यह लेख The Print में प्रकशित Opinion (Why China targets Arunachal citizens — and how Nehru, Patel and Khathing saw it coming) से लिया गया हैं, इस लेख में चीन द्वारा अरुणाचल नागरिकों को प्रताड़ित करना कोई प्रशासनिक त्रुटि नहीं, बल्कि भारत की संप्रभुता को चुनौती देने वाली सोची-समझी रणनीति है। लेख ऐतिहासिक दस्तावेजों, 1914 मैकमोहन रेखा, 1950-51 के प्रशासनिक कदमों, पटेल–नेहरू पत्राचार, और 1962 युद्ध के संदर्भों से इसे प्रमाणित करता है।
सीमा, संप्रभुता और रणनीति: क्यों चीन अरुणाचल नागरिकों को निशाना बनाता है
प्रस्तावना: चीन की रणनीति और भारत की प्रतिक्रिया
चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को लेकर बार-बार की जाने वाली कार्रवाइयाँ—जैसे स्टेपल्ड वीजा, ट्रांज़िट ज़ोन में अवैध हिरासत, और अरुणाचल प्रदेश को “Zangnan” (South Tibet) कहना—सिर्फ कूटनीतिक टकराव नहीं बल्कि भारत की संवैधानिक संप्रभुता को चुनौती देने का एक दीर्घकालिक प्रयास है। हाल ही में Prema Wangjom Thongdok की शंघाई एयरपोर्ट पर अवैध हिरासत इसी निरंतर रणनीति का नवीनतम उदाहरण है। यह केवल “इमिग्रेशन गलती” नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में चीन द्वारा अरुणाचल की भारतीयता को बार-बार प्रश्नगत करने की स्थापित नीति का हिस्सा है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: मैकमोहन रेखा और 1914 का सिमला सम्मेलन
अरुणाचल प्रदेश का आधुनिक स्वरूप NEFA (North-East Frontier Agency) से विकसित हुआ है। इसका आधार 1914 में हुए सिमला सम्मेलन में भारत, तिब्बत और चीन के प्रतिनिधियों द्वारा तैयार मैकमोहन रेखा है।
- सम्मेलन की शुरुआत 1914 की गर्मियों में सिमला में हुई और अंत नई दिल्ली में हुआ।
- इस समझौते को भारत और तिब्बत ने स्वीकार किया, जबकि चीन ने बाद में आपत्ति जताई, परंतु ब्रिटिश भारत ने इसे विधिवत लागू किया।
- मैकमोहन रेखा आज तक भारत–चीन सीमा का आधार है, जिसे बाद में चीन ने LAC (Line of Actual Control) को परिभाषित करते समय भी अप्रत्यक्ष रूप से माना।
इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ का महत्व इस बात में है कि यह अरुणाचल प्रदेश की भारतीयता का अंतरराष्ट्रीय और औपनिवेशिक प्रशासनिक आधार प्रदान करता है, जिसे चीन बार-बार कमजोर करने का प्रयास करता है।
औपनिवेशिक काल में प्रशासनिक शिथिलता: भूगोल बनाम शासन का अंतर
प्रथम विश्व युद्ध और अरुणाचल के दुर्गम भूभाग के कारण ब्रिटिश प्रशासन के अधिकारियों की सीमाई क्षेत्रों में नियमित उपस्थिति मुश्किल रही।
- परिणामस्वरूप तवांग मठ सहित कई क्षेत्रों में स्थानीय प्रशासन तिब्बती लामाओं द्वारा संचालित था, जो दलाई लामा के धार्मिक प्रभाव में थे।
- यह प्रशासनिक रिक्तता बाद में चीन द्वारा भ्रम फैलाने के प्रमुख तर्क के रूप में उपयोग की गई।
लेकिन यह तथ्य क्षेत्रीय संप्रभुता नहीं बल्कि केवल प्रशासनिक दूरी को दर्शाता है, जो अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार स्वामित्व को नहीं बदलती।
स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण: सरदार पटेल की चेतावनी
1950 के दशक में चीन द्वारा तिब्बत पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के बाद, भारत की उत्तरी सीमाओं पर पहला बड़ा सामरिक खतरा उत्पन्न हुआ। इसी संदर्भ में 15 दिसंबर 1950 से ठीक एक सप्ताह पहले सरदार वल्लभभाई पटेल ने जवाहरलाल नेहरू को एक महत्वपूर्ण पत्र लिखा।
इस पत्र में उन्होंने स्पष्ट किया कि:
- “चीनी कम्युनिज़्म भी साम्राज्यवाद से मुक्त नहीं है।”
- “तिब्बत अब मित्रवत बफर राज्य नहीं रहा, इसलिए भारत को अपनी उत्तरी–पूर्वी सीमाओं पर तत्काल राजनीतिक एवं प्रशासनिक कदम उठाने होंगे।”
पत्र में सुझाए गए प्रमुख कदम—सीमा सुरक्षा, संचार-पथ विकास, खुफिया सुदृढ़ीकरण, ल्हासा मिशन का भविष्य, मैकमोहन रेखा की नीति—आज भी सामरिक दृष्टि से प्रासंगिक माने जाते हैं।
प्रशासनिक कार्रवाई: 1951 का तवांग अभियान
पटेल के निर्देशों के आधार पर तत्कालीन असम राज्यपाल जयरामदास दौलतराम ने NEFA पर नियंत्रण को मज़बूत करने की दिशा में निर्णायक कदम उठाए।
- उन्होंने असम राइफल्स के मेजर रालेंगनाओ ‘बॉब’ खाथिंग को तवांग क्षेत्र में भारतीय प्रशासन की पुनर्स्थापना का दायित्व सौंपा।
- 9 फरवरी 1951 को खाथिंग दल तवांग पहुँचा और स्थानीय लामाओं को सूचना दी कि क्षेत्र अब भारतीय प्रशासन के अधीन है।
- 200 सैनिक, 800 कुली और खच्चरों के साथ यह अभियान मैकमोहन रेखा की पुनर्पुष्टि का पहला बड़ा स्वतंत्रता-उपरांत कदम था।
यदि पटेल अधिक समय जीवित रहते, तो सम्भवतः भारत ल्हासा स्थित वाणिज्य दूतावास, ग्यांत्से व यातुंग के सैन्य ठिकानों को भी सुरक्षित रख सकता था—जो चीन की विस्तारवादी कोशिशों को सीमित कर सकते थे।
भारत की विदेश नीति में वैचारिकता: तिब्बत और चीन पर नरम रुख
पटेल के निधन के बाद भारतीय विदेश नीति में एक आदर्शवादी झुकाव आया। भारत ने:
- चीन के तिब्बत पर सर्वोच्चता (Suzerainty) को स्वीकार किया,
- चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश दिलाने में समर्थन दिया।
यह बाद में भारत के लिए रणनीतिक गलती साबित हुआ, क्योंकि चीन ने इस सद्भावना का उत्तर 1962 के युद्ध और सीमा-आक्रामकता से दिया। इसी काल में 1952 में पहली हिंदी मानचित्र में शब्द ‘चीन (Cheen)’ का प्रयोग भी दिखाई देता है, जो औपनिवेशिक काल के बाद भारतीय भौगोलिक चेतना के परिवर्तन का संकेत था।
1962 का भारत–चीन युद्ध: ऐतिहासिक मोड़
23 अक्टूबर 1962 को चीनी सेना ने NEFA में बहु-आयामी आक्रमण शुरू किया और:
- तवांग (मठ-नगर) पर कब्ज़ा कर लिया,
- फिर बोमदिला तक पहुँच गई, जो असम के रणनीतिक मैदानी हिस्से से मात्र 250 किमी दूर था।
भारत की आर्थिक संपदा—चाय बागान, तेलक्षेत्र, जूट उद्योग—जो असम में स्थित थे, सीधे खतरे में आ गए। किंतु आश्चर्यजनक रूप से, 21 नवंबर 1962 को चीन ने एकतरफा युद्धविराम घोषित किया और:
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LAC से 20 किमी उत्तर तक वापस चला गया।
यह दर्शाता है कि चीन का उद्देश्य भू-अधिग्रहण नहीं बल्कि भारत की सामरिक और राजनीतिक मनोवैज्ञानिक क्षमता को परखना और कमजोर करना था।
वर्तमान संदर्भ: प्रेमा वांगजॉम थोंगडोक का मामला
2024–25 में प्रेमा वांगजॉम थोंगडोक का मामला यही प्रश्न पुनः उठाता है कि—क्या चीन जानबूझकर निजी भारतीय नागरिकों को निशाना बनाकर राजनीतिक संदेश देना चाहता है?
- उन्हें शंघाई अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर अवैध रूप से रोका गया,
- चीन ने इसे “कानून के अनुसार” बताया,
- और अरुणाचल को फिर “Zangnan” कहकर भारत की संप्रभुता पर प्रश्न उठाया।
यह घटना Chicago Convention (1944) और Montreal Convention (1971)—दोनों के सिद्धांतों का उल्लंघन है, जिनमें स्पष्ट है कि अंतरराष्ट्रीय ट्रांजिट में यात्रियों को कूटनीतिक विवादों का शिकार नहीं बनाया जा सकता।
चीन की रणनीति: एक सुनियोजित पैटर्न
चीन की कार्रवाईयों में निम्नलिखित पैटर्न स्पष्ट है:
- अरुणाचल के नागरिकों को अलग वर्ग के रूप में चित्रित करना।
- अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अरुणाचल को विवादित क्षेत्र दिखाना।
- भारत को उकसाने के लिए:
- स्टेपल्ड वीज़ा जारी करना,
- खिलाड़ियों का वीज़ा रोकना,
- निजी यात्रियों को हिरासत में लेना,
- सीमा पर इंफ्रास्ट्रक्चर दबाव बनाना।
यह नीति चीन की “salami slicing strategy” का हिस्सा है—जहाँ धीरे-धीरे विवाद को बढ़ाया जाता है ताकि अंततः क्षेत्र को “विवादित” स्वीकार करवाया जा सके।
सामाजिक–राजनीतिक प्रभाव: अरुणाचल नागरिकों की पहचान पर चोट
चीन की इन कार्रवाइयों का उद्देश्य दोहरा है:
- अरुणाचल नागरिकों को यह संदेह हो कि उनकी पहचान “भारतीय” के रूप में सुरक्षित है या नहीं।
- विश्व समुदाय को यह संदेश देना कि यह क्षेत्र चीन का “वैध दावा” है।
यहाँ भारत का कठोर कूटनीतिक रुख महत्वपूर्ण है, क्योंकि किसी भी नागरिक की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा पर चोट, राज्य-प्रभुता पर मानी जाती है।
समाधान का रास्ता: राष्ट्रीय सुरक्षा और कूटनीतिक आक्रामकता
भारत को निम्न उपाय अपनाने चाहिए:
- कानूनी स्तर पर:
- अंतरराष्ट्रीय संगठनों में लगातार विरोध दर्ज करना।
- ICAO में औपचारिक शिकायत दर्ज करना।
- सैन्य–भौतिक स्तर पर:
- अरुणाचल में इंफ्रास्ट्रक्चर, सड़कें, हवाई पट्टियाँ, गाँव पुनर्वास योजनाएँ।
- कूटनीतिक स्तर पर:
- मित्र देशों को यह समझाना कि चीन की रणनीति नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- राजनीतिक स्तर पर :
- चीन की विस्तारवादी नीति को “साम्राज्यवाद का आधुनिक रूप” बताना, जैसा कि सरदार पटेल ने चेताया था।
निष्कर्ष
चीन का अरुणाचल प्रदेश पर दावा इतिहास, संधियों, तथ्य, और आधुनिक अंतरराष्ट्रीय कानून—सभी के स्तर पर अमान्य है। फिर भी उसका उद्देश्य कानूनी जीत नहीं, बल्कि कूटनीतिक भ्रम खड़ा करना और भारत को मानसिक–राजनीतिक दबाव में रखना है। भारत को अब वैचारिक नहीं—यथार्थवादी विदेश नीति से जवाब देना होगा।
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📌 UPSC / State PCS के संभावित परीक्षा प्रश्न GS Paper I (Essay Paper/History)
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GS Paper III (Internal Security / Border Management)
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