में:
- मतदाता पर प्रमाण का भार स्थानांतरित किया जा रहा है, जबकि यह दायित्व संविधान के अनुसार राज्य/ECI का है।
- BLO पर अत्यधिक दबाव है, जिसके कारण वे फॉर्म भरने/त्रुटियाँ सुधारने में जल्दबाज़ी कर रहे हैं, और इससे संशोधित मतदाता सूचियों में त्रुटियाँ बनी रह जाती हैं।
- ECI की ओर से प्रौद्योगिकी आधारित deduplication (दोहराव रोकने) का विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद इसका प्रभावी उपयोग नहीं किया जा रहा है।
एक महत्वपूर्ण चिंता यह है कि ECI “शुद्धिकरण (purification)” पर तो ज़ोर दे रहा है, परन्तु मताधिकार संरक्षण पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा।
राजनीतिक आयाम (Political Role)
राजनीतिक दलों ने इस विषय को अदालत और चुनावी विमर्श, दोनों में उठाया है। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में न्यायालय ने तकनीकी त्रुटियों, फॉर्म वितरण, BLO की जिम्मेदारी और पार्टियों की भूमिका पर बात की, लेकिन मुख्य संवैधानिक मुद्दे—मतदाता वैधता का भार किस पर होना चाहिए—पर गहराई से विचार नहीं किया।
यह पहलू महत्वपूर्ण है क्योंकि लोकतांत्रिक ढांचे में मतदाता सूची ही चुनावी वैधता की रीढ़ होती है। यदि सूची में त्रुटि या बहिष्करण होता है, तो लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व प्रभावित होता है और इससे राजनीतिक विश्वास भी कमजोर पड़ता है।
सामाजिक प्रभाव (Social Impact)
SIR की कठोरता का सबसे अधिक प्रभाव इन समूहों पर पड़ सकता है:
1. विवाहित महिलाएँ
- विवाह के बाद निवास बदलने के कारण उनके पास अक्सर पुराने पते के दस्तावेज़ नहीं होते।
- बिहार SIR से जुड़े आंकड़े दिखाते हैं कि महिला मतदाता अनुपात में असामान्य गिरावट हुई।
2. प्रवासी मजदूर और शहरी गरीब
- इनके पास स्थायी पते के प्रमाण नहीं होते।
- अस्थायी निवास और कार्यस्थल परिवर्तन इन्हें सूचीकरण से बाहर कर सकता है।
3. किरायेदार एवं स्लम बस्तियों के निवासी
- अक्सर मकान मालिक के दस्तावेज़ों पर निर्भरता,
- पहचान/निवास सत्यापन में कठिनाई।
4. अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य कमजोर समूह
- प्रशासनिक प्रक्रियाओं में ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर रहे समूहों पर अतिरिक्त दबाव।
इस प्रकार SIR का वर्तमान स्वरूप लोकतांत्रिक समावेशन की बजाय बहिष्कारी प्रभाव उत्पन्न कर सकता है।
संवैधानिक परीक्षण की आवश्यकता (Judicial Review & Constitutional Compliance)
सुप्रीम कोर्ट को अब महज़ कार्यान्वयन नहीं, बल्कि मौलिक विधिक औचित्य (constitutional foundations) की जांच करनी चाहिए:
- क्या 2002–2005 के पुराने रिकॉर्ड वर्तमान वैधता जाँच का आधार हो सकते हैं?
- क्या मतदाता पर भार डालना अनुच्छेद 326 के साथ संगत है?
- क्या यह प्रक्रिया ECI की निष्पक्षता व समावेशन के संवैधानिक दायित्व को बाधित करती है?
न्यायालय को स्पष्ट निर्देश देना चाहिए कि: “प्रमाण का भार नागरिक पर नहीं, बल्कि निर्वाचन आयोग पर होना चाहिए।”
समाधान के मार्ग (Path to Solution)
संभावित समाधान हैं:
- पुरानी मतदाता सूचियों (2002–05) पर निर्भरता कम की जाए, और वर्तमान निवास व आधुनिक डेटा पर आधारित सत्यापन हो।
- Door-to-door verification को मजबूत और अनिवार्य रूप से लागू किया जाए।
- प्रौद्योगिकी आधारित De-duplication, Aadhaar seeding (स्वैच्छिक), GIS mapping आदि का संयोजन किया जाए।
- मतदाता पंजीकरण में महिलाओं, प्रवासियों और कमजोर वर्गों के लिए विशेष प्रावधान व सहायता तंत्र विकसित हों।
- प्रक्रिया पारदर्शी, चरणबद्ध और न्यायिक निगरानी में की जाए।
निष्कर्ष (Conclusion)
SIR का वर्तमान स्वरूप मतदाता की वैधता सिद्ध करने की जिम्मेदारी को उलट देता है, जो भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा तथा न्यायालय द्वारा स्थापित सिद्धांतों से मेल नहीं खाता। यदि इसे संवैधानिक रूप से सुधारा नहीं गया, तो यह महिलाओं, प्रवासियों और कमजोर समूहों के बड़े पैमाने पर वंचन का कारण बन सकता है। इसलिए जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट और ECI दोनों इस प्रक्रिया के मूल ढांचे की समीक्षा करें, ताकि सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की अखंडता सुनिश्चित की जा सके।
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