यह लेख The Indian Express में प्रकशित Opinion (By removing timelines for governors and President, Supreme Court safeguards India’s constitutional architecture) से लिया गया हैं, इस लेख में सुप्रीम कोर्ट के एकमत निर्णय ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका राष्ट्रपति-राज्यपाल पर समय-सीमा थोप नहीं सकती, “deemed assent” असंवैधानिक है, और इससे भारत की संवैधानिक संरचना एवं संस्थागत स्वायत्तता सुरक्षित रहती है।
संवैधानिक पृष्ठभूमि: राष्ट्रपति और राज्यपाल की संस्थागत स्थिति
भारत का संविधान राष्ट्रपति तथा राज्यपालों को विधायी प्रक्रिया में विशिष्ट अधिकार प्रदान करता है। Article 111 के तहत राष्ट्रपति तथा Articles 200 और 201 के तहत राज्यपाल विधेयकों पर स्वीकृति (assent), पुनर्विचार हेतु वापसी (return) या आरक्षण (reserve) जैसे विकल्पों का प्रयोग कर सकते हैं। संविधान में इन निर्णयों पर किसी समय-सीमा का अभाव—अर्थात constitutional silence—एक सचेत, विचारपूर्ण डिज़ाइन है। लेख में इसी संवैधानिक मौन की प्रकृति और उसकी न्यायिक व्याख्या से उत्पन्न संतुलन का विश्लेषण किया गया है।
वर्तमान स्थिति: Presidential Reference और सुप्रीम कोर्ट की एकमत राय
Rashtrapati द्वारा Article 143 के तहत भेजे गए Presidential Reference का उद्देश्य यह स्पष्ट करना था कि क्या न्यायपालिका राज्यपालों/राष्ट्रपति से निर्णय हेतु निश्चित समय-सीमा तय कर सकती है। इसपर Supreme Court की एकमत (unanimous) Constitution Bench ने कहा कि—
- न्यायपालिका समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकती।
- संविधान में “deemed assent” की कोई अवधारणा नहीं है।
- न्यायालय केवल “prolonged, unexplained gubernatorial inaction” के दुर्लभ मामलों में ही हस्तक्षेप कर सकता है।
यह निर्णय संवैधानिक ढांचे में शक्तियों के पृथक्करण (separation of powers) का मज़बूत पुनर्पुष्टि करता है।
न्यायालय का तर्क: Judicial Legislation बनाम Judicial Interpretation
निर्णय का एक केंद्रीय तत्व यह है कि न्यायालय ने judicial interpretation तथा judicial legislation के बीच स्पष्ट रेखा खींची। लेख में उल्लेख है कि पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में—
- राज्यपालों के लिए समय-सीमा,
- तथा राष्ट्रपति के लिए तीन महीने की समय-सीमा —
निर्धारित की थी।
नवीनतम निर्णय ने इसे प्रभावी रूप से पलट दिया, यह कहते हुए कि—
- संविधान में जहां मौन है, वह जानबूझकर है।
- न्यायपालिका इस मौन को प्रक्रिया जोड़कर या समय-सीमा लगाकर नहीं भर सकती।
- ऐसा करना संवैधानिक व्यवस्था में न्यायालय के अतिक्रमण (judicial overreach) की श्रेणी में आता।
यह निष्कर्ष भारतीय न्यायपालिका द्वारा self-restraint सिद्धांत को पुनः अपनाने का संकेत है।
राज्यपाल और राष्ट्रपति के संवैधानिक विकल्पों की पुष्टि
सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि राज्यपाल के पास तीन स्पष्ट विकल्प हैं (Articles 200–201)—
- Assent देना,
- विधेयक को पुनर्विचार हेतु लौटाना,
- विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करना।
इसी प्रकार राष्ट्रपति Article 111 और Article 201 के अंतर्गत स्वतंत्र निर्णय लेते हैं।
महत्वपूर्ण यह है कि ये अधिकार न्यायिक व्याख्या से नहीं बल्कि संविधान से उत्पन्न होते हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि न्यायालय नए विकल्प जोड़ नहीं सकता।
Article 143 और सलाहात्मक राय (Advisory Opinion) पर स्पष्टता
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि हर बार जब राज्यपाल कोई विधेयक राष्ट्रपति के नाम आरक्षित करते हैं, राष्ट्रपति को Article 143 के तहत सलाहात्मक राय माँगने की कोई बाध्यता नहीं है। यह तथ्य कई कारणों से महत्वपूर्ण है—
- इससे अनावश्यक संवैधानिक जाम (constitutional bottleneck) से बचाव होता है।
- यह विधायी प्रक्रिया को कार्यपालिका–न्यायपालिका मिश्रित न बनाकर कार्यपालिका-केंद्रित रखता है।
- इससे संविधान के दो स्तंभों — कार्यपालिका और न्यायपालिका — की भूमिकाएँ स्पष्ट और पृथक रहती हैं।
यदि हर मामले में राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट की राय लेनी पड़ती, तो यह शासन-प्रक्रिया को अत्यंत जटिल और धीमा कर देता।
“Deemed Assent” का अस्वीकार: संवैधानिक स्थिरता की रक्षा
निर्णय का एक महत्त्वपूर्ण पहलू “deemed assent” अवधारणा का अस्वीकार है।
लेख के अनुसार—
- “Deemed assent” संविधान में निहित या कल्पित नहीं है।
- न्यायालय इसे निर्मित नहीं कर सकता।
- समय-सीमा के बाद स्वचालित स्वीकृति मान लेने से राज्यपाल/राष्ट्रपति की संवैधानिक स्वतंत्र भूमिका नष्ट हो जाएगी।
इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने विधायी प्रक्रिया की गंभीरता और विवेकाधीनता को बनाए रखा।
न्यायिक समीक्षा की सीमा: Merit बनाम Procedure
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—
- राज्यपाल/राष्ट्रपति के निर्णय का merit न्यायिक समीक्षा से बाहर (non-justiciable) है।
- परंतु यदि निर्णय में अनुचित, अनंत, अकारण विलंब है, जिससे संविधान की कार्यप्रणाली बाधित होती है, तो न्यायालय सीमित procedurally हस्तक्षेप कर सकता है।
यह व्यवस्था दिखाती है कि न्यायपालिका अपने अधिकारों का उपयोग संतुलित, संयमी और संवैधानिक सीमाओं के भीतर रखती है।
संघवाद पर प्रभाव: केंद्र-राज्य गतिशीलता का संरक्षण
कोर्ट ने इस निर्णय को संघवाद के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण बताया। लेख के अनुसार—
- राज्यपाल की भूमिका मध्यस्थ (intermediary) के रूप में अत्यंत संवेदनशील है।
- समय-सीमा थोपने से राज्यपाल की स्वतंत्र भूमिका सीमित हो जाती।
- इससे केंद्र–राज्य संतुलन, विशेषकर राजनैतिक संदर्भों में, प्रभावित होता।
इसलिए न्यायालय ने संस्थागत स्वायत्तता को सुरक्षित करते हुए संघीय ढांचे की “delicate balance” को बनाए रखा।
प्रशासनिक व राजनीतिक निहितार्थ
निर्णय का संदेश स्पष्ट है—
- न्यायपालिका शासन नहीं करेगी।
- राज्यपालों/राष्ट्रपतियों की संवैधानिक प्राथमिकताएँ विधायिका और केंद्र–राज्य संबंधों में निर्णायक हैं।
- कार्यपालिका के निर्णय पर न्यायपालिका दिशा नहीं देगी, केवल सीमा-नियामक (boundary-keeper) की भूमिका निभाएगी।
यह भारतीय लोकतंत्र को संस्थागत परिपक्वता प्रदान करता है।
समाजिक व लोकतांत्रिक प्रभाव
यह निर्णय भारत की संवैधानिक लोकतांत्रिक संस्कृति को निम्न प्रकार से सुदृढ़ करता है—
- संवैधानिक संस्थाएँ “autonomous yet accountable” बनती हैं।
- न्यायालय द्वारा अत्यधिक हस्तक्षेप के खतरे को सीमित किया गया।
- नागरिकों का विश्वास बढ़ता है कि संवैधानिक ढांचा अल्पकालिक राजनीतिक विवादों के बावजूद स्थिर और सार्थक बना रहेगा।
निष्कर्ष (Conclusion)
सुप्रीम कोर्ट का यह एकमत निर्णय भारतीय लोकतंत्र में “संवैधानिक मौन” के सम्मान, शक्तियों के पृथक्करण, संघवाद, तथा संस्थागत स्वायत्तता की पुनर्पुष्टि करता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों में न्यायालय प्रवेश नहीं करेगा, और “deemed assent” जैसी प्रक्रियाएँ संविधान-विरुद्ध हैं। यह निर्णय प्रशासनिक स्थिरता, संवैधानिक मर्यादा और सूक्ष्म सत्ता-संतुलन को सुरक्षित रखने वाला ऐतिहासिक कदम है।
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📌 संभावित UPSC / State PCS परीक्षा प्रश्न GS Paper II (Polity & Governance)
GS Paper II (Federalism)
GS Paper III (Governance & Constitutional Stability)
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