उत्तराखंड राज्य के गठन के लिए हुए आंदोलन के दौरान, हजारों आंदोलनकारियों ने अपने संघर्ष और बलिदान से राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। इन आंदोलनकारियों के योगदान को मान्यता देने और उनके कल्याण के लिए, उत्तराखंड सरकार ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए सरकारी सेवाओं में 10% क्षैतिज आरक्षण का प्रावधान किया है। इस निर्णय से न केवल आंदोलनकारियों को बल्कि उनके आश्रितों को भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलेगा।
विधेयक की पृष्ठभूमि और मंजूरी की प्रक्रिया
इस विधेयक की शुरुआत 8 सितंबर 2023 को हुई, जब मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार ने इसे विधानसभा में प्रस्तुत किया। हालांकि, कुछ सदस्यों ने विधेयक के प्रावधानों में संशोधन की मांग की, जिसके बाद इसे प्रवर समिति के पास भेजा गया। समिति ने संशोधनों के साथ अपनी रिपोर्ट 6 फरवरी 2024 को प्रस्तुत की, जिसे सदन ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया। इसके बाद, विधेयक को राज्यपाल की मंजूरी के लिए राजभवन भेजा गया। राजभवन से स्वीकृति मिलने के बाद, यह विधेयक अब कानून का रूप ले चुका है।
विधेयक के प्रावधान और उसके लाभार्थी
विधेयक के अंतर्गत, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को 10% क्षैतिज आरक्षण का लाभ मिलेगा। यह आरक्षण ऐसे आंदोलनकारियों के लिए है, जिन्होंने राज्य के गठन के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया और जिन्हें राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है। विधेयक के अनुसार, यदि आंदोलनकारी 50 वर्ष से अधिक आयु के हैं या शारीरिक एवं मानसिक रूप से अक्षम हैं, तो उनके आश्रितों को इस आरक्षण का लाभ मिलेगा। आश्रितों में पत्नी, पति, पुत्र, अविवाहित पुत्री, विधवा और परित्यक्त तलाकशुदा पुत्री शामिल हैं।
विधेयक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों के लिए आरक्षण का मुद्दा नया नहीं है। वर्ष 2004 में, तत्कालीन नारायण दत्त तिवारी सरकार ने एक शासनादेश जारी कर आंदोलनकारियों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने का निर्णय लिया था। हालांकि, 2011 में नैनीताल हाईकोर्ट ने इस आरक्षण पर रोक लगा दी और 2015 में इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसके बाद, कांग्रेस सरकार ने इस आरक्षण को कानूनी रूप देने का प्रयास किया, लेकिन यह प्रयास विफल रहा। वर्ष 2023 में, फिर से इस विधेयक को पुनर्जीवित किया गया और आखिरकार 2024 में इसे विधानसभा से पारित कर राजभवन से मंजूरी प्राप्त हुई।
रेवड़ी कल्चर और बढ़ता आरक्षण
रेवड़ी कल्चर का तात्पर्य उस राजनीतिक प्रक्रिया से है, जिसमें वोट बैंक मजबूत करने के लिए मुफ्त सुविधाओं या विशेषाधिकारों का वितरण किया जाता है। यह रणनीति, विशेष रूप से चुनावी मौसम में, राजनीतिक दलों द्वारा अधिकतर अपनाई जाती है। इस संदर्भ में, आरक्षण भी एक प्रकार का विशेषाधिकार है, जिसे विभिन्न वर्गों को राजनीतिक समर्थन पाने के लिए वितरित किया जाता है।
हालांकि, आरक्षण की व्यवस्था समाज के पिछड़े और वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए बनाई गई थी, लेकिन वर्तमान समय में यह केवल वोट बैंक की राजनीति का साधन बन गई है। उत्तराखंड में हाल ही में किए गए आरक्षण की घोषणा को भी इसी दृष्टि से देखा जा सकता है।
जब प्रधानमंत्री अन्य पार्टियों द्वारा मुफ्त सुविधाओं के वितरण की आलोचना करते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या बढ़ते हुए आरक्षण का यह सिलसिला भी उसी ‘रेवड़ी कल्चर’ का हिस्सा नहीं है? उत्तराखंड में हाल ही में घोषित 10% आरक्षण को भी इस संदर्भ में देखा जा सकता है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण का दायरा बढ़ाने से गैर-आरक्षित वर्ग के लिए अवसर सीमित होते जा रहे हैं।
उत्तराखंड में आरक्षण की स्थिति
उत्तराखंड राज्य में हाल ही में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों के लिए 10% आरक्षण की घोषणा की गई है। यह आरक्षण ऊर्ध्वाधर श्रेणी में आता है, जो कि पहले से ही अन्य वर्गों के लिए आरक्षित सीटों में और कमी लाता है। यदि सरकारी नौकरियों के 100 पदों का उदाहरण लिया जाए, तो स्थिति कुछ इस प्रकार है:
क्षैतिज आरक्षण (47%)
- अनुसूचित जाति (SC): 19%
- अनुसूचित जनजाति (ST): 4%
- अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC): 14%
- आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS): 10%
इन वर्गों के लिए कुल 47 सीटें आरक्षित हो जाती हैं।
ऊर्ध्वाधर आरक्षण (शेष 53 सीटों पर)
- महिलाएं : 30% (लगभग 16 सीटें)
- पूर्व सैनिक : 5% (लगभग 3 सीटें)
- स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रित : 2% (लगभग 1 सीट)
- दिव्यांगजन : 4% (लगभग 2 सीटें)
- खिलाड़ी : 5% (लगभग 3 सीटें)
- अनाथ बच्चे : 5% (लगभग 3 सीटें)
- राज्य आंदोलनकारी और उनके आश्रित : 10% (लगभग 5 सीटें)
इस तरह, ऊर्ध्वाधर आरक्षण के तहत 33 सीटें आरक्षित हो जाती हैं, जिससे गैर-आरक्षित वर्ग के लिए केवल 20 सीटें बचती हैं।
निष्कर्ष
उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों के लिए 10% क्षैतिज आरक्षण का निर्णय, एक महत्वपूर्ण कदम है जो उनके संघर्ष और बलिदान की मान्यता को दर्शाता है। हालांकि, आरक्षण की बढ़ती प्रवृत्ति और इसके दायरे में विस्तार से यह सवाल उठता है कि क्या यह भी एक प्रकार का ‘रेवड़ी कल्चर’ है, जो केवल कुछ वर्गों को लाभ पहुंचाने के लिए लागू किया जा रहा है।
सरकार को एक संतुलित नीति बनानी चाहिए, ताकि सभी वर्गों को समान अवसर मिल सके, बजाय इसके कि कुछ वर्गों को आरक्षण की ‘रेवड़ी’ बांटी जाए। यह महत्वपूर्ण है कि आरक्षण के लाभार्थियों की पहचान और चयन निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से हो, ताकि किसी भी प्रकार के दुरुपयोग को रोका जा सके।