Tehri Principality

टिहरी रियासत की प्रशासनिक व्यवस्था

टिहरी रियासत (Tehri Principality) में शासन व्यवस्था प्राचीन परम्पराओं एवं आदर्शो पर आधारित थी। राजा इस व्यवस्था के केन्द्र में होता था किन्तु वह निरंकुश नहीं था। वह अपने मंत्रिमण्डल के परामर्श से ही प्रशासन चलाता था। राज्य की समस्त प्राकृतिक, स्थावर एवं जंगम सम्पति, भूमि, वन, खनिज इत्यादि सभी पर राजा का अधिकार माना जाता था। राजा मंत्रिपरिषद् का अध्यक्ष होता था। वह कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का प्रमुख भी था। सभी नियुक्तियाँ वह स्वयं करता था। उसकी आज्ञा सर्वोपरि होती थी।

राज्य में दीवान अथवा वजीर राजा के पश्चात् सर्वोच्च पदाधिकारी था। राज्य के सभी विभाग एवं उनके कार्यालय इसी के अधीन होते थे। राज्य की आन्तरिक व्यवस्था एवं नीतियों का निर्धारण मुख्यतः दीवान के द्वारा ही होता था। रवांई कांड के लिए मूलतः जिम्मेदार दीवान चक्रधर नरेन्द्रशाह के काल में इस पद पर नियुक्त थे। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से राज्य का विभाजन ठाणों, परगनों, पट्टियों एवं ग्रामों के रूप में किया गया था। सम्पूर्ण राज्य में चार ठाणे थे। ठाणे का प्रशासक ठाणदार कहलाता था। इन चार ठाणों का विभाजन परगनों में किया गया था जिसका प्रशासक ‘सुपरवाइजर’ कहलाता था। प्रत्येक परगना पट्टियों में विभाजित था जिनमें राजस्व व पुलिस व्यवस्था की जिम्मेदारी पटवारी की होती थी। प्रत्येक पटवारी के अधीन निश्चित संख्या में ग्राम होते थे। पटवारी इन गांवो से राजस्व एकत्रित कर सरकारी खजाने में जमा करवाता था। प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई ग्राम थे जिनके मुखिया को ‘पधान’ कहते थे। पधान ही अपने गाँव से राजस्व एकत्रित करने में पटवारी को सहायता देता था। पधान को गाँव के ही मोरूसीदारों में से नियुक्त किया जाता था।

शिक्षा व्यवस्था

प्रारम्भिक काल में रियासत के नरेशों ने शिक्षा-व्यवस्था की ओर कोई ध्यान न दिया। राजपरिवार के बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा के लिए अवश्य कुछ पंडित नियुक्त किए जाते थे। किन्तु प्रतापशाह के काल से शिक्षा क्षेत्र की ओर भी ध्यान दिया जाने लगा।

  • कीर्तिशाह ने अंग्रेजी शिक्षा की दिशा में कदम बढ़ाते हुए राजधानी में प्रताप हाईस्कूल एवं हीवेट संस्कृत पाठशाला खुलवाई।
  • कीर्तिशाह ने टिहरी में ही मुहमद मदरसा और कैम्पबेल बोर्डिंग हाउस भी बनवाया।
  • बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को नरेन्द्रशाह द्वारा प्रदत्त एक मुश्त एक लाख की राशि पर कीर्तिशाह चेयर ऑफ इंडस्ट्रीयल केमेस्ट्री स्थापित है जो वर्तमान में इस क्षेत्र में शोध करने वाले को वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

न्याय व्यवस्था

गोरखों द्वारा स्थापित न्याय व्यवस्था में परिवर्तन किया गया। ‘दिव्य’ प्रकार की न्याय व्यवस्था का अंत हुआ।

  • प्रथम शासक सुदर्शनशाह ने छोटी दीवानी, बड़ी दीवानी, सरसरी न्यायालय एवं कलक्टरी न्यायालय खोले।
  • हत्या के मामलों का निर्णय स्वयं राजा द्वारा होता था।
  • नरेन्द्रशाह ने परम्परागत एवं प्रथागत नियमों को संहिताबद्ध करवाया जिन्हें ‘नरेन्द्र हिन्दू लॉ’ के नाम से जाना जाता है।
  • वर्ष 1938 ई0 में नरेन्द्रशाह ने राज्य में एक हाईकोर्ट की स्थापना की। इसमें एक मुख्य न्यायधीश एवं एक या एक से अधिक जजों की नियुक्ति की व्यवस्था रखी गई थी।
  • हाईकोर्ट एवं उसके अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय पर पुर्नविचार का अधिकार महाराज को था। इस कार्य में महाराज जूडिशियल कमेटी की सलाह ले सकते थे।
  • फौजदारी मुकदमों की सुनवाई के लिए सैशन न्यायालय स्थापित किए गए। इस प्रकार के न्यायालय का प्रमुख सैशन जज होता था जिसके अधीन प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय श्रेणी के न्यायधीश होते थे।
  • नरेन्द्रशाह ने यूरोपीय पद्धति को अपने राज्य में स्थापित किया।

अर्थव्यवस्था

प्रारम्भिक काल में रियासत की अर्थव्यवस्था बहुत खराब थी, यही कारण है कि महाराज सुदर्शनशाह को अपने राज्य का आधा हिस्सा अंग्रेजो को सौंपना पड़ा।

  • राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भूमिकर ही था। इसके अतिरिक्त वन, न्यायालय, यातायात, आयात-निर्यात, मादक द्रव्य उत्पादन, ब्रिकीकर इत्यादि राज्य की आय के स्त्रोत थे।
  • भूमिकर का ⅞ भाग नकद लिया जाता था। जिसे ‘रकम’ कहते थे एवं शेष भाग जीन्स रूप में लिया जाता था।
  • जागीरदार और मुऑफीदार अपने-अपने गाँवों से ‘रकम’ ‘बरा’ एवं लकड़ी लिया करते थे।
  • राज्य के कर्मचारी, पटवारी, उसके अधीनस्थ ‘चाकर’ और फॉरेस्ट गार्ड को भी गाँव से ‘बरा दिए जाने की प्रथा थी।
  • राज्य में वनों में शिकार खेलने के लिए लाइसेन्स, वन्य जीवों की खाल, सींग, दाँत, बहुमूल्य जड़ी-बूटी, छाल, फूल, फल इत्यादि को ठेके पर देने की प्रथा थी जिससे राज्य की पर्याप्त आय होती थी।
  • ग्रामीणों से वसूला जाने वाला जुर्माना भी आय का महत्पूर्ण स्त्रोत था।
  • सुदर्शनशाह ने वादी से शुल्क लेने की प्रथा आरम्भ की। यह शुल्क राजकोष में नगद जमा कराया जाता था।
  • प्रतापशाह ने बढ़ती मुकदमों की संख्या को देखते हुए सुनवाई तिथि निश्चित करने एवं कोर्ट फीस के रूप में टिकट प्रथा आरम्भ की।
  • कुली-उतार के लिए भ्रमण करने वाले व्यक्ति से राशि ली जाती थी जिसका एक अंश ग्रामीणों को देकर शेष ट्रांसपोर्ट विभाग की आय में सम्मिलित कर लिया जाता था।
  • टिहरी नरेशों के राज्यकाल में दास-दासियों का विक्रय होता था और यह भी राज्य की आय का एक स्त्रोत था।
  • टिहरी नरेशों के द्वारा सड़क मार्गों के विस्तार के साथ-साथ व्यापारिक गतिविधियाँ भी तीव्र हुई। अतः ब्रिकी कर, आयात-निर्यात कर, चुंगी इत्यादि से होने वाली आय भी बढ़ती गई।
  • कर वसूली के लिए चौकियों की स्थापना हुई।

अतः धीरे-धीरे राज्य में समृद्धि आने लगी। यद्यपि उद्योग धन्धों की उन्नति एवं स्थापना की दिशा में विशेष ध्यान नहीं दिया गया। राज्य के लोगों की निर्भरता खेती एवं पशुपालन पर ही अधिक बनी रही।

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टिहरी रियासत (Tehri Principality)

गढ़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह खुड़बुड़ा के युद्ध में गोरखों से अन्तिम रूप से पराजित हुए और वीरगति को प्राप्त हुए। राजकुमार प्रीतमशाह बन्दी बनाकर नेपाल भेज दिए गए। कुवंर पराकमशाह ने कांगड़ा राज्य में शरण ली। युवराज सुदर्शनशाह एवं कुवंर देवीसिंह को ज्वालापुर के ब्रिटिश क्षेत्र में पहुँचाया गया। सुदर्शनशाह ने अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी सहायता की याचना की। 1811 ई0 सुदर्शनशाह और मेजर हेरसी के मध्य तय हुआ कि अंग्रेज गढ़वाल को गोरखों से मुक्त कराने में मदद करेंगे और बदले में उन्हें देहरादून व चंडी क्षेत्र दे दिया जायेगा। सिंगौली के संधि से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड पर अंग्रेजी आधिपत्य हो गया। अतः सुदर्शन शाह से समझौते के अनुरूप उन्हें गढ़राज्य पर पुर्नस्थापित किया गया। सुदर्शनशाह द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित रकम लगभग न दे पाने के कारण गढ़वाल राज्य का विभाजन दो भागों में कर दिया गया।

  • इसके अलकनन्दा के पूर्व भाग को ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से कुमाऊँ जनपद में शामिल कर दिया गया एवं
  • देहरादून, चंडी क्षेत्रों को सहारनपुर में मिला लिया गया।

इस प्रकार प्रद्युम्नशाह के समय के गढ़वाल राज्य का एक हिस्सा उनके पुत्र सुदर्शनशाह को प्राप्त हुआ। सुदर्शनशाह ने इस नए राज्य की राजधानी “त्रिहरी” टिहरी में स्थापित की यह राज्य टिहरी रियासत के नाम से जाना जाता है।

सुदर्शनशाह एवं उनके वंशजों का टिहरी गढ़वाल पर अधिकार मार्च, 1820 ई0 की सन्धि के अनुसार स्वीकृत हुआ। इसकी एवज में सुदर्शनशाह ने आवश्यकता पड़ने पर हर संभव मदद का वचन दिया। अपने राज्य में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार किया और राज्य के अन्दर अंग्रेजो को व्यापार की अनुमति दी गई। वर्ष 1824 में रवांई क्षेत्र टिहरी रियासत को दे दिया गया। वर्ष 1942, से कुमाऊँ कमिश्नर को ही टिहरी रियासत में राजनैतिक प्रतिनिधित्व सौंप दिया गया। इस प्रकार से उत्तराखण्ड राज्य का गढ़वाल क्षेत्र का हिस्सा अंग्रेजो के पूर्ण नियंत्रण में एवं द्वितीय भाग अप्रत्यक्ष नियंत्रण में ‘टिहरी रियासत’ के नाम से स्थापित हो गया। इस रियासत के शासकनिम्नलिखित थे – 

 

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